कविता में मौन की जगह
अज्ञेय की एक छोटी सी कविता है- छंद। वे लिखते हैं- ‘मैं सभी ओर से खुला हूं / वन–सा, वन–सा अपने में बन्द हूं / शब्द में मेरी समाई नहीं होगी / मैं सन्नाटे का छन्द हूं।‘
प्रगतिशील हलकों में कभी इस सन्नाटे के छंद का मज़ाक भी बनता रहा। माना गया कि यह सन्नाटा कुछ कहने से बचने की कोशिश है। लेकिन कविता में क्या सन्नाटे की जगह नहीं होनी चाहिए? क्या सन्नाटे का मतलब शून्य होता है? भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता का शीर्षक ही है ‘सन्नाटा’। इस कविता में सन्नाटा बोल रहा है- ‘कुछ लोग भ्रांतिवश मुझे शांति कहते हैं / निस्तब्धता बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं / मैं शांत नहीं, निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूं / मैं मौन नहीं हूं, मुझमें स्वर बहते हैं।‘ यह कविता लंबी है और एक लोककथा तक जाती है।
लेकिन ऊपर के दो उद्धरणों में असली बातें दो हैं- एक तो यह कि रचना वन की तरह भी हो सकती है। कहने को जंगल खुला होता है, आप कहीं से दाख़िल हो सकते हैं। लेकिन यह जंगल बंद भी होता है। उसमें दाखिल होते हुए आपको बहुत सावधान रहना पड़ता है। कविता या भाषा का वन भी ऐसा ही होता है। उसमें सावधानी से दाखिल होना पड़ता है। वह जितना खुला होता है उतना ही बंद भी होता है।
दूसरी बात भवानी प्रसाद मिश्र कहते हैं- कि मौन भी कुछ कहता है। मौन का मतलब निर्वात चुप्पी या अनभिव्यक्ति नहीं है- वह भी अभिव्यक्ति है और कई बार सबसे सशक्त भावनाएँ मौन में ही व्यक्त होती हैं।
कविता के सामने एक चुनौती मौन को साधने की होती है। लगातार बोलती-भड़भड़ाती कविता एक हद के बाद हाँफने लगती है- उसके भीतर चुप्पियों और अंतरालों की जगह होनी चाहिए। उन अंतरालों के बीच एक अनकहा रह जाता है जिसमें सबसे सुंदर कविता संभव होती है।
यह सच है कि हर तरह की कविता इस मौन की शरण नहीं ले सकती। फिर कविता का लक्ष्य मौन को रचना नहीं है। यह बहुत बारीक फर्क है। कई बार हम संगीत सुनते हुए मौन को रचते हैं। संगीत में अंतराल के लिए बहुत कम अवकाश या स्थान होता है। वह ध्वनियों के एक अटूट सिलसिले से बनता है। लेकिन वह अटूट सिलसिला हमारे भीतर जितना गहरा उतरता है, उतना ही गहरा एक मौन भी पैदा होता है। यह अनायास नहीं है कि कबीर को लिखना पड़ता है- ‘सुन्न सिखर पर अनहद बाजे’ और यह कुमार गंधर्व की सबसे प्रिय पँक्तियों में बदल जाता है। यहां शून्य शिखर पर मौन का संगीत बज रहा है- भीतर की प्रशांति अपने चरम पर है।
लेकिन कविता इस शून्य शिखर पर मौन के निर्माण से नहीं बनती। उसे मौन के भीतर अर्थ खोजना पड़ता है। कई बार कवि इस मौन को, इस अनकहे को साधने में इतने अमूर्त और अबूझ हो जाते हैं कि कविता का मर्म ही नष्ट हो जाता है, अर्थ तो पहले ही पीछे छूट चुका है। दरअसल कविता हो या जीवन- दोनों में जितना कोलाहल है उतनी ही चुप्पी भी है। कोलाहल में भी चुप्पी है और चुप्पी में भी कोलाहल है। बड़ा कवि इस द्वंद्व को पकड़ने की कोशिश के बीच बनता है। चुप्पी के भीतर का कोलाहल समझना पड़ता है। जो कविताएँ बहुत ज्यादा बोलने के उत्साह से पैदा होती हैं, उनके अर्थ शब्दों में खोकर रह जाते हैं। लेकिन जो कविताएँ शब्दों के पार जाकर कुछ रचने का जतन करती हैं, उनके अर्थ देर तक हमारा पीछा करते हैं।
अमूमन मान लिया जाता है कि कविता का यह दर्शन या शिल्प उस प्रगतिशील या जनवादी कविता के लिए मुफीद नहीं है जो जनता के लिए या जनता को संबोधित करके लिखा जाता है। जनता की कविता को सीधे-सीधे बात कहनी चाहिए- यह जरूरी और उचित बात लेकिन हमारे भीतर इस तरह धँसाई गई है कि हम सपाटपन को ही अभिव्यक्ति मान लेते हैं। जबकि कविता को इस सपाटपन का अतिक्रमण कर अपना रास्ता खोजना पड़ता है। ध्यान से देखें तो जो सबसे लोकप्रिय जनवादी कवि हैं, उनके यहां संक्षिप्ति है, लेकिन सपाटपन नहीं। उनके पास बात को कहने का कौशल है- इस कौशल से ही वे अपनी आवाज ऊँची या नीची कर लेते हैं। कभी-कभी चुप्पी को भी बोलने देते हैं। कभी-कभी इशारों में भी अपनी बात कहते हैं। कई बार उपमाएँ भी प्रतीकों और बिंबों के चुनाव के बीच बहुत कुछ वह कह जाती हैं जो अन्यथा संभव नहीं है। ब्रेख्त की कविताएँ कई बार बहुत सरल-सहज लगती हैं, लेकिन वे भी जरूरत पड़ने पर बहुत मद्धिम आवाज में बोलते मिलते हैं। जरूरत पड़ने पर ऐसे प्रतीकों की मदद लेते हैं जिनके अर्थ बेहद सुस्पष्ट जान पड़ते हैं। मायाकोव्स्की को याद करते हुए एक छोटी सी कविता ब्रेख्त ने लिखी है- ‘शार्क मछलियों को मैंने चकमा दिया / शेरों को मैंने छकाया / मुझे जिन्होंने हड़प लिया / वे खटमल थे।‘
अब यह कविता बहुत स्पष्ट है। किसी को वाचालता की हद तक मुखर लग सकती है। लेकिन ब्रेख्त ने शार्क, शेर और खटमल के जो तीन बिंब इस्तेमाल किये हैं, उनके बारे में वे कुछ नहीं कहते। वे चाहते तो कुछ कह सकते थे। लेकिन इस पर उनकी कविता मौन है- यह पाठकों को महसूस करना है कि इन प्रतीकों के अर्थ क्या हैं और वे इसे उस तरह महसूस नहीं करेंगे जैसे ब्रेख्त ने सोचा है, बल्कि उस तरह करेंगे जो उनके अपने अनुभव के आईने से निकला, उसकी आंच से तपा हुआ सामने आएगा। बोलते हुए इस मौन को फैज अहमद फैज ने भी बहुत खूब साधा है। उनका तो शेर ही है- ‘वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था. वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है।‘
कविता का एक खेल यह भी है- जो बात सारे फसाने में दिख न रही हो, उसे चुपके से अभिव्यक्त कर देना।
लेकिन क्या यह एक आसान काम है? वह संतुलन कहाँ से लाया जाए जिसमें शब्दों में बसा मौन भी दिखे और मौन में बसे अर्थ भी परिलक्षित हों? क्योंकि जहाँ भी यह संतुलन टूटा, शब्द खोखले हो जाएंगे, या फिर मौन निरर्थक हो जाएगा। धर्मवीर भारती की एक कविता है- ‘उसी ने रचा है।’’ उसकी आख़िरी पंक्तियों में वे लिखते हैं- ‘नहीं, वह नहीं, जिसे थकन में याद किया, पीड़ा में / पाया, उदासी में गाया / नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुंध आया / भर आया / जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को / अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा / पड़ता हुआ पाया- हाय मैं नहीं, / मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है / – हर बार बचा है / मैंने नहीं, बल्कि उसने ही मुझे जिया / पीड़ा में पराजय में सुख की उदासी में लक्ष्यीन भटकन में / मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है- / -उसी ने रचा है!’
तो यह पहचानना पड़ता है कि रचना के क्षणों में रच कौन रहा है, कह कौन रहा है, सुन कौन रहा है। हमारे भीतर बैठा कोई चुपचाप हमारे अंतरालों को पूरा कर रहा होता है।
हालांकि यहां भी एक फांस है। जो कविताएं मौन की बात करती हैं- वे भी कई बार बहुत बोलती हुई निकलती हैं। क्या एक हद के बाद यह मौन अपर्याप्त जान पड़ता है? क्या बोलना- और सीधे-सपाट शब्दों में बोलना- इतना जरूरी लगता है कि उसे कविता की क़ीमत पर भी कहा जाए?
संभव है। लेकिन जब भी कवि कविता की ओर लौटेगा, वह मुखरता से चुप्पी की ओर लौटेगा, अभिव्यक्ति से अनुभव की ओर लौटेगा, बाहर से भीतर की ओर लौटेगा- और इन दोनों को जोड़ता हुआ अंततः वह रचेगा जो वास्तविक हो, जो उसके भीतर से भी आ रहा हो और बाहर भी जुड़ता हो। क्योंकि कविता चुप रहने की वकालत नहीं है, चुप्पी को सबसे धारदार ढंग से इस्तेमाल करने की कोशिश है। एक दौर था, जब समाजवादी हलकों में भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता खूब पढ़ी जाती थी- ‘साधारणतया मौन अच्छा है / किंतु मनन के लिए / जब शोर हे चारों तरफ़ / सत्य के हनन के लिए / तब तुम्हें अपनी बात / ज्वलंत शब्दों में कहनी चाहिए / सिर कटाना पड़े या न पड़े / तैयारी तो उसकी रहनी चाहिए।‘
जाहिर है, यहां मौन का अर्थ एक पलायनवादी चुप्पी है जो इस टिप्पणी का लक्ष्य नहीं है। यहां वह मौन है जिसकी ओर धूमिल की कविता इशारा करती है- ‘एक आदमी रोटी खाता है / एक आदमी रोटी बेलता है / एक और आदमी है जो न रोटी खाता है न रोटी बेलता है / वह रोटी से खेलता है / मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है? / मेरे देश की संसद मौन है।“
लेकिन कविता का मौन दरअसल शब्दों के छिलके में छुपे अर्थों को बाहर निकाल लाने के लिए होता है। यह मौन न हो तो लगातार बोलते शब्द बस अपना ही छिलका होकर रह जाएं। तो एक अर्थ में मौन कविता को अर्थों से जोड़ता है- बशर्ते कवि इसे ठीक से साध पाए।