शाकाहार, संस्कार और प्रकृति के साथ सरोकार की त्रयी
- महेश तिवारी
आज की परिस्थितियों पर बशीर बद्र की चंद पंक्तियाँ यर्थाथ लगती हैं, “फ़िर से ख़ुदा बनाएगा कोई नया जहाँ, दुनिया को यूँही मिटाएगी इक्कीसवीं सदी।।”
जैसे ही 21वीं सदी की दुनिया को लॉकडाउन किया गया है। प्रकृति खिलकर अपने यौवन को प्रदर्शित कर रही है। हालाँकि कोरोना की मार वैश्विक स्तर पर काफ़ी व्यापक है। कोरोना से जंग अभी जारी है। जो आगे भी चलती रहेगी, कोरोना की त्रासदी संग मानव जाति जीने की जीवटता भी अभिव्यक्त कर रही। वह सुखद पहलू है। इन सब के बीच प्रकृति जैसे-जैसे अपने यौवन का श्रृंगार कर रही, ऐसे में वह कहीं न कहीं मानव समाज से अपने प्रतिशोध की ख़ुशी व्यक्त कर रही है।
आज इंसान घरों में कैद है, इंसानी गतिविधियाँ ठप्प हैं। इन सब के बीच आसपास का वातावरण और अन्य जीव-जन्तु कलरव कर यह संदेश दे रहे कि मानव दिमाग़ भले कोरोना को “चीनी-वायरस” या फलां-फलां नाम देकर अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागने की कोशिश कर लें, लेकिन वास्तव में यह प्रकृति द्वारा ली गयी अंगड़ाई है।
अपने घाव भरने की दिशा में उठाया गया एक क़दम है। जिसके माध्यम से वह पारिस्थितिकी तन्त्र में साम्य की स्थिति उत्पन्न कर रहीं। ऐसे में जरूरत है तो हमें और वैश्विक समाज को अपनी जीवनशैली और संस्कारों में बदलाव लाने के अलावा प्रकृति के साथ तारतम्यता स्थापित करने की। वरना आज कोरोना है, कल कुछ और होगा और मानवीय सभ्यता यूँही अपने विनाश की लीला देखती रह जाएगी!
वैसे कोरोना काल के आने से पूर्व हमारी दिनचर्या कैसी हो चली थी। यह बताने का कोई विषय वस्तु नहीं। देश की धड़कन दिल्ली वैश्विक स्तर पर प्रदूषण के मामले में शीर्ष पर थी। देश के छोटे छोटे शहरों में भी साँस लेना दूभर हो रहा था। सनातन संस्कृति जो हाथ जोड़कर प्रणाम करना अपनी विरासत समझती थी। वह भी पश्चिम की देखा देखी कर आलिंगन में ही आधुनिक होने की तस्वीर देख रही थी। ऐसे में जब विश्व गुरु कहलाने वाला देश ही अनुगामी बनने को तैयार खड़ा हो। फ़िर दुनिया को खाक कोई रास्ता दिखाला सकता था। फिर होना क्या था। विकसित देश तो विज्ञान के आविष्कार के आगे इतने नतमस्तक हो गये, कि कुछ भी करने को तैयार खड़े थे।
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चंद उदाहरण से बात समझते हैं। वुहान शहर से कोरोना फैला तो शुरुआती रिपोर्ट आई कि यह चमगादड़ के सुप से फैला। ऐसे में सवाल यहीं आप विज्ञान के बल उन्नति के शिखर चढ़ रहें तो इसका मतलब तो कतई नहीं कि बनी-बनाई खाद्य-श्रृंखला को नष्ट कर दें? आर्टिफिशियल सूर्य और चाँद बना लिए तो क्या प्राकृतिक शक्तियाँ शून्य समझ ली जाएँ? शायद यहीं भूल इक्कीसवीं सदी में मानव ने फ़िर कर दी है। तभी तो वह आज घर में कैद है और प्रकृति के साथ साथ इस धरा के अन्य जीव-जन्तु स्वच्छन्द विचरण कर रहें हैं।
ऐसे में हमें समझना होगा कि जब भी हमारा मोह प्रकृति और बनी-बनाई व्यवस्था से भंग हुआ है तो उसका खामियाजा मानव समाज को सदियों से उठाना पड़ा है। देखा जाएँ तो महामारियों का संकट वैश्विक व्यवस्था के लिए कोई नई बात नहीं। सभ्यता और विकास के विभिन्न कालखंडों में इन महामारियों ने अपना रौद्र रूप दिखाया है। फ़िर वह बात स्पैनिश फ्लू की हो या किसी अन्य महामारी की। ऐसे में वर्तमान दौर में जब एक बार पुनः मानवीय समाज अपने अस्तित्व के लिए घर मे कैद होकर लड़ रहा। तो हमें उन सभी को याद करना चाहिए जिनके बूते अतीत में मानव सभ्यता ने ख़ुद को संकट के संक्रमण काल से बचाया।
इतना ही नहीं मानवीय समाज को अपने रहन-सहन को भी प्रकृति से समन्वित करके चलने की दिशा में भी पहल करना होगा। लेकिन दुर्भाग्य देखिए न जिस वुहान शहर से कोरोना चमगादड़ के सुप से फैला। उसी वुहान शहर में बीते दिनों मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक दोबारा चमगादड़ आदि बिकने और खाने की खबरें सामने आई। ऐसे में कभी कभी समझ नहीं आता मानव समाज विनाश की कगार पर खड़ें होकर भी कैसे तथ्यों को दरकिनार कर देता? मानते हैं विज्ञान की देन से एक दिन यह वैश्विक महामारी सामान्य रोग बनकर रह जाएगी, लेकिन जब तक विज्ञान अपनी शक्ति नहीं दिखाता। तब तक क्यों न हम अध्यात्म और संस्कार के बूते इससे लड़ने की चेष्टा दिखाएँ।
ऐसा इसलिए क्योंकि 1899 में बंगाल में प्लेग नामक महामारी भी फैली थी। तब स्वामी विवेकानंद ने एक सुलेख लिखकर उससे लड़ने के लिए जनमानस को तैयार किया था। उस सुलेख के माध्यम से विवेकानंद जी ने संयम और स्वच्छता की बात की थी और इसी मंत्र के माध्यम से वे लोगों की सेवा को भी आगे आएँ थे। इतना ही नहीं, मार्च 1899 में जब कलकत्ता में प्लेग महामारी फैली थी। तब उन्होंने प्लेग पीड़ितों की सेवा के लिए रामकृष्ण मिशन की एक समिति भी बनाई थी। आज जब कोरोना का आतंक वैश्विक रूप से बढ़ रहा। फ़िर कुछ ऐसे ही उपाय करने की जरूरत है। जिससे संयम के साथ इस महामारी से लड़ा जा सकें साथ ही साथ घर मे बैठे लोगों का भय से और पीड़ितों की कोरोना के डर से शक्ति क्षीण न हो।
चलिए हालिया प्रकाशित एक अन्तर्राष्ट्रीय सर्वे की बात कर लेते हैं। जो अन्तर्राष्ट्रीय जर्नल ” गैस्ट्रोएँटरोलॉजी” में प्रकाशित हुआ। यह विस्तृत अध्ययन 2015 से 2020 के बीच 33 देशों के कुल 76 हज़ार लोगों पर किया गया। इसके मुताबिक हमारे देश मे पेट की बीमारियों की दर तुलनात्मक रूप से बेहद कम है। ऐसे में दुनिया के शीर्ष चिकित्साविदों ने माना है कि आम भारतीयों का पेट सेहतमंद है। यही वजह है कि अन्य देशों के मुकाबले भारत में कोरोना का प्रकोप कम है। वैसे आवाज़ इस बात की भी उठती कि भारत मे कोरोना जाँच रेट कम होने के कारण आँकड़े कम है।
ऐसे में एक बात स्पष्ट हो कि पेट की बीमारी कम होने से कोरोना का प्रकोप कम होता या नहीं। यह तो धीरे-धीरे समय के साथ पता चल जाएगा, लेकिन एक बात तो है शाकाहार, संस्कार और प्रकृति के साथ सरोकार की त्रयी कोरोना जैसी महामारियों के खिलाफ हथियार तो बन सकती। इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
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इन सब के बीच लॉकडाउन भले आर्थिक रूप से सभी देशों को घाव देने का काम कर रहा हो, लेकिन जाने-अनजाने इस लॉकडाउन ने मानव सभ्यता को बचाएँ रखने का मार्ग भी दिखलाया है। अर्थव्यवस्था तो बनती बिगड़ती रह सकती, लेकिन अगर प्रकृति ने मानव से विरह करने की ठान ली। फिर मानव चक्र थम सा जाएगा। ऐसे में कोरोना महामारी और उससे बचने के लिए किया गया लॉकडाउन मानव जाति को कई संदेश दे रहा। जिससे सीख लेने की जरूरत सभी विकसित और विकासशील देशों को है। खासकर भारत को, क्योंकि हम तो पुरातन समय ये प्रकृति के उपासक रहें है फिर क्यों आधुनिक दौर में विकास की सुनहरी अवधारणा में प्रकृति को भूल गये।
लॉकडाउन के दौरान प्रकृति में हुए सुधार को देखते हुए रहनुमाई तन्त्र को भी कोरोना काल के बाद अपनी नीति और नियत में बदलाव करना होगा। आखिर क्या कारण है, कि जो गंगा नदी करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद भी स्वच्छ नहीं हुई वह लॉकडाउन के दौरान चंद दिनों में स्वच्छ होने की स्थिति में आ गयी? सम्बन्धित मंत्रालय और हुक्मरानी व्यवस्था को लॉकडाउन के बाद जब मानव जीवन सामान्य हो जाएगा तो इस विषय पर सोचना पडेंगा।
एक बात ओर क्या हर वर्ष हमारी सरकारें एक महीने का सम्पूर्ण लॉकडाउन कर सकती? जिसमें लोगों पर आर्थिक दवाब न आएँ और गाड़ी-घोड़ा और उद्योग- धंधे सब एक महीने के लिए प्रतिवर्ष बन्द किए जाएँ। इस पर भी विचार-विमर्श करना होगा।
तीसरी बात हुक्मरानी व्यवस्था को अब इस बात को समझना होगा, कि अंगुलियों पर गिने जा सकने के बराबर सुविधा- संपन्न शहर को बढ़ावा देने से काम नहीं चलने वाला। देखिए न आजादी के सात दशकों में हमारी सरकारों ने इंदौर, मुम्बई, पुणे, अहमदाबाद, भोपाल और दिल्ली जैसे शहरों पर ही फोकस किया। सारे उद्योग-धंधे सीमित जगहों पर ही व्यापक पैमाने पर रचाएँ- बसाएँ गये।
जिस कारण लॉकडाउन के कारण आज भारत की आर्थिक स्थिति चरमरा गयी है। देश के प्रधानसेवक कोरोना के कारण देश के 100 साल पीछे जाने की बात कर रहे। ऐसे में क्यों न कोरोना काल के बाद गांधी के ग्राम-स्वराज्य और औद्योगिक शहरों के विकेंद्रीकरण की बात हो।
गांवों को सशक्त किया जाएँ। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जाएँ। इससे दो फायदे होंगें। आगामी भविष्य में कभी संकट काल आएगा तो सम्पूर्ण देश एकाएक बन्द नहीं होगा और दूसरा लोगों को अपने आसपास के क्षेत्रों काम मिल पाएगा। चौथी बात हमें ही नहीं सम्पूर्ण विश्व को विकास के साथ प्रकृति के संरक्षण की बात को हमेशा जेहन में रखनी होगी। इसके अलावा जिस दिन मानव समाज ईमानदारी के साथ पर्यावरण के प्रति वफादारी और शाकाहार के साथ अपने पुरातन संस्कार को आत्मार्पित कर लेगा, कोरोना जैसी विपदा से डरकर घर में छिपने की नौबत नहीं आएगी। यह तय मानिए!!
लेखक टिप्पणीकार है तथा सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर लेखन करते हैं|
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