सिनेमा

जन्नत की तलाश में ‘हामिद’

 

{Featured in IMDb Critics Reviews}

 

निर्देशक – एजाज खान
कास्ट- तल्हा अरशद रेशी, रसिका दुग्गल, मीर सरवर, विकास कुमार, सुमित कौल

फ़िल्म की कहानी है सात साल के हामिद बने ताल्हा अरशद रेहशी की। स्कूल में पढ़ने वाला 7-8 साल का मासूम सा बच्चा अपनी अम्मी इशरत बनी रसिका दुग्गल और अब्बू रहमत  बने सुमीत कौल के साथ रह रहा है। रहमत जो नाव बनाने का काम करता है और शौकिया तौर पर शायरी भी करता है। वह अपने बेटे को अल्लाह और दुनिया से जुड़ी अच्छी सीख देता है। एक रात बेटे हामिद के लिए सेल लाने की जिद को पूरा करने के लिए रहमत घर से निकलता है और फिर कभी वापस लौटकर नहीं आता। उस हादसे के बाद हामिद की जिन्दगी हमेशा के लिए बदल जाती है। इशरत बेटे और खुद को भूलकर शौहर की खोज में लग जाती है।

वहीं हामिद को पता चलता है कि उसका अब्बू अल्लाह के पास है और अब वह अल्लाह से अपने पिता को वापस लाने की जुगत लगाने लगता है। तभी उसे ये भी पता लगता है कि 786 अल्लाह का नम्बर है। अब हामिद को अल्लाह मियां से बात करके अपने अब्बू को वापस लाने की बात करनी है। हामिद जब अपनी बच्चा बुद्धि में किसी तरह उस नम्बर को बदलकर अल्लाह को फोन लगाता है, तो वह नम्बर सीआरपीएफ के जवान अभय (विकास कुमार) को लग जाता है। जिसके हाथों अनजाने  एक मासूम की जान जा चुकी है और वह उस बोझ को कम नहीं कर पा रहा। अब क्या हामिद अल्लाह से अपने अब्बू को वापस ला पाएगा? या क्या इशरत अपने गुमशुदा शौहर का पता लगा पाएगी? इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए आपको यह फिल्म देखनी होगी।

फ़िल्म जम्मू-कश्मीर पर उठे  सवालों से झकझोरने की कोशिश करती है। घाटी में आजादी की मांग को लेकर हो रहे संघर्ष, सेना पर पत्थरबाजी करते लोग, आजादी गैंग के नारे, नारों पर पेशाब करते सेना के सिपाही, स्थानीय लोगों के गायब हो जाने तथा उससे भी बढ़कर हामिद और इशरत की कहानी को इस फिल्म में 7 साल के बच्चे के नजरिए से दिखाने की शानदार कोशिश की गयी है।

 मसाला फिल्मों से इतर ‘बांके की क्रेजी बारात’ और ‘द व्हाइट एलीफेंट’ जैसी फिल्में बनाने वाले एजाज खान ने इस फिल्म का निर्देशन किया है। फिल्म की लंबाई अखरती है। फिल्म में कश्मीर में रहने वाले लोगों की व्यथाओं को दिखाने की सफल कोशिश की गयी है। स्थानीय लोगों द्वारा हामिद को पत्थरबाज बनाने की कोशिश और उसे सही राह दिखाने वाले अभय के बीच होने वाले संवाद दिल जीत लेते  है। सुमित सक्सेना और रविंद्र रंधावा के लिखे डायलॉग्स प्रभावी हैं। फिल्म की एडिटिंग कसी हुई नजर नहीं आती। सिनेमेटोग्राफी अच्छी रही।

लोकेशन के मामले में फ़िल्म रियलिस्टिक लगती है। हां गाने इतने प्रभावी नहीं हैं लेकिन फ़िल्म को देखते देखते वक्त आपको ऊबने नहीं देते। इससे पहले यह फ़िल्म कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म फेस्टिवल्स में भी दिखाई जा चुकी है। थियेटर में रिलीज होने के बाद अब यह नेटफ्लिक्स पर आई है। तल्हा अरशद रेशी, रसिका दुग्गल, विकास कुमार और मीर सरवर सहित सभी अपने किरदारों के साथ न्याय करते नजर आते हैं। अगर मसाला फिल्मों से हटकर आप कुछ अलग देखना चाहते हैं तो यह फिल्म आपको जरूर देखनी चाहिए।

फ़िल्म के संवादों में –

हामिद अपने नाम का मतलब पूछता है तो उसका अब्बू कहता है।

हामिद कहते हैं अल्लाह की तारीफ़ करने वाले को।

इस पर हामिद कहता है – मैं तो कभी अल्लाह की तारीफ़ नहीं करता और मैं उन्हें जानता भी नहीं!

तो अब्बू कहते हैं – अल्लाह सबको जानता है। सबकी खबर रखता है।

बच्चों के उसूलों पर अगर दुनिया चलती तो सचमुच जन्नत हो गयी होती। ऐसी ही जन्नत की तलाश करती है यह फ़िल्म और ऐसी ही उम्मीदों की कश्ती पर सवार दिखाई देती है।

जयशंकर प्रसाद की कविता ‘बढ़े-बढ़े चलो’ कविता इस फ़िल्म के स्तर को भी ऊंचा उठाती है।

अपनी रेटिंग – 3 स्टार

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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