पंचकृति
सिनेमा

पाँच संस्कृति का मेल ‘पंचकृति’ में

 

भारत संस्कृति से भरा-पूरा देश है ये तो हम सब जानते हैं। भारतीय सिनेमा ने भी गाहे-बगाहे इसे अपने ढंग से दिखाया-बताया है। 25 अगस्त को सिनेमाघरों में आ रही है ‘पंचकृति’ जिसमें पाँच अलग-अलग संस्कृतियाँ पाँच अलग-अलग कहानियों के माध्यम से दिखाई गई है। एक फिल्म में पाँच छोटी-छोटी कहानियाँ मिलाकर और कई निर्देशकों द्वारा उन्हें निर्देशित कर पहले भी हमारे सामने परोसा जाता रहा है। सिनेमा में इस विधा को एंथोलॉजी कहा जाता है। लेकिन पंचकृति में निर्देशक एक ही है और कहानियाँ भी पाँच-पाँच है।

पहली कहानी है – ‘खोपड़ी’ एक खोपड़ी कि इस कहानी में दिखाया-बताया जाता है कि दीवारों के कान भले ना हों उनकी आँखें जरुर होती हैं तभी दीवारें उस दुनिया को भी देख लेती है जिसे कोई आम इंसान नहीं देख सकता। अब भला ऐसी कौन सी दुनिया दीवारें देख लेती हैं वही ‘खोपड़ी’ दिखाती है। कहानी में एक पंडित का घर है और उसकी पंडिताईन घर में किसी अनजान कि खोपड़ी ले आने पर बवाल काटती है। अब क्या करेगा पंडित? क्या होगा उस खोपड़ी का इलाज वो इस पहली कहानी में पता चलेगा जब आप फिल्म देखेंगे।

दूसरी कहानी है – ‘अम्मा’ जिसमें एक छोटी सी लड़की जिसकी माँ उसे जन्म देते ही मर गई। बुआ और दादी के अलावा उसका बाप उस घर में है। अचानक बड़े होते-होते यह लड़की गुमसुम रहना शुरू कर देती है और अकेले में किसी से बतियाती रहती है। किससे बतिया रही है वह? क्या बतिया रही है वह भी आपको फिल्म देखने पर पता चलेगा।

तीसरी कहानी है – ‘सुआटा’ अब भला यह कौन सी बिमारी है आप कहेंगे? लेकिन बिमारी नहीं इसमें भी संस्कृति छुपी है देश कि। देश के किसी गाँव में प्रथा है सुआटा कि जिसमें लड़कियों को सुआटा देवता की पूजा करना जरुरी है वरना कोई बुरी आत्मा का साया या कोई बुरी सोच का आदमी उनके साथ कुछ भी गलत कर सकता है। इस प्रथा को भी आप फिल्म में देखते हैं।

चौथी कहानी है – ‘चपेटा’ भारत के किसी गाँव में लड़कियां कोख में मारी जा रही हैं और अचानक वहाँ के लड़के आधी रात में छुप कर कहीं जाते हैं और लड़की बनकर चपेटा का खेल खेल खेलते हैं। क्या है यह खेल? और क्या होगा जब उनके घर वालों को पता चलेगा? कि गाँव में उनसे छुपकर यह सब हो रहा है।

पाँचवी कहानी है – ‘परछाई’ एक लड़की के विवाह होने और उसकी प्रेम की कहानी के संस्कार के साथ भारत में बसने वाली सदियों कि प्रेम कथा को संस्कृति का रूप देकर इसे फिल्म कि शक्ल में ढाला गया है।

अब बात पूरी फिल्म कि एक फिल्म में आपने पाँच कहानियाँ दिखाई छोटी-छोटी अच्छा है लेकिन क्या ये उनके द्वारा दिखाई गई पाँचों कहानियाँ सिनेमा के स्तर पर खरी उतरती है तो उसका जवाब है पूरी तरह नहीं। ‘खोपड़ी’ कहानी अच्छी हो सकने वाली कहानी का जिस तरह लेखक, निर्देशक ने हश्र किया वह एकदम साधारण बनकर रह गई। वहीं ‘अम्मा’, ‘सुआटा’ और ‘चपेटा’ की कहानी खोपड़ी और ‘परछाई’ से कहीं ज्यादा बेहतर रही। कायदे से पहली और आखरी कहानी को छोड़ बाकी कि तीन कहानियाँ अपने कहन के स्तर तथा सिनेमा के हिसाब से उम्दा कहानियाँ ठहरती हैं। अम्मा में जिस तरह छोटी सी बच्ची के साथ हो रहे व्यवहार और उसके बाद भूत-प्रेत के साये में घोलकर इसे फैलाया गया है वह आपको प्यारा लग सकता है, पसंद भी आयेगा। कायदे से पाँच शॉर्ट फिल्मों को मिलाकर इस फिल्म को बनाने वालों ने यह तो अच्छा काम किया है कि पाँचों ही कहानियाँ आपको बोर नहीं करती। बल्कि कुछ कहानी के हिसाब से देती है तो वह है बदल सकने वाली सोच।

सुआटा कहानी अम्मा से भी कहीं ऊपर के स्तर पर जाकर अपनी बात कहती है इतना ही नहीं इसमें आपको लोक संस्कृति कि झलक भी मिलती है। चपेटा कहानी पूरी फिल्म में सबसे अधिक मार्मिक बनकर उभरती है। इस कहानी के क्लाइमैक्स को देखते हुए आप इसके फिल्माए गये सीन के लिए भी तारीफें करते हैं और वाह और आह एक साथ आपके होंठ बुदबुदाने लगते हैं। लेकिन अफ़सोस कि पहली कहानी कि तरह ही इस फिल्म की आखरी कहानी फिर आपको निराश ही करती है और सिनेमाघरों से लौटते हुए कुछ खाली हाथ तो कुछ भरे हाथ वापस बाहर आते हैं।

बेहतर होता इस फिल्म के निर्देशक ‘संजॉय भार्गव’ अपनी इन सभी कहानियों को कायदे से फैलने देते। ऐसा करके उनके पास कहने के लिए एक फिल्म नहीं पाँच फ़िल्में बन सकती थीं। फिल्म के लेखक ‘रणवीर प्रताप’ को कहानियाँ कहने का ढंग आता है वह यह फिल्म बताती है। लेकिन अपनी उन कहानियों को निर्देशक के साथ फैलाने का ढंग भी आता तो दोनों मिलकर लगातार पाँच फ़िल्में पर्दे पर उतार सकते थे। फिल्म में संवाद बेहतर तरीके से लिखे गये हैं। ‘योगेन्द्र त्रिपाठी’ की सिनेमैटोग्राफी कई जगहों पर प्रभाव जमाने में कामयाब होती है। वहीँ एडिटर ‘सुनील यादव’ ने फिल्म को बड़ी ही सफाई से काटा है।

पाँचों कहानियों के किरदारों के लिए चुने गये कलाकार सभी मिलकर अपने-अपने हिस्से आई कहानी और संवादों के साथ न्याय करते हैं। बृजेन्द्र काला सिनेमा के दिग्गज कलाकार के रूप में रंग बिखेरते हैं तो वहीं तन्मय चतुर्वेदी, उमेश बाजपाई, कुरंगी विजयश्री, माही सोनी, सागर वाही, देवयानी चौबे, पूर्वा पराग, सारिका बहरोलिया और रवि चौहान सरीखे कलाकार इस तरह कि छोटे बजट की फिल्म में आपको लोक संस्कृति के उन रंगों को अपने अभिनय से उतारते हैं जिसके लिए यह देश जाना जाता है। गाने और गीत-संगीत ज्यादा नहीं है जितना है काफी है और सुनने में अच्छा भी लगता है।

अपनी तय रिलीज डेट से खिसक कर अब 25 अगस्त को सिनेमाघरों में आ रही इस फिल्म को देश में व्याप्त अलग-अलग लोक-संस्कृति के लिए देखा जाना चाहिए। बेहद करीने से सजे इसके शॉट्स और सुहानी सी लोकेशन्स के साथ पर्दे पर एक ही फिल्म में पाँच अलग-अलग संस्कृति देखने को मिल जाए तो इसमें बुरा तो कुछ नहीं

अपनी रेटिंग – 3 स्टार

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लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com

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