21 वीं सदी की प्रमुख सामाजिक बुराईयों में भीड़ हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा भी शामिल हैं। मानव एक सामाजिक प्राणी है और समूह में रहना हमेशा से मानव की एक प्रमुख विशेषता रही है, जो उसे सुरक्षा का एहसास कराती है। लेकिन आज जिस तरह से समूह एक उन्मादी भीड़ में तब्दील होते जा रहे हैं उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम बल्कि डर की भावना बैठती जा रही है। भीड़ अपने लिये एक अलग किस्म के तन्त्र का निर्माण कर रही है, जिसे आसान भाषा में हम भीड़तन्त्र भी कह सकते हैं।
भीड़ के हाथों लगातार हो रही हत्याएँ देश में चिन्ता का विषय बनता जा रहा है। आए दिन कोई-ना-कोई व्यक्ति हिंसक भीड़ का शिकार हो रहा है। भीड़ हिंसा को मॉब लिंचिंग के नाम से भी जाना जाता हैं। हाल ही में महाराष्ट्र के पालघर में भीड़ के द्वारा दो साधुओं समेत एक व्यक्ति की निर्मम हत्या कर दी गयी। ऐसी अफवाह उड़ी थी कि ये लोग बच्चों को अगवाह करने और अंगों की तस्करी करने वाले गिरोह का हिस्सा थे। हालाँकि ये तीनों लोग सूरत में एक दाह संस्कार में शामिल होने के लिए जा रहे थे।
रात को पालघर के दूर दराज इलाके में मौजूद गढ़चिंचले गाँव के लोगों ने इनकी कार को रोखा। इन पर पत्थरों, लाठियों और कुल्हाडियों से हमला कर इन्हें मार डाला। अब तक इस अपराध में शामिल 101 लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया हैं और नौ नाबालिकों को भी पूछताछ के लिए हिरासत में लिया गया हैं। देशभर में भीड़तन्त्र के द्वारा की गयी, इस घटना की निंदा हो रही हैं। देश में ऐसी कई घटनाएँ हुई हैं, जिसमें अफवाहों के जरिये बेकसूर लोगों की जान उन्मादी भीड़ ने ली हैं। कभी अफवाहें साम्प्रदायिकता का रंग ले लेती हैं तो कभी भीड़ हिंसा का।
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भीड़ हिंसा का सिलसिला आज से नहीं सैकड़ो सालों से चला आ रहा हैं। एक वक्त था जब हिंसा जैसे नस्लभेदी अपराध अमेरिका में देखने को मिलते थे। एक दौर में अमेरिका में नस्लभेद की समस्या अपने चरम पर थी उस दौरान किसी अस्वेत व्यक्ति के अपराध करने पर सार्वजनिक तौर पर फाँसी दे दी जाती थी। वहाँ के स्वेत लोगों के जहन में ये बात घ़र कर गयी थी कि इसके जरिये उत्पीड़ित को न्याय मिलता हैं। एनसीआरबी के आकड़ों के अनुसार साल 2014 से 3 मार्च 2018 के बीच महज नौ राज्यों में भीड़ हिंसा की 40 घटनाएँ हुई थी, जिसमें 45 लोग मारें गए थे।
डेटा जर्नलिज्म वेबसाइट, इण्डिया स्पेंड्स के मुताबिक साल 2010 से गौ-हत्या के शक में अब तक भीड़ द्वारा हमले की सत्तासी घटनाएँ सामने आई हैं। जिनमें चैंतीस लोग की मौत हुई और 158 लोग गम्भीर रूप से घायल हुए। पीड़ितों में ज्यादातर मुस्लिम और दलित समुदाय के लोग शामिल थे। दो महीन पूर्व राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली भी उन्मादी भीड़ और साम्प्रदायिकता की आग में जली थी। 23 फरवरी से अगले चार दिनों तक दिल्ली की हवा में बारूद तैर रही थी, उन्मादी भीड़ ने शहर को आग के हवाले कर दिया था।
बीते 35 साल में यह सबसे भयानक दंगा था। राज्यसभा में गृहमन्त्री के द्वारा प्रस्तुत आकड़ों के अनुसार इस हिंसा की वजह से 53 लोगों की जाने गयी, 300 लोग घायल हुऐ, 122 घर जल दिए गए, 200 कारें जला दी गयी, 300 मोटरसाइकिलों में आग लगा दी गयी, 2 स्कूलों को तहस-नहस कर दिया गया, 4 धार्मिक स्थलों को जला दिया गया, 4 फैक्ट्रियों को बुरी तरह नुकसान पहुँचाया गया, 5 गोदामों को लूट लिया गया। इस हिंसा की आग ने अरबों रूपए की सार्वजनिक संपत्ति को भी नुकसान पहुँचाया था।
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पूर्व आईएएस अफसर और कई सालों से दंगों पर शोध करने वाले हर्ष मंदर का कहना है कि दंगे होते नहीं पर करवाएँ जाते हैं। अगर दंगे कुछ घंटों से ज्यादा चले तो मान लें कि वह प्रशासन की सहमति से चल रहे है। दंगे करवाने के लिए तीन चीजें बहुत जरूरी है नफरत पैदा करना, बिल्कुल वैसे जैसे किसी फैक्टरी में कोई वस्तु बनती हों, दूसरा, दंगों में हथियार, जिसका भी प्रयोजन होता है अगर बड़े दंगे करवाने हैं तो छुरी और सिलेंण्डर बाँटे जाते हैं और सिर्फ एक तनाव का वातावरण खड़ा करना हो तो ईंट-पत्थर. तीसरा है, पुलिस और प्रशासन का सहयोग जिनके बिना कुछ भी मुमकिन नहीं।
ऐसे में जरूरी हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा जैसी घटनाओं का मुकाबला एकता और सद्भाव से ही किया जाए हैं। भीड़ हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा की इन घटनाओं के पीछे नफरत की राजनीतिक को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता हैं। विभिन्न राजनीतिक दल जनता को विकास की जगह धर्म और मजहब के नाम पर बरगलाकर और उन्हें किसी कौम या समूह के खिलाफ भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। इसके अलावा बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच अविश्वास की खाई गहरी होती जा रही हैं।
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बढ़ते सोशल मीडिया के प्रभाव से एक कौम के लोग दूसरी कौम के लोगों को शक की निगाह से देखते हैं और फिर मौका मिलने पर वों एक-दूसरे से बदला लेने के लिए भीड़ को उकसाते हैं। सरकारी महकमे की नाकामी ऐसी घटनाओं में आग में घी डालने का काम करती हैं। अफवाह और जागरूकता की कमी के चलते हिंसा की घटना में भीड़ का अलग ही रूप देखने को मिलता हैं। भीड़ हिंसा की घटनाओं से निपटने के लिए कोई अलग से कानून तो नही हैं, पर आईपीसी की विभिन्न धाराएँ हैं धारा 302, 307, 323, 147, 148, 149 और 34 शामिल हैं।
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इसके अलावा सीआरपीसी की धारा 223 में भी इस तरह के गुनाह के लिये बेहतर कानून के इस्तेमाल की बात तो कही गयी हैं। लेकिन स्पष्ट रूप से कुछ नही कहा गया हैं। भीड़ हिंसा के मामले में ये सभी कानून एक साथ लागू किए जा सकते हैं। इनमें दोषियों को उम्रकैद से लेकर फाँसी तक की सजा का प्रावधान हैं। भीड़ हिंसा और साम्प्रदायिक हिंसा के लिए अलग कानून नहीं होने के वजह से इसे आइपीसी की अलग-अलग धाराओं के तहत रोकने की कोशिश की जाती हैं, जोंकि नाकाफी हैं।
इसके अलावा मौजूदा कानूनों को ईमानदारीपूर्वक पालन न करने से अपराधों पर लगाम नहीं लग पाता हैं। कार्यपलिका के लचर रवैये की वजह ये अपराध फल-फूल रहे हैं। ऐसे में यदि नये कानूने के जरिये कार्यपालिका को और जवाबदेह बनाया जाये तो अपराध पर नकेल लग सकती हैं। राजनीतिक दखल अंदाजी और अपराधियों की पीठ तपतपाने की वजह से भी हिंसा की घटनाओं को और बढ़ावा मिल रहा हैं। ऐस में नये कानून की जरूरत महसूस होना लाजमी हैं। ऐसे नाजुक वक्त में जब भारत कोरोना जैसी महामारी से जूझने में लगा हुआ हैं।
भीड़ हिंसा जैसी घटनाएँ भारत के लिए दोहरी मुसीबत लेकर आ सकती हैं। हालाँकि एक बार स्वास्थ्य आपातकाल के खत्म होने पर भारत को इस दिशा में गम्भीरता से सोचना होगा और एक नये कानून बनाने की दिशा में काम करना होगा।
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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