रवीश कुमार को करीब से जानने का मौका देती “वाइल वी वॉचड”
नमस्कार मैं रवीश कुमार…. यहां से शुरु होने वाली एक पत्रकार की जुबान हमेशा अपने ढंग की पत्रकारिता के पैमाने गढ़ती गई। इस देश में और देश के बाहर बहुत से ऐसे लोग हैं… थे… रहेंगे। जिन्हें नमस्कार मैं रवीश कुमार आवाज से बेहद नफरत है… थी… रहेगी। लेकिन इस बीच बहुत से ऐसे भी लोग हैं… थे… रहेंगे जो उनकी पत्रकारिता के मुरीद हैं। वे जानते हैं की रवीश कुमार घंटों शोध के बाद एक शब्द लिखते बोलते रहे हैं… थे… रहेंगे।
बिहार से दिल्ली आया एक लड़का जो यहीं का होकर रह गया। पत्रकारिता जीवन के दौरान उसने करीब 30 साल एनडीटीवी संस्थान को दिए। पत्रकारिता जगत में रवीश खुद से आए या लाए गए इस पर भी यह डॉक्यूमेंट्री बात करती है। यह बात करती है उस समय की जब-जब देश को बिना लाग लपेट के सच जानना था।
यह बात करती है रवीश के प्राइम टाइम की। प्राइम टाइम के अलावा यह फ़िल्म उनके घर को भी दिखाती है। उनके परिवार के साथ बिताए जा रहे पलों को बताती है। यह फ़िल्म बताती है कि उनके भीतर भी एक भारत बसता है। एक संजीदा और संवेदनशील पत्रकार जब समाज बदलने उसे जगाने के इरादे से लिखने बैठता है। शोध करते हुए या प्राइम टाइम करते हुए कोई गलती करता है तो वह किसी को बिना कुछ कहे अपना काम कर लौट जाता है।
फ़िल्म वाइल वी वॉचड धैर्य दिखाती है…सिखाती है… बताती है। कुछ चंद सालों की घटनाओं, न्यूज़ वीडियो और एनडीटीवी के इतर रवीश कुमार के भीतर छुपे इंसानी मानवीय पलों को उकेरती है। जब तब देश में कोई घटना हो, किसी पर अत्याचार हो, रोजगार ना मिल रहा हो या उसके लिए भटक रहे छात्र हो उन्हें भी यह फ़िल्म पेश करती है आपके सामने।
रवीश कुमार को पसन्द करने वालों और ना पसन्द करने वालों की कमी नहीं है। जिन्हें वे पसन्द आते हैं उन्हें यह फिल्म भी पसन्द आएगी। जिन्हें नहीं तो वे इसे देखना ही क्यों चाहेंगे। भारत के बाहर आयरलैंड में रिलीज़ हो चुकी इस फ़िल्म को अभी तक ऑफिशियल स्क्रीन भारत में नहीं किया गया है।
देश में पिछले एक दशक से जो माहौल बना हुआ है। मीडिया के इतर जिस तरह की खबरें सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर आए दिन झूठ के पुलिदें के रूप में फैलती रही है उन्हें फैलने से रोकने और दर्शकों को सजग, सचेत बनाने का काम यह डॉक्यूमेंट्री करती नजर आती है। विनय शुक्ला के निर्देशन में रवीश कुमार पर इस डॉक्यूमेंट्री को जितना सुंदर तरीके से निर्देशक द्वारा निर्देशित किया गया है। उससे कहीं ज्यादा अच्छे तरीके से इसे अभिनव त्यागी द्वारा एडिट भी किया गया है।
ऐसी डॉक्यूमेंट्री आपको रवीश कुमार को और करीब से जानने का मौका तो देती ही है। साथ ही वे सिखाती है मुश्किल समय में संयम और धैर्य रखना। ऐसी फ़िल्में दिखाती है कि पत्रकारिता जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है उसे किस तरह अपने नैतिक जिम्मेदारियों को समझना चाहिए। जब जहां देखने का मौका मिले और रिलीज़ हो तो देख डालिए। खास करके वे लोग जो आज उनके एनडीटीवी छोड़ने पर खुश हैं। वे लोग इसे जरूर देखें वे जानेंगे की भीतर का रवीश किस तरह सोचता है…बोलता है… करता है।
बुसान इंटर नैशनल फ़िल्म फेस्टिवल सहित कई जगह सराही और पुरुस्कृत हुई इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म को देखने के बाद इतना तो तय है आपके भीतर नफ़रत या रवीश कुमार के बौद्धिक प्रति प्रेम में कुछ बदलाव तो ज़रूर आयेंगे।