जबसे देश में कोरोना का प्रकोप शुरू हुआ है, बॉलीवुड पर भी लगातार संकट के बादल मंडराए हुए हैं। एक ओर जहाँ नयी फिल्मों के निर्माण से सिनेमाघरों तक पहुँचने की समूची प्रक्रिया ठप्प होने से बॉक्स ऑफिस की रौनक अरसे से गायब है। वहीं दूसरी ओर कोरोना काल में फिल्मोद्योग की अनेक जानी मानी हस्तियों के काल के गाल में समा जाने का दर्द भी उसे सहन करना पड़ रहा है। इरफ़ान खान, ऋषि कपूर, बासु चटर्जी, निम्मी, सुशांत राजपूत और सरोज खान के बाद मशहूर कॉमेडियन जगदीप भी इस दुनिया से चल बसे। 8 जुलाई को उनके अवसान से हास्य कलाकारों की पुरानी पीढ़ी का दीपक बुझ गया।
81 साल की उम्र में इंतकाल फरमा गए सैयद इश्तियाक अहमद जाफरी यानी जगदीप ने ज़िन्दगी का दो तिहाई हिस्सा फिल्मों में काम करते हुए गुजारा। हास्य अभिनेता तो वे बहुत बाद में बने। बचपन में बाल कलाकार के रूप में काम करने के बाद अनेक श्वेत श्याम फिल्मों में वे नायक रहे। शोले के बाद जगदीप ने स्वयं को चरित्र भूमिकाओं में ढालने का प्रयास किया। उन्होंने हीरेन नाग की सुनयना (1979), एस रामनाथन की शिक्षा (1979) लेख टंडन की एक बार कहो (1980) जानू बरुआ की अपारुपा (1982) और शिशिर मिश्र की भीगी पलकें (1982) जैसी गम्भीर फिल्मों में भी काम किया।
रामसे बंधुओं की पुराना मन्दिर (1984) और सामरी (1985) सहित खूनी महल (1987) कब्रस्तान (1988) खूनी मुर्दा (1989) अमावस की रात (1990) खूनी पंजा (1991) रूहानी ताकत (1991) इंसान बना शैतान (1992) हसीना और नगीना (1996) तथा डायन (1997) जैसी दोयम दर्जे की हॉरर फिल्मों में बेधड़क काम करने वाले जगदीप उन बिरले कलाकारों में से एक थे जिन्होंने बिना ब्रेक लिए लगातार साठ साल तक फिल्मों में काम किया। राजस्थानी फिल्म बाई चली सासरिये (1988) में भी वे नज़र आये थे।
मध्यप्रदेश में दतिया के खानदानी परिवार में 29 मार्च 1939 को जन्मे जगदीप के वालिद स्थानीय राज घराने के बैरिस्टर थे। आठ साल की नन्हीं उम्र अचानक पिता का साया सिर से उठ जाने पर अम्मी उन्हें लेकर कराची चली गईं पर देश का बँटवारा होने पर परिवार वहाँ से बम्बई आ गया। बँटवारे की उथल पुथल के दौर में परिवार को तंगहाली का सामना करना पड़ा। पर खुद्दारी अपनी जगह थी सो गुजारे के लिए परिजनों का हाथ बँटाते हुए बचपन में उन्हें सड़कों पर छोटा मोटा सामान बेचने के काम से भी गुरेज न हुआ।
दस ग्यारह साल की उम्र में यकायक फिल्मों में काम मिलने से उनकी ज़िन्दगी का रुख बदला। बीआर चोपड़ा की फिल्म अफसाना (1951) में बच्चों के एक सीन के लिए अच्छी उर्दू बोलने की योग्यता के आधार पर उन्हें चुन लिया गया और मेहनताने के बतौर दो आने मिले। इस तरह फिल्मोद्योग में उनका प्रवेश बाल कलाकार के रूप में हुआ। इसके बाद फ़णि मजुमदार की धोबी डॉक्टर (1952) में उन्हें किशोर कुमार के बचपन की भूमिका निभाने का अवसर मिला।
बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) लैला मजनू (1953) फुटपाथ (1953) पापी (1953) आर-पार (1954) नौकरी (1954) मुन्ना (1954) मिस्टर एंड मिसेस फिफ्टी फाइव (1955) रेलवे प्लेटफार्म (1955) हम पंछी एक डाल के (1957) और सोलहवाँ साल (1958) में बाल कलाकार के रूप में काम करने के बाद जगदीप के दिन फिरे। राज कपूर द्वारा निर्मित आरके फिल्म्स की अब दिल्ली दूर नहीं (1957) में उन्हें पॉकेटमार का रोल मिला।
दक्षिण भारत की मशहूर फिल्म निर्माण कम्पनी एवीएम ने अपनी अधिकांश हिन्दी फिल्मों में उन्हें लिया। आर कृष्णन और एस पंजू की जोड़ी द्वारा निर्देशित सभी फिल्मों में जगदीप नजर आये। कृष्णन पंजू ने ही उन्हें भाभी (1957) में पहली बार एक नौजवान बलदेव उर्फ़ बिल्लू की भूमिका दी जिसमें नंदा उनकी नायिका थीं। इस फिल्म में दोनों पर फिल्माया गया ‘चली चली रे पतंग’ गीत बेहद लोकप्रिय हुआ था।
एवीएम ने भाभी के बाद अगली फिल्म बरखा (1959) में भी जगदीप और नंदा को लीड रोल में लिया। बाप बेटे (1959) बिंदिया (1960) राजा (1963) बैंड मास्टर (1963) पुनर्मिलन (1964) सेमसन (1964) कव्वाली की रात (1964) बागी (1964) जेकरा चरणवा में लागले परणवा (1964) के बाद नूर महल (1965) ने जगदीप को मुख्य भूमिका में फिर नयी ऊँचाइयाँ दी। इस फिल्म में सुमन कल्याणपुर का गाया थीम सॉंग ‘मेरे महबूब न जा’ आज भी बड़े चाव से सुना जाता है।
चेतन आनंद की आखिरी ख़त (1965) सत्येन बोस की आसरा (1966) एसएम सागर की सरहदी लुटेरा (1966) ब्रिज की अफसाना (1966) कृष्णन पंजू की लाड़ला (1966) प्रदीप कुमार की दो दिलों की दास्तान (1966) नौनिहाल (1967) प्यार की बाज़ी (1967) के बाद जैसे ही रंगीन फिल्मों का युग आया ब्रह्मचारी (1968) तीन बहुरानियाँ (1968) जिगरी दोस्त (1969), जीने की राह (1969), अनमोल मोती (1969), बालक (1969) और दो भाई (1969) तक आते आते जगदीप पर कॉमेडियन का ठप्पा लग गया।
गोप, धुमाल, मारुति, वी। गोपाल, मुकरी, आगा, सुन्दर, मोहन चोटी और ब्रह्मचारी के समकालीन जगदीप को सत्तर के दशक में खिलौना (1970) दर्पण (1970) घर घर की कहानी (1970) सास भी कभी बहु थी (1970) शराफत (1970) इश्क पर जोर नहीं (1970) मेरे हम सफ़र (1970) हिम्मत (1970) आँसू और मुस्कान (1970) रखवाला (1971) एक नारी एक ब्रह्मचारी (1971) गंगा तेरा पानी अमृत (1971) परदे के पीछे (1971) धड़कन (1972) और अपना देश (1972) जैसी फिल्मों ने जॉनीवाकर और महमूद सरीखे स्थापित हास्य कलाकारों की श्रेणी में पहुँचा दिया।
भाई हो तो ऐसा (1972) दिल दौलत और दुनिया (1972) गोरा और काला (1972) जानवर और इंसान (1972) बाबुल की गलियाँ (1972) आ गले लग जा (1973) सूरज और चंदा (1973) मेरे गरीब नवाज़ (1973) गुलाम बेगम बादशाह (1973) रोटी (1974) बिदाई (1974) और प्रतिज्ञा (1975) में भी उन्होंने दर्शकों को खूब हँसाया। रुपहले परदे पर ओम प्रकाश, बीरबल, असित सेन, देवेन वर्मा, केश्टो मुखर्जी आदि हास्य कलाकारों की मसखरी के इसी कालखण्ड में असरानी और पेंटल जैसे नवागत हास्य कलाकारों ने अपनी पहचान बनाई।
1975 में आई शोले की अभूतपूर्व कामयाबी ने न केवल हिन्दी फिल्मो का नया इतिहास रचा बल्कि फिल्मों की पटकथा और चरित्र चित्रण का समूचा व्याकरण ही बदल डाला। शोले के सूरमा भोपाली और अंग्रेजों के ज़माने के जेलर ने जगदीप और असरानी को एक ऐसी अद्भुत छवि में जकड़ कर रख दिया जिससे वे कभी बाहर न निकल पाए। जीवन के उत्तरार्ध में जगदीप का प्रारब्ध भी अधिकांश फिल्मों में प्रकारांतर से खुद को दोहराने भर तक सीमित रह गया। इस मामले में वे अनुपम खेर और परेश रावल की तरह भाग्यशाली नहीं रहे।
शोले के बाद जगदीप ने नागिन (1976) दो अनजाने (1976) बुलेट (1976) शंकर शम्भू (1976) कोई जीता कोई हारा (1976) खान दोस्त (1976) शराफत छोड़ दी मैंने (1976) और फौजी (1976) में अपनी इमेज बदलने की भरसक कोशिश की। हर महीने एक से अधिक नयी प्रदर्शित फिल्मों- अलीबाबा मर्जिना (1977) आइना (1977) दुल्हन वही जो पिया मन भाये (1977) विश्वासघात (1977) एजेंट विनोद (1977) टिंकू (1977) जादू टोना (1977) दिलदार (1977) एक ही रास्ता (1977) अगर (1977) जय विजय (1977) मीनू (1977) दिल और पत्थर (1977) आखिरी सजदा (1977) में वे नज़र आते रहे।
जगदीप की अन्य चर्चित फिल्मों में गंगा की सौगंध (1978) दो मुसाफिर(1978) कर्मयोगी (1978) अनजाने में (1978) स्वर्ग नरक (1978) दामाद (1978) भोला भाला (1978) दिल और दीवार (1978) जानी दुश्मन (1979) सुरक्षा (1979) युवराज (1979) दादा (1979) तराना (1979) सरकारी मेहमान (1979) दो हवलदार (1979) को गिना जा सकता है।
अस्सी के दशक में सर्वाधिक सफल फ़िल्में उनके खाते में दर्ज हुईं- कुर्बानी (1980) दो और दो पाँच (1980) फिर वही रात (1980) चोरों की बारात (1980) काली घटा (1980) टैक्सी चोर (1980) बदला और बलिदान (1980) ये रिश्ता ना टूटे (1981) कालिया (1981) मंगल सूत्र (1981) जेल यात्रा (1981) वारदात (1981) खून और पानी (1981) शारदा (1981) फिफ्टी फिफ्टी (1981) सनम तेरी कसम (1982) गज़ब (1982) विधाता (1982) वो सात दिन (1983) बड़े दिल वाला (1983) जीने नहीं दूंगा (1984) तोहफा (1984) आज का एमएलए (1984) बद और बदनाम (1985) जाँबाज़ (1986) नगीना (1986) सल्तनत (1986) लॉकेट (1986) शहंशाह (1987) तूफ़ान (1989) निगाहें (1989) आदि।
बढती उम्र के साथ अगले दो दशक जगदीप के लिए कैरियर में ढलान के रहे। सनम बेवफा (1991) फूल और कांटे (1991) अंदाज़ अपना अपना (1994) चायना गेट (1998) वजूद (1998) लज्जा (2001) रिश्ते (2002) परवाना (2003) जर्नी बॉम्बे टू गोवा (2007) लाइफ पार्टनर (2009) एक से बुरे दो (2009) और गली गली चोर है (2012) में उनकी मौजूदगी दर्शकों को हंसाने के बजाय बेचारगी का अहसास करने वाली थी। अपने जीवन का सर्व श्रेष्ठ वे पहले ही दे चुके थे। जीतेन्द्र के साथ उन्होंने सबसे ज्यादा काम किया।
साठ साल के फिल्मी कैरियर में जगदीप ने जिन चार सौ फिल्मों में विभिन्न किरदार निभाये, उन सब पर एक अकेला सूरमा भोपाली भारी पड़ा। जबकि शोले से पहले और शोले के बाद भी सैकड़ों फिल्मों में उन्होंने अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई। हालाँकि भेड़चाल के मारे फिल्मोद्योग की विडम्बना यही है कि एक बार टाइप्ड होने पर हुनरमंद कलाकार को भी अपनी छवि से बाहर निकलने में एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है और बड़ी मुश्किल से वे इस इमेज से मुक्त हो पाते हैं।
बात बात पर डींग हाँकने वाले सूरमा भोपाली के जिस किरदार ने जगदीप को बेपनाह शोहरत दिलाई उसी पात्र को तेरह साल बाद पुनः भुनाने के लिए जब इस हँसोड़ अभिनेता ने खुद सूरमा भोपाली (1988) नाम से एक फिल्म बनाई तो उसे गिनती के दर्शक मिले। हालाँकि इस फिल्म में धर्मेन्द्र, अमिताभ, डैनी सहित कई नामचीन कलाकारों ने अतिथि भूमिका निभाकर दोस्ती का फ़र्ज़ अदा किया। तीन साल पहले रुपहले परदे पर वे आखिरी बार फिल्म ‘मस्ती नहीं सस्ती’ (2017) में दिखाई दिये थे।
बहरहाल शोले को रिलीज हुए साढ़े चार दशक बीत चुके हैं। खाना पकाने के लिए अब चूल्हे की जरुरत किसे है।।! लकड़ी कोयले की जगह गैस सिलेंडरों ने ले ली है। लकड़ी की टाल गैस एजेंसियों में तब्दील हो चुकी है। ऐसे में लकड़ियाँ तौलने का जमाना भले ही लद गया हो, पर अपनी शेखी बघारते सूरमा भोपाली हर दौर में शिद्दत से याद आएंगे। बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि जिस सूरमा भोपाली के किरदार ने जगदीप को अमर कर दिया है वह कोई काल्पनिक पात्र नहीं था। असल सूरमा भोपाली यानी नाहर सिंह बघेल ने इसे अपनी मान हानि समझते हुआ अदालत में चुनौती दी थी।
गौर तलब है कि छह दशक तक फिल्मोद्योग में अपने दम पर टिके रहे जगदीप को चार सौ फिल्मों में काम करने के बावजूद न तो एक भी फिल्म फेयर अवार्ड मिला और न ही भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री के लायक समझा। हालाँकि सत्तर के दशक में एक नारी एक ब्रह्मचारी (1972) और भाई हो तो ऐसा (1973) में सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार के बतौर फिल्म फेयर अवार्ड के लिए उनका नामांकन अवश्य हुआ था।
गत वर्ष अस्सी साल के इस वयोवृद्ध कलाकार को आइफा ने भारतीय सिनेमा में असाधारण योगदान के लिए विशेष पुरस्कार से नवाजा था। हमारे मध्यप्रदेश के दतिया में जन्में इस कलाकार की याद को चिरस्थायी बनाने के लिए यदि राज्य सरकार चाहे तो अपने फिल्म पुरस्कारों की सूची में एक इजाफा कर सकती है।
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विनोद नागर
लेखक वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म समीक्षक एवं स्तम्भकार हैं। सम्पर्क: +919425437902, vinodnagar56@gmail.com

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