सिनेमा

स्त्री को तलाश करती ‘अस्तित्व’

 

निर्देशक – आशुतोष सिंह
स्टार कास्ट – अर्पिता माली, आशुतोष सिंह

एक स्त्री अपने परिवार के लिए क्या कुछ करती है और क्या नहीं करती है। ये सब हम भली भांति जानते हैं और हजारों, लाखों कहानियां पढ़ी हैं, सुनी है, देखी है और तो और अपने आस पास भी घटित होते देखते हैं। तो कई बार इस स्त्री जाति के प्रति हम नतमस्तक होते हैं तो कभी उन्हें गालियां देते हैं। सिनेमा में स्त्री की कहानियों को अमूमन हर दूसरी फिल्म में दिखाया जाता रहा है। और एक समय वो भी था जब स्त्री का किरदार ही पुरुष निभाया करते थे।

खैर ये कहानी है एक ऐसी महिला की जिसके पति को लकवा मार गया है। घर में उसके और उसके पति के अलावा कोई नहीं है। सो वह वेश्यावृत्ति की राह पकड़ लेती है और बीमार पति की तीमारदारी भी करती है। महंगी दवाओं का खर्च भी उठाती है। अब पूरी फिल्म में सिर्फ एक शब्द पति द्वारा बोला जाता है और वह विचलित कर जाता है।

फ़िल्म कोई महान फ़िल्म नहीं है लेकिन बावजूद इसके स्त्री की कहानी को उसके स्वरूप, उसके अस्तित्व की तलाश को खोजती नजर भी आती है। बामुश्किल पांच मिनट की यह फ़िल्म कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में सराही जा चुकी है। तथा पुरुस्कार भी हासिल कर चुकी है। जिनमें इंडियन इंटरनेशनल फ़िल्म अवॉर्ड, आइकॉनिक शॉर्ट सिने अवॉर्ड, बेस्ट सोशल फ़िल्म, बेस्ट डायरेक्शन, बेस्ट ड्रामा सहित एक दर्जन से ज्यादा अवॉर्ड अपने नाम कर चुकी है। इसके अलावा कई बेहतरीन नेशनल, इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाई जा चुकी है।

अस्तित्व फिल्म सर्टिफिकेट

फ़िल्म में आशुतोष सिंह का अभिनय जंचता है लेकिन उसमें और सुधार किया जाना चाहिए था। महिला के किरदार में अर्पिता माली अपने हावभावों से ही सबकुछ कर जाती हैं। एडिटिंग में बेहद कसी हुई फ़िल्म है और ऐसा ही होना भी चाहिए था। कैमरा भी प्रभाव जमाता है। स्क्रीनप्ले शानदार लिखा गया है। पांच मिनट की फ़िल्म में मात्र एक शब्द का संवाद होना इसे और बेहतर बना देता है। लेकिन अफसोस भी होता है कि वही कामी और निकृष्ट सोच वाली पुरुषसत्तात्मक प्रवृति और सोच का हावी होकर महिलाओं को ऐसे सम्बोधन देना।

इससे पहले आशुतोष सिंह की फ़िल्म ‘चाय की टपरी‘ से कहीं ज्यादा बेहतर बनकर आई है यह फ़िल्म। अपने फेस्टिवल्स के सफ़र पर चल रही यह छोटी सी फ़िल्म कहीं भी, कभी भी देखने को मिले तो जरूर देखिएगा। इसके अलावा मुझे एक नकारात्मक बात कहूँ तो यह समझ नहीं आता कि ये फिल्मी दुनिया वाले अधिकतर महिलाओं को ऐसे कामों की ओर धकेलते हुए दिखाकर आखिर क्या साबित करना चाहते हैं? क्या इन कामों के अलावा उसके पास कोई काम नहीं या मात्र अपनी देह को ज्यादा तथा तेजी से धन कमाना ही जरिया रह गया है?

अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार

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तेजस पूनियां

लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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