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मणिपुर, आदिवासी भूमि और कॉरपोरेट मुनाफा

 

मणिपुर में 3 मई, 2023 को शुरु हुई हिंसा 2024 में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक जारी है। मीडिया में इस हिंसा के एक कारण पर ही मुख्य रूप से चर्चा हुई है। मीडिया में बार-बार कहा गया कि मणिपुर हाई कोर्ट ने अपने एक आदेश में मैतेइ समुदाय को अनुसूचित जनजाति की लिस्ट में शामिल करने के लिए कहा था। उसके बाद दंगे भड़के। लेकिन यह हिंसा का तात्कालिक कारण था।

हिंसा के भड़कने या कहें कि भड़काए जाने के अनेक कारण रहे हैं। यहां हम यह देखेंगे कि इसमें कॉर्पोरेट हितों की क्या भूमिका रही है। मणिपुर में कॉरपोरेटों का हित मुख्य रूप से दो चीजों से जुड़ा है। इनमें से पहला है मणिपुर की पहाड़ियों में मौजूद बेशकीमती खनिज, दूसरा है पाम तेल के वृक्ष की खेती। इसके अलावा, अफीम का गैरकानूनी कारोबार का भी मसला है।

खनन और कॉरपोरेशन

कुछ साल पहले भारत सरकार के खनिज मंत्रालय ने मणिपुर का एक व्यवस्थित भूवैज्ञानिक मानचित्र तैयार किया था। उससे मालूम चला था कि कुकी बहुल पहाड़ी क्षेत्रों में प्लेटिनम सहित विभिन्न खनिजों का बड़ा भंडार है।

दुनिया में इन दिनों प्लेटिनम की अपरिमित माँग है। सभी प्रकार के गैजेट्स के हार्ड ड्राइव, सर्किट बोर्ड और सेंसर में इसका इस्तेमाल होता है। ऑटोमोबाइल निर्माण के लिए इसकी बड़ी मात्रा में जरूरत होती है। पेरिस जलवायु समझौता: 2015 के अनुसार 2040 तक भारत, फ्रांस, व यूरोपीय संघ के देशों समेत दुनिया के अन्य अनेक देशों में डीजल-पेट्रोल वाली गाड़ियों का उत्पादन बंद कर देने की कोशिश की जानी है। इसके लिए ऑटोमोबाइल कंपनियां लाखों-लाख की संख्या में नये इलेक्ट्रॉनिक वाहनों का निर्माण कर रहीं हैं, जिसके लिए भारी मात्रा में प्लैटिनम चाहिए। इससे पर्यावरण में कितना सुधार होगा, यह विवाद का विषय है, लेकिन यह निर्विवाद है कि इससे ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री को अकूत फायदा होगा। अर्थव्यवस्था के जानकार इसे वैश्विक तौर पर गिरते बाजार में पैसे के सबसे तगड़े स्रोत के रूप में देख रहे हैं।

समझौते के तहत पूरी दुनिया की कारों और अन्य ऑटोमोबाइल को बदला जाना है, जिसका खर्च मध्यवर्ग को उठाना है, चाहे वह इंफाल में हो या न्यूयार्क में, और मुनाफा येन-केन प्रकारेण चंद कंपनियों के ही पास पहुँचना है। यह अनायास नहीं है कि कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियां ऐसे परिवर्तनों के लिए खुलेआम लॉबिंग कर रही हैं। वे आनन फानन में ऐसी चीजें हमें थोप देने को अतुर हैं, जिनसे लाभ की बजाय नुकसान होने की संभावना ज्यादा है।

प्लेटिनम के अतिरिक्त क्रोमाइट जैसा बेशकीमती खनिज भी मणिपुर की पहाड़ियों में मिला है। भारत के पास इसके विश्व उत्पादन का 17 प्रतिशत हिस्सा है, जिसका अधिकांश भंडार ओडिशा में है लेकिन मणिपुर का क्रोमाइट बहुत उच्च गुणवत्ता वाला है। भारतीय खान ब्यूरो ने अपनी रिपोर्ट में ‘अनुमान’ लगाया गया है कि मणिपुर की पहाड़ियों में कुल 6.66 मीट्रिक टन क्रोमाइट है।

कई मित्रों को खनन व्यवसाय का भीतरी खेल नहीं मालूम होगा। मैंने बतौर पत्रकार झारखंड में कोयला और हरियाणा तथा राजस्थान के पत्थर खनन व्यवसाय को किंचित नजदीक से देखा है।

अपने पहाड़ों में मौजूद खनिजों के खनन के मुद्दे पर पिछले डेढ़ दशक से सरकार और कुकी-नागा आमने सामने हैं। संविधान की छठी अनुसूची के तहत इस भूमि को गैर-आदिवासियों या उद्योगों को नहीं दिया जा सकता। जमीन के संबंध में किसी भी प्रकार के फैसले का हक वहाँ की ग्राम समितियों और स्वायत्त जिला परिषदों को है। लेकिन सरकार इसके खनन का ठेका निजी कंपनियों को देना चाहती है। 2008 में कानून में एक संशोधन करके इनमें से कुछ स्थानों पर खनन का ठेका निजी कंपनियों को दे भी दिया गया था। लेकिन कुकी और नागा ग्राम पंचायतें इसके विरोध में हैं। इस विषय पर इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के 21 जून, 2014 के अंक में फ्रेंकी वराह ने ‘बिना सहमति के खनन’ शीर्षक से एक अच्छा लेख लिखा था। उन्होंने विस्तार से बताया था कि आदिवासियों को मिले वैधानिक अधिकार और संवैधानिक संरक्षण मणिपुर में क्रोमाइट के खनन की दौड़ में गुम किए जा रहे हैं।

गत 10 अगस्त, 2023 को प्रकाश आंबेडकर ने एक बयान जारी किया था। वे डॉ भीमराव आंबेडकर के पोते हैं और महाराष्ट्र में वंचित बहुजन आघाड़ी नामक एक संगठन चलाते हैं। उन्होंने कहा है कि मणिपुर में “सरकार प्लैटिनम खनन का अधिकार उद्योगपति गौतम अडानी को देना चाहती है। स्थानीय स्वायत्त परिषदें इसके पक्ष में नहीं हैं। मणिपुर में सारा खेल इसी के लिए रचा गया है।” इसे पढ़कर अचानक ख्याल आता है कि यही खेल तो खनिज संपदा से परिपूर्ण पश्चिमी अफ्रीका में भी चलता रहा है। साम्राज्यवादी ताकतें वहाँ भी अपने पिट्ठू राजनेताओं को आगे कर ऐसे ही विभिन्न कबीलों को एक-दूसरे से लड़वाती रहती हैं ताकि खनिजों की लूट आसान हो सके।

तेल का खेल

मणिपुर कारपोरेट की दिलचस्पी का दूसरा प्रमुख मामला पाम तेल के उत्पादन के लिए वृक्षारोपण से जुड़ा है। पाम वृक्ष परिवार में खजूर और नारियल जैसे पेड़ आते हैं। इसी परिवार में एक वृक्ष होता है, जिसके बीजों से तेल निकाला जाता है, जिसे ‘ऑयल पाम’ कहा जाता है। होटल, रेस्तरां में पाम तेल का उपयोग खाद्य तेल के रूप में होता है। हालांकि इसमें सैट्यूरेटेड फैट बहुत अधिक होता है। खाने के अलावा नहाने वाल साबुन ,पाम तेल से बनता है तथा अनेक प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों में भी इसका उपयोग होता है। यह बहुत ऊंचे तापमान पर पिघलता है, इस गुण के कारण मुंह में पिघल जाने वाली क्रीम और टॉफी-चॉकलेट बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है। पाम तेल के वृक्ष का मूल स्थान दक्षिण अफ्रीका है। इसके उत्पादन में दुनिया में अभी प्रथम स्थान पर इंडोनेशिया है, जबकि दूसरा स्थान मलेशिया का है। इसके अलावा लैटिन अमेरिकी कई गरीब देशों में भी इसका उत्पादन होता है। भारत के लिए यह एक अपेक्षाकृत नया वृक्ष है।

2020 में प्रधानमंत्री मोदी ने मणिपुर का आह्वान किया कि वह ‘आत्मनिर्भर भारत’ कार्यक्रम में अपनी भागीदारी करने के लिए पाम तेल के वृक्षों का बड़े पैमाने पर रोपण करे। उसी साल उनकी पार्टी के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने मणिपुर ऑयल पाम परियोजना की शुरुआत कर दी। उनकी इस हड़बड़ी पर सवाल भी उठे। सवाल इस पर भी उठे कि स्वयं केंद्र सरकार ने 2021 में इसके लिए ‘राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑयल पाम’ शुरू किया, लेकिन मणिपुर में यह उससे पहले ही क्यों शुरु हो गया?

केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय मिशन के तहत नियम बनाया है कि पाम वृक्षों का रोपण करने के लिए 60 फीसदी राशि केंद्र सरकार देगी और राज्य सरकार को 40 फीसदी राशि का वहन करना होगा। लेकिन, पूर्वोत्तर भारत के राज्यों के मामले में 90 फीसदी राशि केंद्र सरकार देगी। कहने को तो यह राष्ट्रीय मिशन है, लेकिन इसका जोर पूर्वोत्तर भारत और अंडमान निकोबार पर है। ध्यातव्य है कि अंडमान समेत ये सभी पूर्वोत्तर राज्य विभिन्न आदिवासी समूहों के प्राचीन रहवास हैं। हालांकि पूर्वोत्तर भारत में मेघालय ने किसानों के विरोध के बाद स्वयं को इस योजना से अलग कर लिया है। शेष राज्य – मणिपुर, नागलैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और असम इस योजना का हिस्सा हैं।

पाम की खेती बहुत ज्यादा जमीन घेरती है और इसका मिट्टी की उर्वरता पर दीर्घकालिक बुरा प्रभाव पड़ता है। पाम तेल वृक्ष के इतने बड़े पैमाने पर रोपण से मोनोकल्चर को बढ़ावा मिलेगा तथा उन इलाकों का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा जाएगा। इसकी खेती के लिए प्रत्येक पेड़ के बीच 30 फीट का अंतर रखना पड़ता है। अन्य किसी पौधे को उनके साथ नहीं उगाया जा सकता है। इसकी अच्छी खेती सैकड़ो-हजारों हेक्टेयर के बड़े-बड़े मैदानुमा खेतों में ही की जा सकती है। इस प्रकार सरकारी दावों के विपरीत यह वास्तविक किसानों के लिए नहीं है। इसके पेड़ों को उगाने के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होती है, जल स्रोत नष्ट हो जाते हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ जाता है।

केंद्र सरकार का तर्क है कि देश में खाद्य तेल की खपत लगातार बढ़ती जा रही है। देशवासी पहले की तुलना में खाद्य तेल का ज्यादा उपयोग कर रहे हैं। हर वर्ष प्रति व्यक्ति तेल की मांग बढ़ती ही जा रही है। ‘राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन-ऑयल पाम’ की रूपरेखा जारी करते हुए सरकार ने बताया है कि 2012-13 में खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति वार्षिक खपत 15.8 किलोग्राम थी, जो 2021-22 में बढ़कर 19.00 किलोग्राम हो गई, इसलिए देश में खाद्य तेल का उत्पादन बढ़ाए जाने की जरूरत है। जैसा कि ऐसे मौकों पर हमेशा कहा जाता है, सरकार ने कहा है कि इसकी खेती से किसान मालामाल हो जाएंगे।

लेकिन खाद्य तेल मिशन की जो रूपरेखा केंद्र सरकार ने रखी है, वह इस तरह बनाई गई है कि कृषि-क्षेत्र में कॉरपोरेट कंपनियों को शामिल किया जा सके। यह एक तरह से कृषि संबंधी उन कानूनों को पूर्वोत्तर भारत में पिछले दरवाजे से प्रवेश करवाना है, जिन्हें “मेन लैंड” के किसानों के संघर्ष के कारण नवंबर, 2021 में सरकार को वापस लेना पड़ा था।

वस्तुत: पाम तेल के उत्पादन का संबंध जितना जनता की जरूरतों से और पूर्वोत्तर के किसानों से है, उससे कई गुणा ज्यादा देश की कृषि व्यवस्था को कॉरपोरेटों को सौंपे जाने की कवायद से है।

मणिपुर में पाम तेल की खेती के मामले में पतंजलि समूह का नाम सामने आया था, जिसका सत्ताधारी दल से रिश्ता छिपा हुआ नहीं है। बाबा रामदेव की इस कंपनी ने ‘राष्ट्रीय खाद्य तेल मिशन’ की शुरुआत से पहले ही मणिपुर में पाम तेल की खेती शुरू करने घोषणा कर दी थी। बाबा ने अगस्त, 2021 में प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को एक इंटरव्यू में बताया कि उन्होंने मणिपुर में पाम तेल वृक्ष के रोपण के लिए सर्वे भी पूरा करवा लिया है तथा वहाँ पर 11 हजार करोड़ रुपये का निवेश करने जा रहे हैं। पतंजलि के अलावा गोदरेज और थ्रीएफ नामक कंपनी ने भी इन राज्यों के साथ पाम की खेती के लिए करार किया है।

दक्षिण अफ्रीका, लैटिन अमेरिका, इंडोनेशिया, मलेशिया समेत पाम तेल की खेती करने वाले सभी देशों का अनुभव बताता है कि यह कालांतर में बड़ी कंपनियों द्वारा वहाँ के देशज लोगों की जमीन हड़पने का जरिया बन गया। सभी जगहों पर इसके अनुभव देशज लोगों के लिए बहुत बुरे रहे हैं। लैटिन अमेरिकी देशों, ग्वाटेमाला, कोलंबिया और इक्वाडोर के आदिवासियों को इस पाम तेल के कारण जो कष्ट उठाने पड़े हैं वे अकथनीय हैं। पाम की खेती के लिए जो नीतियाँ, जो प्रक्रियाएं अभी भारत के आदिवासी बहुल इलाकों में अपनाई जा रही है, ठीक वही इन देशों में अपनाई गईं थीं और ठीक ऐसे ही सरकारी दावे पेश किए गये थे। लेकिन यह खेती वहाँ के आदिवासियों के लिए संपूर्ण बर्बादी का दूसरा नाम साबित हुई। उनके खूबसूरत इलाकों में बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हुई, नदियाँ दूषित हो गईं और पूरा पारिस्थिति तंत्र गडमड हो गया।

उनका वन तो गया ही, जिन जमीनों पर उनके पुरखे खेती करते रहे थे, वह भी कंपनियों के पास चला गया- कुछ छल से तो कुछ बल से। इसका कारण थीं किसानों को कर्ज में डुबोने वाली सरकार की नीतियां और कंपनियों की चालें। 2021 में जिस समय भारत सरकार अपने देश के आदिवासी क्षेत्रों में पाम वृक्ष लगाने के लिए मिशन शुरु कर रही थी, उसी समय ग्वाटेमाला में अद्वितीय संस्कृति के वाहक माया आदिवासी पाम उद्योग में संलग्न विशालकाय कंपनियों से अपनी जमीन वापस लेने के लिए लड़ाई लड़ रहे थे। कंपनियों ने उनके पुरखों की जिस जमीन को छल-बल से हड़प लिया था, वे उस पर लगे पाम वृक्षों के बीच में झोपड़ियां बना रहे थे। उनका कहना था हमारे पुरखों की जमीन हमें वापस चाहिए। पुलिस आई और गोलियाँ चलीं और कई माया आदिवासी मारे गए। उनका संघर्ष अब भी जारी है, लेकिन उनकी नियति सबको पता है।

पाम खेती के दुष्परिणामों पर अनेकानेक अध्ययन उपलब्ध हैं, जिसे पढ़ना सिहरन उत्पन्न करने वाला है। यह खेती मणिपुर समेत पूर्वोत्तर भारत के भविष्य पर बहुत क्रूर हमला साबित होगी।

इसी से जुड़ा एक सवाल यह भी है कि अगर देश में प्रति व्यक्ति खाद्य तेल की खपत बढ़ रही है तो क्या यह केवल इसलिए चिंताजनक है कि हम ज्यादा तेल उत्पादन क्यों नहीं कर पा रहे? अधिक खाद्य तेल का सेवन मोटापा के लिए सबसे जिम्मेवार तत्वों में से एक है। क्या इसका उचित उपाय तेल के कम इस्तेमाल के लिए जागरुकता अभियान चलाना नहीं है, जैसा कि कई देश कर रहे हैं?

विश्व स्वास्थ संगठन मोटापा को एक वैश्विक महामारी घोषित कर चुका है, जो दुनिया में हर साल 28 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। भारत बुरी तरह से इस महामारी की चपेट में है। पिछले कुछ दशकों से दुनिया में मोटापा की सबसे तेजी से बढ़ती दर भारत में है। लगभग 14 करोड़ भारतीय मोटापा से ग्रस्त हैं। एक समय कुपोषण और कम वजन के कारण जाना जाने वाला भारत आज कई कारणों से विश्व में सबसे अधिक संख्या में मोटे लोगों के देशों की सूची में तीसरे नंबर पर है। सिर्फ अमेरिका और चीन उससे ऊपर हैं।

इंग्लैंड सरकार ने अपने देश के लिए 2006 में ही एक विशेष मोटापा नीति घोषित की थी, जिसके तहत टेजीविजन तथा ऑनलाइन प्रसारणों में रात 9 बजे से पहले उच्च वसा, चीनी या नमक वाले उत्पादों का विज्ञापन नहीं दिखाया जा सकता। उच्च वसा और चीनी वाले खाद्य पदार्थों पर ‘एक की खरीद पर, एक मुफ्त’ जैसे ऑफर नहीं दिये जा सकते। इसके अलावा ऐसे पदार्थों को स्टोरों में मुख्य स्थानों जैसे, बिलिंग काऊंटर के निकट, प्रवेश और निकास द्वार के पास प्रदर्शित नहीं किया जा सकता। इसका मकसद है कि इन सामनों को वहाँ न रखा जाए, जहां क्रेता की सीधी नजर जाए। ऑनलाइन स्टोरों में भी इन खाद्य पदार्थो को आई-बॉल आकर्षित करने वाली जगहों पर प्रदर्शित नहीं किया जा सकता।

पाम तेल खाद्य तेल के सबसे खराब विकल्पों में से एक है। विभिन्न अध्ययनों से पाया गया है कि हृदय रोग के मामले में यह मक्खन से बेहतर विकल्प है लेकिन जैतून के तेल समेत अन्य प्रकार के तेल की तुलना में यह स्वस्थ व्यक्तियों में कोलेस्ट्रॉल अधिक बढ़ाता है। यह सबसे विवादास्पद खाद्य पदार्थों में से एक रहा है, जिस पर कई देशों में प्रतिबंध है।

ऐसे में भारत सरकार की नीति क्या होनी चाहिए, यह स्वत: स्पष्ट है। लेकिन जैसा कि उपर कहा गया, पॉम ऑयल के उत्पादन को बढ़ावा दिए जाने की योजना जनता के नहीं, बल्कि कॉरपोरेटों के हितों को देखते हुए बनाई गई है।

2022 के मणिपुर विधान सभा चुनावों में राहुल गांधी ने भी इसे चुनावी मुद्दा बनाने कोशिश की थी। उन्होंने इंफाल में आयोजित एक चुनावी रैली में कहा था कि “भारतीय जनता पार्टी एक या दो बड़े व्यवसायियों की मदद करने के लिए आपके खूबसूरत राज्य को पाम तेल के बागान बना देना चाहती है जबकि हम मणिपुर को चावल उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। यहां सिंचाई सुविधाओं का विस्तार करना चाहते हैं ताकि किसान साल में 2-3 फसलें उगा सकें और इस अद्भुत राज्य के किसानों को कृषक उपज के न्यूनतम मूल्य की गारंटी देना चाहते हैं।” जाहिर है, जनता ने उस समय उनकी बातों को नहीं माना और भाजपा फिर सत्ता में लौट आई। लेकिन राहुल की गलती यह थी कि वे पाम तेल वृक्ष के नुकसान मैतेईयों को बता रहे थे, जबकि जिन इलाकों को इस खेती के लिए चुना गया हैं, उनमें एक को छोड़कर सभी कुकी बहुल इलाके हैं। मणिपुर के मामले में कुकी और मैतेई के रहवास के इस अंतर को ध्यान में रखना आवश्यक है। कुकी मणिपुर की पहाड़ियों में हैं, जहां पाम वृक्ष लगाए जा रहे हैं। मैतेइ इंफाल घाटी में हैं, जो कि राजधानी के इर्द गिर्द का मैदानी इलाका है। कुकियों के इलाके-पहाड़ों में पाम की खेती होगी और मैतइयों के इलाके-घाटी में इसमें संलग्न कंपनियों के दफ्तर बनेंगे, देश-विदेश के बिचौलियों और ठेकेदारों का उठना-बैठना होगा।

पाम खेती की इस योजना को मैतेई ठेकेदार और व्यापारी पैसा बनाने और कुकी इलाकों में प्रवेश करने के एक बहुत बड़े मौके के रूप में देख रहे हैं।

दरअसल, मैतेइ समुदाय के प्रभावशाली मंत्रियों, नौकरशाहों और भूमिगत सशस्त्र समूहों का पुराना गठजोड़ तो पहले ही मौजूद था, जो ऐसी चीजों में दिलचस्पी रखता था तथा अपना हिस्सा पाता था। लेकिन, हाल के बरसों में मैतेईयों के बीच से बड़े ठेकेदार और व्यापारी भी उभरे हैं, जो बड़े कॉर्पोरेट खिलाड़ियों से लाभान्वित होने की आशा रखते हैं। उन्हें लगता है कि चाहे खनन हो या पाम वृक्षारोपण; अगर उन्होंने कॉरपोरेटों का साथ दिया तो उन्हें उनका हिस्सा जरूर मिलेगा। उन्हें यह भी लगता है कि अफीम के जिस बेशकीमती, गैरकानूनी कारोबार पर अभी कुकियों का कब्जा है, वह भी उनके हाथ आ सकता है।

भारत के प्रमुख मीडिया संस्थान क्या इन बारीकियों से सचमुच अपरिचत हैं या इन पर ध्यान नहीं देने का कोई और कारण है?

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प्रमोद रंजन

लेखक पूर्वोत्तर भारत की एक यूनिवर्सिटी में शिक्षणकार्य व स्वतंत्र लेखन करते हैं। इनकी दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। सम्पर्क +919811884494, janvikalp@gmail.com
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