गहरे अंतर्मन में व्यथित करती है दिल्ली रायट्स
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डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म – दिल्ली रायट्स-ए टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम
निर्देशक – कमलेश के मिश्र
ओटीटी प्लेटफॉर्म – वूट
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार
भीष्म साहनी का तमस उपन्यास तो आपने पढ़ा ही होगा। नहीं पढ़ा तो कभी पढ़िएगा जरूर। साम्प्रदायिक हिंसा का सबसे बड़ा दस्तावेज है यह उपन्यास। साहित्य अकादमी पुरुस्कार से नवाजा गया यह उपन्यास हिन्दू मुस्लिम समुदाय का वर्णन करता है। इसमें निर्दोष और गरीब लोग भी हैं जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान बल्कि सिर्फ इन्सान हैं और हैं तो नागरिक। पाकिस्तान में जन्में भीष्म साहनी की यह महान कृति कमलेश के मिश्र की डॉक्यूमेंट्री ‘दिल्ली रायट्स-ए टेल ऑफ बर्न एंड ब्लेम’ को देखते हुए बरबस याद आई।
दिल्ली में जो दंगे हुए उसकी बरसी पर यह डॉक्यूमेंट्री वूट ओटीटी प्लेटफार्म पर आई है। दिल्ली ने बहुत कुछ देखा है। जब से दिल्ली बसाई गई है तब से लेकर आज तक दिल्ली किसी न किसी वजह से केंद्र बनती रही है। 23 फरवरी 2020 से लेकर 26 फरवरी तक जो तांडव दिल्ली की सड़कों पर देश दुनिया ने देखा वह इस डॉक्यूमेंट्री में देखने को मिलता है और यही कारण है कि यह फ़िल्म ये और वो लोगों के बीच व्यथित करती है।
दिल्ली की सड़कें ही नहीं जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी तक में तोड़ फोड़ हुई। पढ़ाई कर रहे छात्र-छात्राओं को मारा पीटा गया। लगभग सवा आठ सौ साल पहले बख्तियार खिलजी ने प्रतिष्ठित गुरुकुल नालंदा में आग लगवा दी थी और कहा जाता है कि इस विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में आग तीन महीने तक लगी रही थी। तो पिछले सवा आठ सौ साल से लेकर आज तक बदला क्या है?
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता।
आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता
कुछ नहीं सोचने, कुछ नहीं बोलने पर आदमी मर जाता है।
फ़िल्म देखने के बाद अंत में यह बात और राजेश जोशी की प्रसिद्ध कविता मारे जाएंगे याद आती है। जो दिल और मन के कोनों को बहुत गहरे तक व्यथित कर जाती है। इसके अलावा इस फ़िल्म में उन दंगों के दौरान के जो दृश्य दिखाई देते हैं वह दर्शाते हैं कि मानवीय संवेदना आज भी हमारे भीतर नहीं है।
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दिल्ली के जमना पार इलाके से फैले दहशत के इस केंद्र से निकली आग पूरे देश में फैलती हुई दिखाई देती है। हालांकि नागरिकता संशोधन कानून के माने हर समुदाय और वर्ग के लिए भिन्न भिन्न हो सकते हैं। लेकिन इस तरह से कानून बनने की प्रक्रिया के दौरान आम जन को नुकसान पहुंचाने और पब्लिक प्रोपर्टी (सरकारी सम्पति) को नुकसान पहुँचाना कहाँ तक ठीक है? एक लड़का जिसकी 14 दिन पहले शादी हुई है। जिसकी भाभी, बहन आदि ने उसकी आँखों में काजल लगाया उसके सिर सेहरा सजाया उसको मार देना कहाँ तक सही है। हालांकि भीड़ यह नहीं जानती की कौन अभी पैदा हुआ है! किसकी शादी हुई है। लेकिन मेहंदी का रंग तक जिस दुल्हन और दूल्हे के हाथों से न गया हो उस परिवार की स्थितियां क्या होंगी आप खुद समझ सकते हैं।
लोगों को चुन-चुन कर मारना। किसी नेता विशेष के भाषणों से भड़क जाना यह दिखाता है कि हमारे अंदर धैर्य नाम की कमी है। वैसे ये सब भड़कना भी कोई अचानक नहीं था इसके लिए भी पूर्व नियोजित कार्यक्रम था। सत्तारूढ़ पार्टी और विपक्ष दोनों पार्टियाँ अपना अपना हित साधने में हमेशा लगी ही रहती हैं।
फ़िल्म के निर्देशक कमलेश को ‘मधुबनी-द स्टेशन ऑफ कलर्स’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। यह फ़िल्म दंगों से जुड़ी उन बातों को सामने लाने का सार्थक प्रयास करती है जिनके बारे में बहुतेरे लोग नहीं जानते। इस फ़िल्म में बाकी डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की तरह सूत्रधार के माध्यम से कोई नैरेशन नहीं दी गयी है। जो इस फ़िल्म को खास बनाती है। हालांकि डॉक्यूमेंट्री फिल्मों को पसन्द करने वालों के लिए यह कुछ हटकर साबित हो सकती है। शायद उन्हें पसंद आए या न आए किन्तु आपके भीतर जरा भी करुणा, दया का भाव है और आप अपने धर्म विशेष को लेकर कट्टर नहीं हैं तो यह फ़िल्म जरूर आपकी आंखों को गीला करेगी।
फ़िल्म में कैमरा एंगल सधा हुआ है और यही कारण है कि कैमरे की कसावट से फ़िल्म की तासीर बराबर बनी रहती है। देव अग्रवाल का कैमरा और बापी भट्टाचार्य के बैकग्राउंड म्यूज़िक के कारण भी फ़िल्म प्रभावी बन पड़ी है। हालांकि 80 मिनट की यह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म एक विशेष समुदाय पर ज्यादा केंद्रित है इसलिए भी धार्मिक रूप से कट्टर लोगों की आलोचना का शिकार हो सकती है।
बहुत लंबे समय से आपने कोई अच्छी फ़िल्म नहीं देखी है तो आप इसे जरूर देखें।
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