हाल ही में उत्तराखंड में बाँध भरभराकर टूटा है। ऐसी कई खबरें हम हर साल देखते-सुनते हैं लेकिन कभी ईश्वर, प्रकृति और हमारे उत्तरदायित्वों के प्रति हम विचार नहीं करते। इसलिए आज समय है इन सभी पर एक बार पुनः विचार करने का। ईश्वर और प्रकृति हमें यह बताना चाहते हैं कि तुम दिशा भटक गये हो अपना मार्ग स्वयं ढूंढों। एकाकी कोई नहीं अपनी सहायता स्वयं करो। यह प्रकृति है यही तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध होगी।
प्रायः व्यक्ति अपनी अनभिज्ञता, अपने भय, उपेक्षा और अहंकार में अपने सम्बधों की महत्ता नहीं समझ पाता। वो अपनी भूल को कभी स्वीकार नहीं करता उसे दोष सदैव दूसरों में ही दिखता है और वह स्वयं अपने आपको पीड़ित समझ बैठता है। और यही कारण बन जाता है आपसी द्वेष का किन्तु परिवार ही नहीं सांसारिक सम्बधों में भी व्यक्ति को दो बातों का स्मरण रखना चाहिए।
कृतज्ञता – सम्बधों के प्रति
क्षमा – जीवन में कभी मर्यादा का उल्लघंन हो जाये तो
और इन दोनों को व्यक्त करने में कभी भी विलम्ब या संकोच नहीं करना चाहिए। दु:खों का बोध रहना आवश्यक है इसलिए नहीं की वे हमारी पीड़ा के कारण थे। अपितु इसलिए ताकि कोई और दुःख अथवा भूल ना हो। दु:खों का कारण मनुष्य स्वयं है। वक्त और साधक अपने भगवान् और उपास्य को किसी भी स्थिति में आने पर विवश कर देता है।
भक्ति का कोई भी ढंग पूर्व निर्धारित नहीं होता है। मेरे (ईश्वर के लिए) लिए जो आवश्यक है। वो है भक्त का भाव, भक्त की मंशा। ईश्वर कहते हैं यदि भक्त में भाव है तो मैं हूँ। यदि भाव नही तो मैं भी नहीं। यह भक्त की पराकाष्ठा ही तो है कि भक्त और भगवान में कोई अंतर नहीं रह जाता और एक सच्चा भक्त कर्मकांड से परे होता है। वह अपने आराध्य से इतना प्रेम करता है कि उस पर अपना अधिकार समझता है।
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भक्त भगवान को भी आदेश दे सकता है। और भगवान भी उसका आदेश मान लेते है क्योकिं उसकी भक्ति इतनी पवित्र और निर्मल है और भक्ति की यही शक्ति और विशिष्टता आने वाले समय में सृष्टि में परिवर्तन का कारण बनेगी।
भगवान वैरागी है। हमारे लिए कर्मकांड विधिविधान नियम इनका कोई महत्व नही है और वे इन सांसारिक प्रक्रियाओं में भी हस्तक्षेप नही करते और यही अपेक्षा करते है कि हमारी (ईश्वर की) जीवन पद्धति में भी कोई हस्तक्षेप ना करे और यदि कोई ऐसा करता है तो वे शांत रहकर सहते नहीं।
भविष्य और वर्तमान
भविष्य के लिए वर्तमान आवश्यक है! प्रश्न ये है की दोनों परिणामों में प्राथमिकता किसे दी जाए भविष्य को या वर्तमान को। प्रश्न ये है कि प्राथमिकता अपने प्रिय जनों को दी जाए या समस्त लोकों को। चयन करना कठिन है किन्तु चुनाव करना ही होगा।
जिस अवसर को आप अवसर समझते है। वह कभी-कभी परीक्षा बन जाता है। काल घटना में ही सुनिश्चित करना असंभव है। यात्रा भविष्य की ओर है या अतीत की ओर। पर निर्भर तो इस पर करता है कि समय के वृत में व्यक्ति किस और उन्मुख है।
काल के इस प्रवाह में कौन कितना नवीन है और कौन कितना प्राचीन ये किन्ही भी परिस्थितियों में अंतिम रूप से सिद्ध नहीं किया जा सकता। प्रत्येक देवता अनेकों रूपों में विभिन्न युगों में उपस्थित रहे है और यदि हम देवताओं की रूप स्थिति और उनके परिवर्तनों से काल क्रम की गणना करें तो तुम भी उसी प्रकार प्रयत्न कर रहे हो जैसे किसी शिशु की ऊँगली से इस सृष्टि को मापना। यही नहीं युगांतर और युगों की काल अवधि को निश्चित करने का प्रयत्न वैसा ही है।
जैसा समुद्र में प्रत्येक जल बिंदु की गणना करना। पर्वत के पीछे भी अनेक समुद्र समाहित होते है। आकाश के परे भी कई आकाश होते है। किन्तु इन्हें सामान्य दृष्टि से देख पाना असंभव है और इसी प्रकार ईश्वर के अनेको रूप में से किसी एक रूप को स्थिर कर देना। उसे ही अंतिम सत्य मानना। यह ईश्वर के महत्व को सीमित कर देना है और किसी के भी महत्व को सीमित करना उसके एकांगी रूप को ही अंतिम रूप में देखना दृष्टि भ्रम है। बिना अपने विवेक का उपयोग किये अन्धवत होकर अपने आराध्य के आदेश का पालन करना। भक्ति भाव के लिए अशोभनीय है और स्थिति को पूरी तरह समझे बिना अपने भक्त की रक्षा करने के लिए किसी और भक्त आक्रमण करना भक्त प्रेम की भावना के लिए अशोभनीय है।
ऐसे यज्ञ का क्या महत्व जिसके लिए वृक्षों को काट कर प्रकृति को हानि पहुँचाई जाए। ये वृक्ष हमें छावं देते है,फल देते है, वृक्षों के बिना इस पृथ्वी की कल्पना नहीं। इनका सरंक्षण किया जाना चाहिए, हनन नहीं। हम सभी को इनका संरक्षक बनना होगा। हम अपनी आवश्यकता हेतु इनका उपयोग करते है। ये क्या अनुचित हैं ये आवश्यकता किसने उत्पन्न कि? किसने बनाये ये नियम? तुम ये सोचते हो कि तुम शक्ति शाली हो और ये वृक्ष असहाय!
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यदि तुम प्रकृति के साथ अन्याय करोगे तो प्रकृति अपना प्रचंड रूप धारण कर तुम्हे दण्डित करेगी और उस दिन तुम्हें इस संसार में अपनी नग्नता का बोध होगा। प्रत्येक वृक्ष को वर्षों लग जाते है उगने में विकसित होने में अपनी पूर्णता को प्राप्त करने में, उसके पश्चात वो हमारा पोषण करते हैं। निस्वार्थ भाव से हमारी सेवा करते हैं। हम स्वयं ही इनका शोषण कैसे कर सकते है? तुम अपने आप को मनुष्य कहते हो, मनुष्य तो विचारवान होते हैं। संवेदन शील होते है। जो अपने स्वार्थ हेतु वनस्पति और जीव जन्तुओं का शोषण करे वो कैसा मनुष्य। जो तुम कर रहे हो वो प्रकृति पर अत्याचार है और अत्याचारी सदैव अत्याचारी ही होता है।
अपनी प्राकृतिक सम्पदा की रक्षा करना प्रत्येक मनुष्य का उत्तरदायित्व है यदि इन वृक्षों को काटने पर रक्त नहीं निकलता तो तुम सबने ये समझ लिया कि इन्हें पीड़ा नहीं होती। किन्तु क्या कभी तुम सबने ये सोचा है कि, एक वृक्ष काट कर तुम प्रकृति से उसकी संतान छीन लेते हो एक वृक्ष काट कर न जाने कितने ही पशुओं से पक्षियों से उनका आश्रय छीन लेते हो प्रकृति पर किसी प्रकार का अत्याचार सहन नहीं किया जाएगा। कोई भी राज्य, देश, जिला प्रकृति का सम्मान करे। उसका आदर करे सरंक्षण करे हनन नहीं। तभी उसका राज्य, देश एवं जिला समृद्धि और उन्नति की पराकाष्ठा प्राप्त कर सकता है। अन्यथा मात्र राजा और प्रजा ही नहीं आने वाली पीढ़ियों का जीवन भी संकट में पड़ जाएगा।
तेजस पूनियां
लेखक स्वतन्त्र आलोचक एवं फिल्म समीक्षक हैं। सम्पर्क +919166373652 tejaspoonia@gmail.com
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