शख्सियत

अम्बेडकर की पत्रकारिता

 

दलित पत्रकारिता का इतिहास उतना ही पुराना है जितना स्वामी अछूतानंद हरिहर और डॉ. भीमराव का जीवन। इसमें दो राय नहीं है कि बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर और स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ ने बीसवी सदीं के दूसरे दशक में दलित पत्रकारिता की नींव रख थी । उत्तर भारत में स्वामी अछूतानंद और महाराष्ट्र में डॉ. अम्बेडकर ने अपने संपादन में पत्र निकालकर दलित पत्रकारिता का सूत्रपात किया था। देखा जाय तो दलित पत्रकरिता की विकाश यात्रा ने अपने सौ साल पूरे कर लिए है स्वामी अछूतानंद ने हिन्दी भाषा में ‘अछूत’ और डॉ. अम्बेडकर ने 31 जनवरी 1920 को मराठी भाषा में ‘मूकनायक’ पक्षिक पत्र निकाला था। डॉ. आम्बेडकर ने अपने जीवन काल में ‘मूकनायक’ के अलावा ‘समता’, ‘बहिष्कृत भारत’, ‘जनता’ और ‘प्रबुद्ध भारत’ नामक महत्वपूर्ण पत्र निकाले थे।

स्वामी अछूतानंद हरिहर

आज से सौ साल पहले डॉ. अम्बेडकर इस बात को समझ चुके थे कि मुख्यधारा की पत्रकारिता वर्ण और जाति के शिंकजे से जकड़ी हुई है जिसके चलते हिन्दुओं के पत्र-पत्रिकायें दलित समस्या को उठाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाएगें। डॉ. अम्बेडकर यह समझ चुके थे कि समाज की समस्या को उठाने के लिए पत्र और पत्रिकाओं से कोई सश्क्त मध्यम नहीं हो सकता है। इसलिए उन्होंने दलित समस्या को उठाने के लिए अखबार निकालने का निश्चय किया। डॉ. आम्बेडकर को यह भी देख रहे थे कि दलितों के साथ जो जुल्म और अन्याय किया जा रहा है उस को तात्कालीन सम्पादक बताते कम छुपाते ज्यादा है। डॉ. अम्बेडकर ने जब ‘मूकनायक’ निकाला तो उसके प्रवेशांक में एक बड़े ही मार्के की बात लिखी थी कि दलितों पर जो अत्याचार और अन्याय ढाया जा रहा है उस अन्याय का प्रतिरोध और प्रतिकार करने के लिए पत्र से बड़ा कोई अस्त्र नहीं हो सकता है।

जाहिर बात है कि दलित पत्रकारिता का सफर आशान नहीं रहा है। जब डॉ. अम्बेडकर ने मराठी भाषा में ‘मूकनायक’ निकाला तो उन्होंने इसके प्रचार के लिए तात्कालीन ‘केशरी’ पत्र में एक विज्ञापन दिया था। दलित पत्रकारिता के जानकर विद्वान श्यौराज सिंह बचैन अपने पड़ताल में बताया है कि तात्कालीन ‘केशरी’ पत्र के सम्पादक ने पैसे लेकर भी ‘मूकनायक’ का विज्ञापन छापने से इन्कार कर दिया था। दरअसल, पत्रकारिता के परिसर में दलितों का प्रवेश वर्जित रहा है। डॉ. अम्बेडकर इस परिसर के बरक्स पत्रकारिता के ऐसे परिसर का निर्माण करने पर बल दे रहे थे जिसके भीतर दलित के साथ-साथ उन सुधीजनो की आवाजाही हो सके जो दलितों और पीड़ितों के प्रति उदारवादी रवैया रखते हैं।Image result for मूकनायक

डॉ. अम्बेडकर की दृष्टि में जाति-व्यवस्था एक ऐसी बाधा है जिसने दलितों से सामाजिक न्याय और ज्ञान के क्षेत्र में योगदान करने के अवसर छीन लिए है। इसलिय, डॉ. अम्बेडकर की प्रबल धारणा थी कि जाति-व्यवस्था में किसी किस्म का सुधार नहीं किया जा सकता है बल्कि इसे मिटाकर ही खत्म किया जा सकता है। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि जातिवाद के परिसर सभी समाज के समुदाय में मौजूद हैं, इन परिसरों को ध्वस्त करने के लिए वे पत्रकारिता रुपी अस्त्र का चुनाव करते हैं।

हिन्दी नवजागरण काल का यह वही दौर था जब हिन्दी में बड़े ‘माधुरी’, ‘चांद’, ‘सुधा’, ‘मनोरमा’, ‘हंस’ और ‘युगातंर’ जैसी बड़ी और निर्भिक पत्रिकाओं का उदय हो चुका था। इन पत्रिकाओं के सम्पादक स्वधीन और सुधारवादी चेतना से लैस थे। ऐसे संपादकों ने स्वामी अछूतानंद के आदि हिन्दू आन्दोलन और पत्रकारिता के दबाव से दलित समस्या को अपनी पत्रिकाओं में उठाने लगे थे । डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता का असर यह हुआ कि ब्रिटिश हुकूमत के साथ ही उदारवादी सम्पादक और लेखक अछूत समस्या की और ध्यान देने लगे। डॉ. अम्बेडकर दलित समस्या को लेकर हिन्दुओं के साथ ही ब्रिटिश शासन की भी आलोचना करते दिखाई देते है। सन् 1930 में नागपुर में एक दलित सम्मेलन हुआ जिसके सभापति डॉ. अम्बेडकर थे। इस सम्मेलन में डॉ. अम्बेडकर ने ब्रिटिश शासन की आलोचना करते हुए कहा था कि ब्रिटिश शासन में भी दलित समस्या का कोई समाधान नहीं हो रहा है, दलित समाज के लोग पहले भी शासन और प्रशासन मे ंनहीं जा सकते थे और ब्रिटिश शासन में भी इनकी भागीदारी पर कोई विचार नहीं किया जा रहा है। डॉ. आम्बेडकर के इन सवालों से ब्रिटिश शासन में खलबली मच गई। इसके बाद ब्रिटिश शासन ने दलित समस्या की ओर अपना ध्यान आकर्शित करना शुरु कर दिया था।

डॉ. अम्बेडकर का पत्रकार व्यक्तित्व एक निर्भिक और सामाजिक और राजनैतिक चेतना से लैस, हमारे सामने आता है। डॉ. अम्बेडकर ‘स्वराज’ को लेकर अपनी शंका प्रकट करते है। दलित पत्रकारिता के विशेज्ञ श्यौराज सिंह बेचैन के अनुसार ‘मूकनायक’ (28फरवरी 1920) के संपादकीय में स्पष्ट तौर लिखा गया था कि ‘यह स्वराज नहीं हमारे ऊपर राज्य है’। डॉ. अम्बेडकर की शंका ही नहीं उनका यकीन भी था कि स्वराजवादी व्यवस्था में दलितों और स्त्रियों के साथ वैसा ही व्यहार किया जायेगा कि जैसा अंग्रेज हिन्दुओं के साथ करते है। डॉ. अम्बेडकर की नजर में स्वराज का प्रबल अर्थ यही था कि हिन्दुओं का शासन। हिन्दुओं का शासन का अर्थ यह भी था कि वर्ण और जाति-व्यवस्था के अनुसार समाज संचालित होगा।

इसीलिए डॉ. अम्बेडकर अपनी पत्रकारिता में हिन्दू समाज को चैरंगी इमारत बताने में कोई संकोच नहीं करते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने सामाजिक संबन्धों के ढांचे को एक समाज विज्ञानी की तरह देखा और परखा था। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि वर्ण और जाति-व्यवस्था के भीतर कोई सुधार नहीं किया जा सकता है बल्कि इस व्यवस्था को जड़ से ही मिटाया जा सकता है। जबकि स्वराजवादी विद्वानों और सुधारकों ने आत्म परिवर्तन पर बल दिया था। डॉ. अम्बेडकर का आग्रह था कि हिन्दू सुधारकों को वर्ण-व्यवस्था की संरचना में सुधार नहीं बल्कि इसको खत्म करने पर बल देना चाहिए। डॉ. अम्बेडकर ने स्वराज को लेकर आज से सौ साल पहले जिन शंकाओं को रेखाकिंत किया था कमोबेश वैसी परिस्थितियां बड़े पैमाने पर फलीभूत होती दिखाई दे रही है।अम्बेडकर की पत्रकारिता

डॉ. अम्बेडकर को मालूम था कि जिन लोगों के लिए अखबार निकाल रहे हैं; वे सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनैकित दृष्टि से पिछड़े हैं। इसीलिए, डॉ. अम्बेडकर को जब भी कहीं मूक जनों की पीड़ा को बताने का अवसर मिला तो उन्होंने अपने समय के ब्रिटिश और हिन्दू नेताओं के समक्ष अपनी बात बड़ी निर्भिकता के साथ रखी थी। इसका असर यह हुआ कि लेखकों और सुधारवादियों ने स्वराज की मांग के साथ ही अछूत समस्या को भी अपने एजेण्ड़ा में जोड़ लिया था। डॉ. अम्बेडकर पत्रकारिता की कसौटी मूकजन की अभिव्यक्ति और समस्या को उठाना मानते थे। स्वधीनता आंदोलन का यह वही दौर था जब दलितों के साथ छुआछूत का भेदभाव अपने चरम पर था। ऐसे समय में डॉ. अम्बेडकर ने पत्रकारिता के जरिए सभ्य समाज का ध्यान अछूत समस्या की ओर खींचा था। ‘मूकनायक’, ‘बहिष्कृत भारत’ और ‘समता’ की फाइल देखने वालो विद्वानों का मानना है कि दलित समाज की पीड़ा, बेचैनी और अलक्षित समस्याओं को तरजीह डॉ. अम्बेडकर ने अपनी पत्रकरिता में दी थी। डा़ आम्बेडकर के पत्र उन सुधारकों की कटु आलोचना करने से नहीं चुकते थे जो जाति और वर्ण-व्यवस्था का बचाव करते थे।Image result for दलित पत्रकारिता के

दलित पत्रकारिता के भले ही सौ साल पूरे हो चूके हैं लेकिन आज भी मुख्य धारा की पत्रकारिता के परिसर में दलितों का प्रवेश एक तरह से वर्जित ही है। दलित मुद्दों को लेकर मुख्यधारा की पत्रकारिता में विशेष कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। आज से सौ साल पहले मुख्यधारा की मीडिया दलित मुद्दों को तरजीह नहीं देती थी वैसे आज भी इस मीडिया में दलिता मुद्दों के लिए विशेष स्पेस नहीं दिखाई दे रहा है। आज भी मुख्यधारा की मीडिया मं दलितों की खबरों को दरकिनार कर दिया जाता या फिर जन दबाव में थोड़ा बहुत स्पेस दे दिया जाता है लेकिन दलितों से ताल्लुक रखने वाली खबरें ज्यादा देर तक बे्रकिंग नही बनती हैं। मुख्यधारा की हिन्दी पत्रकारिता की यह भी एक समस्या है कि वह गैर दलितों से तो दलित मुद्दों पर लिखवाते और छापते हैं लेकिन दलित प्रश्नों पर दलित बुद्धिजीवियों की राय लेना मुनासिब नहीं समझते है। कहने अर्थ यह है कि गैरदलितों में तो उन्हें दलित एक्सपर्ट ढूंढ़ लेते है लेकिन दलित एक्सपर्ट की बातों को तरजीह नहीं देते हैं। यह बात थोड़ी कटु जरुर है लेकिन सच्चाई के बहुत करीब है कि मुख्यधारा की मीडिया का चरित्र जातिवादी मानसिकता से ग्रसित रहा है, यदि ऐसा नहीं है तो मीडिया सस्थानों में दलित पत्रकारों की अच्छी खासी भागीदारी होती। दरअसल, मुख्याधारा की मीडिया में उच्च पदों पर विराजमान पत्रकार और बुद्धिजीवि गैरदलितों की दलित पत्रकारिता को तो स्वीकार करते हैं लेकिन दलित पत्रकारों की पत्रकारिता को स्वीकार नहीं करते है। दरअसल, जातिवाद का प्रभाव हमारे मानस में ऐसे जकड़ा हुआ है कि दलित की समस्या को समझते हुए भी उसे मुख्यधारा के पत्रकार उठाने से हिचकते है। यदि पत्रकारिता का मूल्य निष्पक्षता और सामाजिक सरोकार से लैस है तो हाशिए पर पड़े लोगों की समस्या को उठाना होगा।Image result for दलित पत्रकारिता

आज से सौ साल पहले डॉ. अम्बेडकर ने यह समझ लिया था कि भारतीय पत्रकारिता का चरित्र जातिवादी आग्रह से भरा हुआ है। इसलिए, दलितों को अपना मीडिया खड़ा करना चाहिए। स्वतंत्र भारत में दलितों ने पत्र और पत्रिकाएं निकालने का प्रयास किया। यह अलग बात है कि दलितों की पत्र-पत्रिकाओं को केन्द्रियता प्राप्त नहीं हो पाई है। मुझे लगता है कि दलित पत्रकारों और साहित्यकारों को भी आत्मविश्लेषण और आत्मलोचन करना चाहिए। कोई गंभीर और जरुरी बहस दलितों मुद्दों पर दलित पत्र-पत्रिकाओं में क्यों नहीं खड़ी हो पाई? यहाँ तक दलित विद्वानों को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है कि जिन पत्र-पत्रिकाओं में उन्हें अतिथि सम्पादक और दलित समाज की तरफ से उन्हे नुमाइदंगी करने का अवसर मिला है, क्या ऐसे पत्रकार और साहित्यकारों ने दलित बहस और मुद्दों को उठाया है? आजादी के बाद दलित की कई पत्र-पत्रिकाएं निकाली और निकल रही हैं; यदि इनके संपादकों ने अपनी जिम्मेदारी निभाई होती तो दलित साहित्य को सामने लाने का श्रेय मुख्यधारा की हिन्दी पत्रिकाओं को नहीं जाता।

पिछले एक दशक में दलितों के साथ ऐसी आमनवीय घटनाएं घटी हैं जिन्होंने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया है। अपवाद छोड़कर, हिन्दी के दलित साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के इन घटनाओं पर कोई लेख या कहानी पढ़ने या देखने को नहीं मिली है। डॉ. अम्बेडकर का पत्रकार अपने समय की सत्ता से टकरता और दलित मुद्दों पर उसकी आलोचना भी करता है। अम्बेडकरवादी पत्रकारिता का स्वभाव यह नहीं है कि दलित मुद्दों पर चुप्पी साध लेना या उनसे किनारा करके निकल लेना बल्कि अम्बेडकरवादी पत्रकारिता का नैतिक दायित्व यह है कि दलित मसलो पर सदैव मुखर रहना। अभिव्यक्ति की मुखरता में ही पत्रकारिता का रुप निखारता है।

आज से  लगभग सौ साल पहले डॉ. अम्बेडकर ने ‘मूकनायक’ इस सोच के साथ नहीं निकाला होगा कि अमूक व्यक्ति की आलोचना करेंगे तो उस से सम्बन्धों का बिगाड हो जायगा या फिर अपनी पत्रकारिता में किसी को उठाना और गिरना है। डॉ. अम्बेडकर का लक्ष्य निश्चित तौर पर सदियों से मूक और दलितों की अलक्षित पीड़ा और समस्या को सामने लाना रहा होगा। पिछले कुछ समय से देखा गया है कि अपवाद छोड़कर दलित लेखक बिगाड़ के डर से ‘गैर आलोचनात्म’ हो जाते है। दलित बुद्धिजीवियों को इस बात पर भी विचार करना होगा कि डॉ. अम्बेडकर के बुनयादी उसूलों से कटकर या फिर सत्ता का पिछलग्गू बनकर दलित पत्रकारिता करना खाना पूर्ति के सिवा और कुछ नहीं है। 31 जनवरी 2020 को डॉ. अम्बेडकर की पत्रकारिता के सौ साल पूरे हो गए है; इस अवसर पर दलित लेखकों, संपादकों और पत्रकारों को किसी से बिगाड़ की चिंता किए बगैर दलित समाज का एजेण्डा खुलकर अपने लेखन और पत्रकारिता के जरिए सामने लाने का कार्य करना होगा

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सुरेश कुमार

लेखक युवा आलोचक हैं। सम्पर्क+918009824098, suresh9kumar86@gmail.com
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