सिनेमा

चंपारण मटन की लाजवाब ख़ास रेसिपी

 

बिहार का कश्मीर कहा जाने वाला चंपारण, सीता की शरणस्थली भी रहा है और यहीं से महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम आन्दोलन की माशाल भी जलाई। चंपारण ने फिर इतिहास रचा, पहली बार बज्जिका भाषा में बनी डिप्लोमा लघु फ़िल्म ‘चम्पारण मटन’ ने ऑस्कर की शाखा स्टूडेंट अकादमी के सेमीफाइनल में अपना नाम दर्ज़ करवा कर नया कीर्तिमान स्थापित किया है। फ़िल्म एंड टेलीवीजन इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया FTII के छात्रों द्वारा बनाई गई इस टीम में दो लड़कियाँ भी शामिल हैं। 200 देशों के 600 संस्थानों की लगभग ढाई हजार फिल्मों से प्रतिस्पर्धा कर फ़िल्म ने ‘नैरेटिव कैटेगरी’ में 16 फ़िल्मों के बीच अपने लिए सेमीफाइनल में जगह बनाई। और अब “चंपारण मटन” 22वें इंटरनेशनल स्टूडेंट फिल्म और वीडियो फेस्टिवल बीजिंग (चीन) के इंटरनेशनल कंपटीशन स्क्रीनिंग में चयनित हुई है।

मात्र 24 मिनट की फ़िल्म सदियों पुरानी वर्ण व्यवस्था पर मनोरंजक ढंग में कुठाराघात करती है। विद्यार्थी के रूप में भी निर्देशक रंजन उमाकृष्ण कुमार ने सफ़ल फ़िल्म निर्माण के सभी सिद्धांतों का बारीकी से अध्ययन किया और सभी टूल्स का बेहतरीन उपयोग किया। कहानी, पटकथा, संवाद, गीत-संगीत, बैकग्राउंड साउंड, तथा लोकप्रिय कलाकरों का सशक्त अभिनय सभी ने मिलकर कंटेंट की महत्ता को बखूबी रेखांकित किया है। आदिथ वी स्टाविन की सिनामाटोग्राफी और मीनाक्षी श्रीवास्तव का प्रोड्कशन डिज़ाइन कमाल का है बिहार के गाँव के हर दृश्य को खूबसूरती से चित्रित किया है खेत, बाग़, मटन की दुकान रसोई घर सभी यथार्थ लगते हैं जबकि वह बिहार नहीं है    पुणे से कोई 150 डोर बारामती गाँव है।साउंड डिज़ाइनर व संगीत शुभम दिलीप घाटगे का है जिनका संगीत और बैकग्राउंड साउंड दृश्य की संवेदनशीलता को गहन करता है आरम्भ और अंत के दोनों गीत कर्णप्रिय और प्रभावशाली है।वैष्णवी की एडिटिंग में भी कोई चूक नहीं।

कोरोनाकाल में कॉन्ट्रैक्ट जॉब छूटने पर रमेश पत्नी और बच्ची के साथ गाँव वापस लौटता है तो बेरोजगारी निम्न मध्यवर्ग के रमेश को निम्नतर आर्थिक स्तर पर ला धकेलती है पर दम्पति हार नहीं मानती। गर्भवती पत्नी सुनीता को खट्टे की जगह मटन खाने की इच्छा है, तंगहाली में भी पत्नी की इच्छा पूरा करने का संघर्ष स्त्री इच्छा के सम्मान  का ही प्रतीक है। वो गाँव में सभी से पैसा माँगता है, उनसे भी जिन्हें पहले उधार दिया था पर कोरोंना में सभी की आर्थिक स्थिति एक ही सी है। सूदखोर दोगुना ब्याज माँग रहा है साथ में कुछ गिरवी भी चाहता है। इस बीच में रमेश नानी मुखिया के बेटे की शादी से मटन का झोल माँगकर लाती है जो स्वाभिमानी रमेश को पसंद नहीं आता, अंततः मोटरसाइकल गिरवी रखकर मटन बनाया जाता है और एक सुखद अंत के साथ फ़िल्म समाप्त होती है।

आप कहेंगे भला इस कहानी में ऐसा क्या ख़ास है? ख़ास है, इसकी रेसिपी! जी हाँ, वो रेसिपी जो रसोईघर में पहुँचने से पहले आरम्भ होती है जिसमें रमेश और उसकी पत्नी की नोंकझोंक है जो तनाव नहीं देती बल्कि गुदगुदाती है, आनंद देती है, पेड़ पर टंगे गूलर तोड़ते चचा से उधार मांगने का दृश्य जिसमें तीनों के हाव-भाव आपको हँसातें है, मुखिया से माँगकर लाया हुआ मटन-झोल जब नानी बहू के कटोरे में उड़ेलती है तो आपको बुरा लगता है कि इसमें सिर्फ पानी-सी ग्रेवी है, एक भी पीस नहीं इसमें सुनीता को क्या ही स्वाद आएगा! जब सूदखोर छेदी चचा दोगुना ब्याज माँगता है तो क्रोध आता है,  मुखिया के कहने पर कि ‘बाप की उम्र कट गई नाला साफ़ करते करते ये पढ़-लिख गए तो तैश दिखा रहें हैं’ तो रमेश भी चुप नहीं रहता मुखिया को कठोरता से जवाब देता है कि ‘जरूरी है की जो काम बाप ने किया वही बेटा भी करे’ तो आप में भी स्वाभिमान या ओज भर जातें है जब अंत में वह अपनी मोटरसाइकल गिरवी रखता है तो आपके भीतर करुणा भी उपजती है, लेकिन अंत में लक्ष्य प्राप्ति यानी  खुले बाग़ बनाकर मटन बनाते हुए और सबको खाते हुए देखते हैं तो आपको भी आस्वाद आता है। यानी आपको साहित्य-कला के सभी रसों का आस्वाद फ़िल्म में मिलता है।

फ़िल्म के क़िरदार आपको वर्ण व्यवस्था के भेदभावपूर्ण समाज के बीच लाकर खड़ा कर देते हैं। हमें लगा रहा है कि स्वतंत्रता के 75वें अमृतकाल वर्ष में आज सभी के हाथ अमृत कलश लग चुका है, फिल्म आपको झटका देती है कि रमेश की नानी मटन झोल तो माँग कर ले आती है लेकिन किसी के घर पानी नहीं पी सकती क्योंकि वह जानती है इस गाँव में दक्खिन टोले की महिला को कोई पानी नहीं देगा नानी कहती है ‘तुमने ऊंची जाति वाले गांव में घर बना लिया तो किससे घर पानी पीते ’ हैरानी होती हैं कि पानी पिलाना तो पुण्य का काम है, लेकिन इस वीभत्स यथार्थ से भी तो मुँह नहीं फेरा जा सकता कि आये दिन हम ख़बरों में देखते हैं कि दलित होने के कारण विशेषकर सरकारी स्कूलों में बच्चों की पिटाई होती है शायद इसलिए भी रमेश की इच्छा है कि अपनी आने वाली सन्तान को प्राइवेट स्कूल में पढ़ाएगा क्योंकि भेदभावपूर्ण व्यवहार के साथ-साथ सरकारी स्कूल बदहाल अवस्था में मृतप्राय है। शिक्षित रमेश आज बेरोजगार है क्योंकि उसके पास सरकारी नौकरी नहीं थी नायिका के शब्दों में ‘टटपूँजियाँ’ यानी कॉन्ट्रैक्ट जॉब थी, सूदखोर कहता है ‘इसलिए अपने बेटे को समझाया कि कॉन्ट्रैक्ट की नौकरी मत करना’ लेकिन आज विकल्प कहाँ है? सरकारी नौकरियाँ बची ही कहाँ है? प्राइवेट या मल्टी नेशनल कम्पनी की नौकरियों में स्थायित्व नहीं, कोई सुरक्षा नहीं!

सरकारी संस्थानों की बदहाल स्थिति पर सरकार का रवैया हमेशा उदासीन रहा है जबकि नए-नए पूंजीपति अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों में पैसा लगाते हैं, जिनकी सेवायें लेना आम जनता के वश में नहीं जिनके लिए ख़ास मौके पर भी 800 -1000 रुपये किलो मटन बनाना मुश्किल है। तीज-त्यौहार सावन, कार्तिक, छठ-पूजा का जिक्र सांस्कृतिक पक्ष भी रखता है। मटन बेचने वाला कसाई रमेश से कहता है ‘पचौनी’ ले जाओ इनके गाँव के लोग वही तो ले जाते हैं’ लेकिन स्वाभिमानी रमेश को न माँगा हुआ मटन पसंद है न ही सस्ती पचौनी, वो नानी से भी कहता है ‘तुम्हारे लक्षण नहीं जाएंगे, कितनी बार समझाया खाना मांगना बंद करो, तभी हमें कोई बुलाता न्योता नहीं देता है… क्या एक दिन से तुम्हारा लाइफ टाइम का खाना चल जाएगा’। मुखिया, जो जाहिर है सवर्ण रमेश को डराता-धमकाता है, चेतावनी देता है ‘रमेश तुम कुछ लोगों के साथ मिलकर नेतागिरी कर रहे हो, यह ठीक नहीं है जानते हो न हम चुनाव में खड़े हो रहें हैं’ मुखिया जी नेता है इलेक्शन में खड़ा हो रहा है, कैसे बर्दाश्त करेगा छोटी जाति के लोग उनके सामने चुनौती बने रमेश का मित्र कहता है ‘मुखिया जी यह तो अपने गांव में रहता है’ तो मुखिया का साथ एक व्यक्ति कहता है ‘तो का हुआ है तो दखनि टोले का न!’ और सम्पूर्ण राजनितिक परिदृश्य उभर आता है, दलित को नेता बनने का, समाज की अगुवाई करने का अधिकार नहीं है आज जो दलित नेता बन भी गए है, सवर्ण बहुल पार्टियों में उनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है, कारण अपने दलित समाज का विकास नहीं कर पा रहें हैं तभी तो आज भी दलित समाज के साथ दुर्व्यवहार होता है।

बिना किसी पैचवर्क या प्रोपेगैंडा से परे फिल्म व्यंग्य शैली में समाज और राजनीतिक परिदृश्य को ईमानदारी से प्रस्तुत करती है। वेबसीरिज पंचायत फेम फिल्म के नायक चन्दन रॉय हैं जिन्होंने  बज्जिका भाषा के प्रति गौरव को समझते हुए अभिनय के लिए पैसे नहीं लिए। नायिका फ़लक खान भी कुछ संजीदा काम के चाह में फिल्म से जुड़ी।उन्होंने भी अत्यंत स्वाभाविक अभिनय किया एक दृश्य में जब वे गुस्से में अपने पति को लात मारने की बात कहकर, लात मार भी देती है तो लगता है जैसे यह उनका खुद का निर्णय रहा होगा क्योंकि चन्दन रॉय एक बार को स्तब्ध से रुक जाते हैं लेकिन पुनः पत्नी के पाँव दबाने लग जातें है दोनों ही इस दृश्य में बहुत मासूम और प्यारे लगा रहें है। फिल्म के आरंभ में ही बता दिया गया कि दोनों का प्रेम विवाह है एक अन्य दृश्य में सुनीता कहती है ‘आज आप मटन बनाइये, अगर कुछ अच्छा नहीं बना तो इतना महंगा…रमेश कहता है घबराती क्यों है मिलकर बनाएंगे न! तुम्हारे नहीं नैहर स्टाइल में’ और दोनों सिलबट्टे पर एक साथ मसाला पीसतें है जो बहुत ही मत्त्व्पूर्ण दृश्य है रसोईघर जो स्त्री का ही दायित्व है यदि स्त्री पुरुष मिलकर काम करें तो जाने कितनी समस्याएं हल हो जाएँ, सम्भवत: प्रेम ही की ताकत है कि दोनों मिलकर संघर्ष कर रहें हैं तभी सुनीता नानी द्वारा मटन नहीं खाती, और रमेश उसकी मटन खाने की इच्छा को पूरी करने के लिए अपनों मोटरसाइकल गिरवी रख देता है क्योंकि उसे विश्वास है जब दोबारा नौकरी मिलेगी छुड़वा लेगा।

साईकल गिरवी न रखकर मोटर साइकल गिरवी रखना और गैस खत्म होने पर बाग़ में चूल्हे पर मटन पकाना पर्यावरण संरक्षण को भी रेखांकित करता है क्योंकि पेट्रोल, गैस जैसे मानव संसाधन जब समाप्त हो जायेंगे तो हमें प्रकृति की ओर लौटना ही होगा। और आरम्भ में हार न मानने वाले प्यासे कौए की कहानी पर आधारित गीत अंत में समझदारी और संघर्ष से अपनी प्यास यानी इच्छाएँ तृप्त करता है, किसी अन्य के भरोसे माँगकर नहीं क्योंकि माँगने से भीख मिलती है सम्मान नहीं। “सबकी छाया एक ही जैसी क्या गोरा क्या काला रे” गीत के बोल के साथ फिल्म का अंत कंटेंट को और पुख्ता करता है कि सभी एक ही मिटटी के बने है फिर भेदभाव क्यों? टीम के पाँचों छात्रों से सिनेमा के समीक्षक बहुत उम्मीद रखें हुए हैं कि आने वाले समय में सभी अपने अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण यादगार फ़िल्में देने वाले हैं

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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