सिनेमा

अखुनी की प्रतीकात्मकता और पूर्वोत्तर

 

डिसास्टर यानी आपदा मुसीबत विपत्ति या उत्पात। जाति के नाम पर इस समय जो मणिपुर में अथवा देश के किसी भी भाग में हिंसा होती है वह किसी आपदा से कम नहीं लेकिन क्या भोजन बनाने के कारण भी कोई आपदा आ सकती है! बिल्कुल,जब हम पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हों और सिर्फ़ बहुसंख्यक होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हेय मानते हों तो अल्पसंख्यकों के लिए मुसीबत खड़ी हो सकती है। एक समय था जब बिहार और ‘लिट्ठी चोखा’ को कमतर आँका जाता था लेकिन आज बिहार की ‘चम्पारण मटन’ शोर्ट मूवी ऑस्कर की कतार में है। आश्चर्य है कि कुछ भोजन आज भी उपेक्षित से है ‘एक्सोन/ ‘अखुनी’ इसी तरह का व्यंजन है जो नार्थ ईस्ट जीवन शैली का अभिन्न अंग है। नागालैंड की सुमी भाषा में एक्सोन में ‘एक्सो’ का अर्थ है सुगन्ध और ‘न’ का अर्थ है गहरा यानी तीखा यह एक तीखी गन्ध का भोज्य पदार्थ है जिसे रूपक बनाकर निर्देशक निकोलस खार्गोगोर ने “एक्सोन, रेसिपी फॉर डिजास्टर” नामक फिल्म बनायी यह कहानी अल्पसंख्यक होने के कारण उत्तरपूर्वी लोगों के एक समूह के संघर्षों को हमारे सामने रखती है। फ़िल्म दिल्ली शहर के हुमायूँपुर इलाके में रहने वाले पूर्वोत्तर भारतीय दोस्तों के एक समूह की सरल-सी कहानी कहती है जो एक विशेष अवसर पर ‘अखुनी’ बनाने की कोशिश में लगे हैं।

पहले दृश्य में एक लड़का बिन्दांग हिन्दी फ़िल्मी गाने की तैयारी कर रहा है ‘वह प्यारे दिन और प्यारी बातें याद हमें है वह मुलाकातें’ पर हिन्दी शब्दों का सही उच्चारण नहीं कर पा रहा तो गुस्से में कहता है ‘मैं उनको कह दूँगा कि मैं सिर्फ अँग्रेजी में गा सकता हूँ’ अगले दृश्य में फिल्म रहस्यमय ढंग से आगे बढ़ती है, एक बुज़ुर्ग हुक्का पीते हुए रहस्यमयी ढंग से उन्हें आते जाते देखता है,लगता है जाने कौन-सी अवांछनीय चीज़ शायद ड्रग खरीदने गयें है, जिज्ञासा बढ़ती है। यह पदार्थ है अखुनी,या एक्सोन जो विशेष अवसरों पर अवश्य बनता है। अखुनी जापान में नट्टो, अरुणाचल में पियाक सिक्किम नेपाल में किनेमा मेघालय में तुन्गरीमबाई मणिपुर में हवाईजार और मिजोरम में बेकांग-उम के नाम से जाना जाता है। आपको बता दें एक्सोन किण्वित (फर्मेंटेड) सोयाबीन से बना एक पाउडर या चटनी जैसा होता है, किण्वन के परिणाम स्वरूप प्रोटियॉलिसिस होता है जो एक विशिष्ट उमामी स्वाद पैदा करता है जिसकी गन्ध और स्वाद सभी को पसन्द नहीं आ सकता। यह गन्ध ही इसकी पहचान है, जिसे उमामी फ्लेवर कहा जाता है जो प्रोटीन और यीस्ट मिलकर बनता है। सोयाबीन के फर्मेंटेड होने के कारण यह एक हैल्दी इम्यूनिटी बूस्टर फूड है जो एँटी कैंसर है,ब्लड शुगर को कम करता है। अक्सर स्वाद में तीख़े कसैले कड़वे भोज्य पदार्थ जीभ को पसन्द नहीं आते जबकि वे हैल्दी पौष्टिक होते हैं और आयुर्वेदिक की दृष्टि से दवा का भी काम करते हैं। ‘अखुनी’ आज भी अपरिचित है जो वास्तव में नॉर्थ-ईस्ट लोगों के प्रति अन्य भारतीयों के मन में अपरिचय की भावना को भी उजागर कर रहा है,भले ही वे हमारे लिए उत्सुकता, जिज्ञासा का केंद्र क्यों ना हो पर हम उन्हें जानने समझने की कोशिश नहीं करते।

भोजन परम्परा और संस्कृति का अभिन्न अंग होता है। हम जानतें हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान में ‘रोटी’ सर्वोपरि है, ईश्वर से भी`पहले भोजन जरूरी है “भूखे भजन न होय गोपाला”। आप देखेंगे कि प्रत्येक जाति धर्म भाषा सम्प्रदाय में खानपान की आदतें उनका पूरा इतिहास और संस्कृति बता देता है लिट्टी चोखा बिहार तो ढोकला से गुजरात जबकि इटली डोसा दक्षिण भारत की याद दिला देता है। भारत में उदारीकरण आने के बाद से कॉन्टिनेंटल, बर्गर, पिज़्ज़ा, चाइनीस, मोमोज गली-गली में समोसे जलेबी की तरह बिकने लगे हैं, ग्लोबलाइजेशन के समय में हम हर चीज आसानी से खा पी लेते हैं लेकिन हम भोजन से समझौता नहीं करना चाहते। खास अवसर पर जो परम्परागत भोजन बनना होता है वह बनता ही है। अखुनी ऐसा ही पारम्परिक व्यंजन है। लेकिन भोजन किस तरह भेदभाव का कारण बन द्वेषपूर्ण वातावरण निर्मित करता है आज हम हर हिन्दू मुस्लिम त्योहार पर देखते हैं।

‘अखुनी’ के सन्दर्भ में फ़िल्म बताती है कि नार्थईस्ट के लोगों के साथ किस तरह दुर्व्यवहार होता है उन्हें गाली गलौज, शारीरिक छेड़छाड़, अश्लील टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है, विरोध करने पर उन्हें पीटा जाता है। उत्तर भारतीय होने के कारण आप ग्लानि से या अपराध बोध से भर सकते हैं आपको लगेगा कि हमने तो ऐसा कुछ नहीं किया यह गलत दिखाया जा रहा है लेकिन इनके साथ होने वाले अभद्र व्यवहार, भेदभाव शायद हमारे लिए सामान्य हो सकतें है इसलिए हमें नहीं दीखते। जैसे उपासना से उसका दोस्त कहता है ‘टेंपल रोड से मत जाना वहाँ बहुत सारे लड़के तंग करेंगे’। एक अन्य दृश्य में सब्जी लेते हुए चानवी के लिए दो लड़के अश्लील टिप्पणियाँ करतें है विरोध करने पर, सब्जी वाला भी मुकर जाता है और उसका मित्र बीन्दांग भी कह देता है मैंने कुछ नहीं सुना और बात बढ़ने पर वह लड़का चानावी को थप्पड़ मारता है। इसी दृश्य में मुहल्लेवालों के साथ ही कुछ नार्थ ईस्ट के लोग भी तमाशबीन बने खड़े हैं और गुजर जातें हैं उनकी मदद के लिए नहीं रुकते जो सोचने पर विवश करता है कि वे भी डरे हुए है! एक अन्य दृश्य में पंजाबी मकान मालकिन को अपने किरायेदारों को अखुनी बनाने के लिए उन पर चिल्लाती है कि ‘पहले ही कहा था मेरे घर में बदबूदार अखुनी नहीं बनेगा’ एक व्यंजन जो सदियों से एशियाई लोगों की ख़ास गन्ध और ‘करी’ के रूप में बनाया जाता है,के लिए अत्यन्त अपमानजनक है।

भले ही आज दिल्लीवालों ने सिक्किम असमिया से लेकर मणिपुर और नगालैंड के मसालेदार स्मोकड पोर्क तक के स्वाद को विकसित करना सीख लिया है और जहाँ पूर्वोत्तर भारत के निवासी रहते हैं वहाँ पर आपको नागा, मणिपुर, मिजोरम भोजन परोसने वाले रेस्तरां दिखाई पड़ेंगे लेकिन जब अखूनी बनता है तो जहाँ एक ओर उनकी एक सहेली उस गन्ध को एन्जॉय करती है तो पड़ोसियों को वह बदबू प्रतीत होती है इसलिए चानावी दूसरी तरफ ब्रेड जला रही है ताकि दोनों गन्ध मिक्स हो जाए। जिसके लिए शिव अपनी दादी से कहता है कि सेप्टिक टैंक ठीक हो रहा है, जो अत्यन्त विडम्बनापूर्ण है। मुहल्ले वाले उन्हें भला बुरा कहतें हैं, चानवी को पैनिक अटैक आ जाता है मगर लोग कहतें हैं, एक्टिंग कर रही है एक्टिंग…कुछ नहीं ड्रामा है वह हतोत्साहित हो कहती है “क्या ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहाँ हम अखूनई बना सके। बाकी लोग अपने दोस्तों को खासी, मैतई, नेपाली, मिजो,बोडो, सेमा, तंगखुल भाषा में फोन करते हैं कि क्या वे उनके यहाँ अखुनी बना सकतें है सभी मना कर देतें हैं। ” फिर वह कहती है बिना अखूनी के ही हम शादी की तैयारी करतें हैं।

अखुनी

अपनी पसन्द का खाना बनाने के लिए भी कितना संघर्ष करना पड़ता है, इसी दर्द को इस फिल्म में बहुत सहजता से कुछ हल्के-फुल्के अन्दाज में लेकिन एक गम्भीर विषय को उठाने की कोशिश की गयी है। यह पहचान का संकट और स्वीकृति की जद्दोजहद है। नेपाल की उपासना खुद को नॉर्थईस्ट कहती है खुद को नेपाली कहने में उसमें हीन भावना है क्योंकि जिस वीरता सूचक शब्द से हम नेपालियों को सम्बोधित करते हैं वह उनको हेय दृष्टि से देखने जैसा होता है। इसलिए वह इस समूह के साथ समारोह में हर तरह का काम करना चाहती है उनके भीतर घुल-मिल में जाना चाहती है, जबकि नॉर्थईस्ट की मीनम अपने पूर्व प्रेमी से कहती है कि “तुम एक नेपाली लड़की से डेट क्यों कर रहे हो” वही एक नॉर्थईस्ट का लड़का बिन्दांग शिव को ‘यू फ*#*इंडियन’ कहता है, शिव दूसरे दोस्त ज़ोरेम से पूछता है “क्या तुम अपने आप को इंडियन नहीं समझते क्या ?शिव का कॉमिक किरदार बहुत से गम्भीर प्रश्न हमारे सामने रखता है, प्रश्न के उत्तर में निर्देशक एक घटना को हमारे सामने रखता है जिसमें सुनहरी बाल होने की वजह से बिन्दांग पर नस्लीय टिप्पणी की गयी, विरोध करने पर मारा पीटा गया जिसका वीडियो वायरल हुआ, समाचारों में आया। वह इस घटना से उबर नहीं पाया और उसने आत्महत्या तक की कोशिश की। तब समझ में आता है कि अलगाव की यह भावना कहाँ से आयी।

फिल्म पूर्वोत्तर कलाकारों के साथ उनकी संस्कृति को हमारे सामने रखती है, पूर्वोतर कलाकारों में हम बस डैनी को जानतें हैं। यह फिल्म उन सभी को देखनी चाहिए जो इन्हें जिज्ञासा से देखते हैं,एक छोटा बच्चा कहता है‘इतनी छोटी छोटी आँखों से इतनी बड़ी यह दीवार देख पा सकते हैं ’ इसमें दीवार दो राज्यों,धर्म,सम्प्रदायों भाषा भोजन रहन-सहन और संस्कृति के बीच है, जिसकी ओर यह संवाद संकेत करता है। हम कहते तो हैं ‘अनेकता में एकता’ पर वास्तव में यह यूटोपिया ही है। वास्तव में हम किसी भी संस्कृति को एक दिन में नहीं समझ सकते जैसे शाकाहार को मांसाहार से बदबू आती है तो मांसाहार शाकाहारियों का मजाक बनाते हैं, फिल्म ऐसे ही पूर्वाग्रहों को तोड़ने की कोशिश है। किसी के खाना खाने बनाने के ढंग से आप उसके पूरे व्यक्तित्व का निर्णय कैसे कर सकते हैं? फिल्म आपको उपदेश नहीं दे रही बल्कि स्थितियाँ सामने रख रही है,कि इनके साथ किस तरह भेदभाव होता है और हमारी छोटी-छोटी टिप्पणियाँ इनको कितना आहत कर सकती हैं अन्त में दोस्ती,प्यार और पूर्वोत्तर का आत्मविश्वास बना रहता है। चानवी को नौकरी मिल गयी लेकिन अपने और दोस्त के साथ होने वाले अत्याचार और मानसिक आघात से बचने के लिए वापस लौटना चाहती है पर अन्त में रुक जाती है।

एक तथ्य यह भी है कि नॉर्थईस्ट होने के कारण उनके भी कुछ पूर्वाग्रह है जैसे नेपाली लड़की या शिव को वे अपने साथ जोड़ना उन्हें पसन्द नहीं आ रहा दोनों ही उनके साथ घुलना मिलना चाहतें हैं। शिव उनकी मदद करने को तैयार है इस शर्त पर कि एक नार्थ ईस्ट की की गर्लफ्रेंड दिलवा दो,वह भी इसलिए कि अपनी गर्लफ्रेंड को जलाने के लिए। वह नेपाल की उपासना से कहता है कि अगर तू नॉर्थईस्ट से होती मैं तुझे गर्लफ्रेंड बना लेता। उपासना जब वह अखूनी का पैकेट खोलती है तो सूँघते हुए खराब शक्ल बनाती है तो चानवी कहती है कि तू तो कहती है तू नार्थ ईस्ट से है फिर इसकी गन्ध क्यों नहीं बर्दाश्त कर ली तूने। वह झूठ कहती है हमारे घर में यह कभी नहीं बनता उसका दोस्त उसे समझाता है कि मीनम ने उसके लिए कहा था कि वह एक नेपाली को कैसे गर्लफ्रेंड बना सकता है।

नेपाली लड़की की भूमिका में उपासना यानी सयानी गुप्ता एक बहुत ही प्रतिभा सम्पन्न कलाकार है जिसने नॉर्थ ईस्ट उच्चारण को बहुत स्वाभाविक ढंग से पकड़ा है उसका चंचल स्वभाव और कर्मठता आपको दिखाई पड़ती है चानबी के रूप में लिन लैशराम और जो राम के रूप में तन सिंह दल्हा भी शानदार है। रोहण जोशी का शिव नामक पात्र उर्फ ‘हाइपर’ एक प्रतीकात्मक चरित्र है जो इन मतभेदों की रेखा को मिटाने करने का प्रयास कर रहा है। विनय पाठक मस्त हैं तो हुक्का पीते हुए घूरते हुए,आदिल हुसैन देखने में लगता है कि उनका एक संवाद भी हो जाता मजा आता। सामाजिक रूढ़ियों सोच और कलंक को बहुत ही सूक्ष्मता से निर्देशक ने प्रकाश डाला है वर्तमान की फ़िल्मों की तरह समस्या को भुनाने की कोशिश नहीं की गयी हास्यास्पद स्थितियों में भी दूसरे पक्ष का मजाक नहीं उड़ाती। यह अच्छी बात है कि फिल्म को सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए सनसनीखेज नहीं बनाया गया, उत्तर भारतीय अक्खड़ हैं या नॉर्थ ईस्ट वाले बहुत मासूम ऐसी एकपक्षीयता फिल्म नहीं है सबसे बड़ी ताकत इस फिल्म की यही है। फिल्म बहुत प्रासंगिक मुद्दे को सामने रख रही है ऐसा सिर्फ नॉर्थ ईस्ट के लोगों के साथ नहीं होता महाराष्ट्र यूपी-बिहार के लोगों के साथ इसी तरह से भेदभाव होता रहा है दक्षिण भारत में उत्तर भारतीयों के साथ।

मात्र 24 घंटे की अवधि में फैले कथानक के माध्यम से सम्पूर्ण भारत या यूँ समझिए मनुष्य की पूर्वाग्रही सोच को सामने रखती है। आज हमारे देश की राजनीति इन्हीं पूर्वाग्रहों का लाभ उठा रही है, फ़िल्म को देखकर हमें समझ आएगा कि एक दूसरे को जान समझ कर ही हम समावेशी माहौल तैयार कर सकतें हैं न कि एक दूसरे को नीचा दिखाकर। धर्म, जाति, नस्ल, पेशा, जन्म, स्थान, यहाँ तक कि आँखों के आकार, बालों- त्वचा के रंग के आधार पर भी भेदभाव किए जाते हैं। वास्तव में अल्पसंख्यक समाज के सामने जो समस्याएँ आती है फ़िल्म उन मुद्दों को ‘अखुनी’ के प्रतीक के रूप में सामने रखती है, हमारे पूर्वाग्रह किसी के लिए कैसे खतरा बन जाते हैं उनके तनाव का मानसिक तनाव का आघात का कारण पैनिक अटैक का कारण बनते हैं,जो टिप्पणी हमारे लिए सहज है दूसरे के लिए कितनी कष्टदायक हो सकती है। अच्छी बात है कि इस फिल्म के लिए कोई काल्पनिक समाधान पेश नहीं किया गया क्योंकि अगर ऐसा होता तो कहानी कहीं ना कहीं पूर्वाग्रह से ग्रस्त ही हो जाती एकपक्षीय भी हो सकती थी।

फिल्म की सिनेमैटोग्राफी प्रभावशाली है जो दिल्ली की तंग गलियों हलचल, नोंकझोंक खरीद फ़रोख्त और जीवन तरंगों को दर्शाती है, साउंडट्रेक जिसमें पारम्परिक नागा संगीत और कुछ समकालीन बॉलीवुड एक्ट्रेस का मिश्रण है जो वास्तव में समावेशी और एकाकार होने का प्रयास को ही दिखा रहा है। फिल्म का आरम्भ जिस हतोत्साहित संवाद और गीत से होता है, उसी गीत को गाते गुनगुनाते हुए फिल्म ख़त्म होती है जब बिन्दांग अटकता है तो शिव गाना पूरा करने में उसकी मदद करता है और एक हँसी खुशी का माहौल तैयार होता है शिव उनके भोजन को लेकर भी कोई टिपण्णी नहीं करता बल्कि बड़ी सहजता से कहता है कि हाँ मई खा रहा हूँ तू चिन्ता मत कर स्पष्ट है हम एक दूसरे को जानने समझने पहचानने का प्रयास करें तो जिन्दगी कितनी आसान हो सकती है

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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