न्याय की आड़ में ‘वकील साहिबा’ अन्याय कर गई
जयपुर का काल्पनिक इलाका विजयनगर, काल्पनिक मर्डर, मिस्ट्री की राजस्थानी कहानी, एक जाना-माना राजस्थानी फिल्म निर्देशक, एक पहचान बना चुका राजस्थानी ओटीटी प्लेटफॉर्म, कुछ अच्छे कलाकार इतना काफ़ी है ना राजस्थानी सिनेमा में अच्छी वेब सीरीज और फिल्म लाने के लिए? आप कहेंगे बिल्कुल। तो लीजिए आज बात राजस्थानी सिनेमा की।
एक लड़का-लड़की का बाल विवाह हुआ। गौना होकर वो अपने ससुराल आई। आगे पढ़ना चाहती है लेकिन नहीं पढ़ पा रही। उसका पति भी अपनी मां को नहीं मना पा रहा इस बात के लिए। लड़का पुलिस में बड़ा अधिकारी बन शहर चला गया। इधर बीवी घर के कामों में खट रही है। लड़का क्लब जाता है। एक हिरोइन को छह महीनों से अपने साथ रखे हुए है हिरोइन का चाल-चलन ठीक नहीं है बावजूद इसके। अब एक दिन उस हिरोइन का मर्डर हो गया। घर में पुलिस वाला सो रहा था उस दौरान।
किसने किया मर्डर? क्या उसी पुलिस अधिकारी ने? या किसी और ने? क्या यह मिस्ट्री सुलझ पाई? इस बीच उस अधिकारी की बीवी पढ़-लिखकर वकील बन गई। उसने ही अपने पति का केस लड़ा। क्या वह अपने पति को बचा पाई? साथ ही उनके तलाक का क्या बना? यह सब बातें राजस्थानी स्टेज एप्प पर कल रिलीज हुई वेब सीरीज ‘वकील साहिबा’ दिखाती,बताती है।
लेकिन क्या न्याय दिलाने वाली वकील साहिबा की टीम सिनेमा से न्याय कर पाई? जवाब है ना। अब इसके आगे भी आप पढ़ना चाहते हैं रिव्यू? क्योंकि बात तो यहीं समाप्त हो गई कि जो सिनेमा न्याय नहीं कर पाता उसे आखिर दर्शक देखे क्यों? और तो और ऐसे सिनेमा पर रिव्यू भी क्यों पढ़े। लेकिन आप लोग को चाहिए रिव्यू तो पढ़िए।
वेब सीरीज में एक सीन है जहां दारू पार्टी चल रही है वहीं बगल में एक टैरो कार्ड रीडर बैठी है। सच में! जी सच में। सवाल ये है कि दारू पार्टी की जगह पर कोई ज्योतिष या टैरो कार्ड रीडर अपना काम कर पाएगा? आप कह सकते हैं हां। लेकिन उस जगह की ऊर्जा को भी देखिए तब शायद आप ना कह दें।
अब एक ऐसे ही सीन में लड़की अंग्रेजी में कह रही है “डोंट टोन मी” अब ये क्या था भाई? चलो आगे देखिए.. अभिनेत्री की मौत के बाद पुलिस वाला ही पुलिस थाने में फोन करके कह रहा है हैलो पुलिस स्टेशन। मेरी बीवी की हत्या हो गई है। सच्ची? अरे भाई कौन सा सस्ता नशा करके कहानी लिखी गई? जब उसकी उससे शादी नहीं हुई, खबर में बीवी नाम का जिक्र नहीं, रहता है छह महीने से लिव इन में। अब बीवी कैसे हुई ये तो आप इसके निर्माता, निर्देशक से ही पूछिए।
अभी और देखिए। खेत में लड़का गौने के कुछ समय बाद स्कूल से भाग कर बीवी से मिलने जा रहा है। तो पीछे जंगल में लोग क्यों नजर आ रहे हैं वो भी इस तरह की जैसे वे शूटिंग देख रहे हैं। फिर एक सीन में लड़के की मां और काका चाय पी रहे हैं कुछ पल के लिए वे सड़क पर नजर आते हैं और अगले ही पल फिर से चाय पी रहे हैं अब ये क्या था भाई?
इतना ही नहीं पुलिस वाला पुलिस हिरासत मिलने पर चेहरे पर मुस्कान बिखेर रहा है। कोर्ट में जज साइलेंस प्लीज बोलता है लेकिन वहां भी जैसे किसी मैच में दर्शकों की हूटिंग जैसा बैकग्राउंड है। अब ये क्या था? आप कहां-कहां बचेंगे! एक सीन में अभिनेत्री जूते पहने नज़र आ रही है। अब आप कहेंगे क्या वो पहन नहीं सकती? बिल्कुल कुछ भी पहने लेकिन उसके ड्रेसिंग सेंस को देखते हुए फिर वे जूते जमते क्यों नहीं?
और तो और डीआईजी साहब कोई व्यापारी के जैसे क्यों नजर आ रहे हैं वैसा ही उनका हाव भाव। इतना ही नहीं अन्य कई पुलिस अधिकारी भी टपोरी से नजर आते हैं। फिर ये डीएसपी अपने से निचले दर्ज के अधिकारी को सर क्यों बोल रहा था?
इस सीरीज में ऐसी ढ़ेरों कमियां है जो हर क्षण पर, हर कदम पर आप निकाल सकते हैं। आप कहेंगे तो अच्छा कुछ भी नहीं? अच्छा तो नहीं लेकिन ठीक ठाक सा है वो है कुछ चुनिंदा कलाकारों का काम।
राजस्थानी सिनेमा को ‘भोभर’ जैसी उम्दा और ‘लाठी’ तथा ‘कसाई’ जैसी अच्छी फ़िल्में दे चुके निर्देशक ‘गजेंद्र श्रोत्रिय’ जी आखिर ऐसी क्या मजबूरी रही कि आपने ऐसा कचरा परोसने के लिए स्टेज से हाथ मिलाया। उनका तो चलो मान लिया ओटीटी है उन्होंने फ़िल्में ही दिखानी है। लेकिन क्या आपको अब तक राजस्थानी सिनेमा में अपनी बनाई हुई इज्जत का जरा भी ख्याल नहीं रहा? इसके लिए भले ये दुनिया माफ कर दे लेकिन जो सिने शैदाई आपके सिनेमा में असीम संभावनाएं तलाश करता था आपने उसकी संभावनाओं और उम्मीदों को पैरों तले रौंदा ही नहीं है बल्कि उसे विश्वास दिलाया है कि आप ऐसी गलती ओह गलती नहीं अपराध भी कर सकते हैं।
इस सीरीज को ऐसा ट्रीटमेंट देकर आपने जो सिनेमाई पाप किया है उसके लिए आपको धारा 151 के तहत पाबंद किया जाता है कि आप या तो पांच अच्छी फ़िल्में राजस्थानी सिनेमा को देकर अपने इस पाप से मुक्ति पा लीजिए या फिर सिनेमा बनाने की फिर से ऐसी कोशिश मत कीजिए।
एडिटर का काम देखकर साफ जाहिर होता है यह पहला प्रयास है और वे अपने इस पहले ही प्रयास में बुरी तरह विफल हुए हैं। कैमरामैन जब ‘नानेरा’ जैसी बेहतरीन फिल्म दे चुका हो राजस्थानी सिनेमा को तो बुरा तो आपको उसके लिए भी महसूस होता है कि उसने ऐसा जोखिम क्यों उठाया?
अभिनय के मामले में ‘रमन अत्रे’ जमे हैं। ‘अपूर्वा चतुर्वेदी’ औसत रहीं हैं। हालांकि कुछ जगहों पर उन्होंने अपना बेहतर दिया। इमोशन सीन और कोर्ट सीन में वे जमती हैं। ‘सम्वाद भट्ट’ कुछ एक जगह असर छोड़ बाकी जगह चिकने अभिनेता बने रहे, हो उनसे भी ज्यादा कुछ नहीं पाया। ‘विशा पाराशर’ , ‘जया पांडे’ , ‘तपन भट्ट’ , ‘अंजली त्रिपाठी’, ‘आकाश’ आदि जैसे लोग बस सीरीज को आगे बढ़ाते रहे।
गीत-संगीत भी ऐसी सीरीज में औसत से ऊपर हो सकता है भला! गाना जरूर ठीक लिखा गया और उसे गाया भी गया अच्छी आवाज में। बीजीएम, कॉस्टयूम, मेकअप, अभिनय, लेखन, एडिटिंग, कैमरा, कलरिंग आदि जैसी तमाम जरूरी तमाम बातों में यह सीरीज आपको कुलमिलाकर कुछ नहीं परोसती।
राजस्थानी सिनेमा जो पहले भी कई दफा मैं अपने लेखों तथा समीक्षाओं में और अन्य कई जगहों पर कह चुका हूं मृत सा पड़ा है लगभग उसके लिए आपसे हाथ जोड़कर निवेदन है ऐसे निर्माताओं से की बस कीजिए हर महीने राजस्थानी सिनेमा लेकर आना। कायदे का कुछ अगली बार लेकर आएं तो ठीक वरना यहां के कलाकारों को सदा यही गुमान रहेगा कि उन्होंने राजस्थानी सिनेमा के लिए इतना सबकुछ किया था। लेकिन उनके किए को इतिहास में अच्छी नजर से नहीं लिखा, पढ़ा जाएगा।
यह सीरीज ‘वकील साहिबा’ राजस्थानी सिनेमा के नाम पर कचरा परोस देने पर मुहर लगाती है पक्की मुहर। लेकिन आप देखिए और दिखाइए ऐसे सिनेमा को क्योंकि ऐसा सिनेमा देखकर ही आप अच्छे और बुरे सिनेमा के बीच फर्क महसूस कर पाएंगे। क्योंकि वकील साहिबा न्याय की आड़ में सिनेमा से ही अन्याय जो कर बैठी है। इंतजार कीजिए इसके दूसरे सीजन का भी अभी तो बहुत कुछ कहानी बाकी है।
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