हिन्दी सिनेमा में नये आईडिया, स्क्रिप्ट और नयी सोचतो पहले भी कम ही थे, अब तो मानो अकाल-सा पड़ गया है इसलिए दक्षिण भारतीय फिल्मों के साथ अब मराठी फिल्मों के भी रीमेक बन रहें है। अमेज़न प्राइम टाइम पर 26 नवम्बर 2021 पर रिलीज फ़िल्म ‘छोरी’ कोई 4 साल पहले आई मराठी फिल्म ‘लापछप्पी’ का रीमेक है जो एक हॉरर पृष्ठभूमि में सामजिक संदेश भी देती है। जैसा कि शीर्षक ‘छोरी’ से ही स्पष्ट है कहानी का केंद्र छोरियाँ हैं जो आज भी परम्परागत रूढ़ सोच में कैद छटपटा रही हैं।
कन्याभ्रूण हत्या आज भी पितृसत्तात्मक समाज का भयानक सच है जैसा कि फिल्म के अन्त में लिखा हुआ आता है ‘जितने समय में आपने यह फिल्म देखी उतने समय में भारत में करीब 113 कन्या भ्रूण हत्या हो गई होगी सूत्र- यूनाइटेड नेशनल पापुलेशन फण्ड के सालाना ‘स्टेट ऑफ़ वर्ल्ड 2020 विवरण में दर्जित’ ये आंकड़ा चौंकाने वाला वाला कम डराने वाला ज्यादा है। संभवत: इसीलिए विशाल फुरिया ने हॉरर पृष्ठभूमि में कथानक रचा गया है।
इसे आप हॉरर फिल्म के रूप में देंखेगे तो भारतीय समाज का एक ऐसा डरावना चेहरा सामने आएगा कि आपके रोंगटें खड़े हो जायेंगे, रूह काँप जाती है आपकी, जब आप पहले ही दृश्य में देखतें हैं कि एक गर्भवती को प्रताड़ित किया जा रहा है और मना करते-करते वह खुद ही विवश होकर अपना पेट चाक़ू से काट देती है ताकि होने वाली लड़की जन्म न ले सके, फ़िल्म की ‘छोटी माई’ जो लोरी गा रही है वह भी आनंदित करने वाली या सुकून देने वाली नहीं बल्कि डर का माहौल पैदा करती है।
कहानी के अगले पड़ाव में ‘छोरी’ फ़िल्म का प्रश्न है कि ‘क्या किसी रूल बुक में लिखा है’ कि लडकियाँ वो ‘खेल’ नहीं खेल सकती जिन पर लड़कों का कॉपीराइट है, और लड़के उस लड़की को अपने साथ खेल में शामिल कर लेते हैं। ये रूल बुक पितृसत्तात्मक समाज के उन ठेकेदारों द्वारा गढ़ी गई है जो स्त्री को सिर्फ वंश बढ़ाने वाली यानी लड़का पैदा करने वाली के रूप में ही स्वीकार करता है। लड़कियों के हक में बात करने वाली टीचर साक्षी गर्भवती है जो ‘नन्हे कदम नई सोच’ नामक संस्था से जुड़ीं हुई है। उसी के माध्यम से कहानी आगे बढ़ती है।
जब साक्षी के पति को बैंक लोन वाले घर पर पीटकर जाते है तो वे अपने ड्राइवर कजरा के गाँव में कुछ दिन छिपने चले जाते हैं लेकिन वहाँ का परिवेश साक्षी को रहस्यमयी और अजीब लगता है ताई भन्नो देवी कभी ममतामयी दिखती है तो कभी अपनी बहु के साथ उसका दुर्व्यवहार साक्षी को विचलित करता है। उसे तीन बच्चे दिखते है, जिनके साथ वो लुकाछिपी खेलती हैं लेकिन ताई उसे डराती है कि वो भ्रम है हालाँकि पढ़ीलिखी साक्षी दकियानूसी बातों का विरोध करती है तो ताई कहती है ‘मैं चाल देखकर जान लेती हूँ कि पेट में छोरा है या छोरी और म्हारी जबान ज्योतिष की जबान है तेरे मरद को जब पता चलेगा की छोरा नहीं छोरी है उसने बहुत बुरा लगेगा’ लेकिन साक्षी को विश्वास नहीं होता।
सस्पेंस के साथ फिल्म आगे बढ़ती है। ताई कहती है थोड़े दिन में यहाँ रहने की आदत बन जायेगी, उसे साक्षी द्वारा पति का नाम लेना नहीं सुहाता, ये जानते हुए भी कि बहुत थकी हुई है गर्भवती और भूखी है कहती है ‘तुम अपने मरद के बाद खाना’ घर के बगल वाला कमरा जहाँ ताई की जेठानी सुनयना रहती थी बाद में पता चलता है वही छोटी माई है जिसने उस घर के वंश को बढ़ने से रोका हुआ है।
कमरे की दीवारें काली है तीनों लड़के और छोटी माई वास्तव में सामाजिक कुप्रथाओं का शिकार डरी हुई आत्माएं हैं, जिसे इस समाज ने बेटी को जन्म नहीं लेने दिया छोटी माई प्रतीक है हर उस माँ की जो आज भी तड़प रही है! खेत-खलियान, घर-परिवार और अँधेरा तीन बच्चे, रहस्य से भरे हैं, जिन्हें साक्षी समझने की कोशिश करती है ‘ये सच नहीं भ्रम है लेकिन इसके भी कुछ तो मायने होंगे’ आठ महीने की गर्भवती साक्षी भूत, पिशाच या डायन, चुलैड़ अदि जिन बुरी ताकतों से सामना कर रही हैं वास्तव में और कुछ नहीं सामाजिक कुप्रथाएँ हैं, जिन्हें पुरुष ने अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए गढ़ा हैं जो लड़की के लिए अभिशाप है, जिन्हें पितृसत्तात्मक मानसिकता में पगी हुई भन्नो जैसी औरते और भी पुख्ता कर रहीं है, जब वे अपने अपराधों को जायज़ ठहराने के लिए श्राप जैसी कहानियाँ गढ़ती हैं पुरुषों का हर गलत काम में साथ देती हैं।
साक्षी के साथ होने वाली घटनाएं और यातनाओं में भूलभुलैया खेत भी प्रतीकात्मक है, खेत जो समाज और परिवार है जिसके चक्रव्यूह में एक स्त्री फंस जाए तो चारों तरफ से रास्ते बंद हो जाते हैं जब तक कि कोई दूसरी स्त्री उसकी मदद न करे वह आज़ाद नहीं हो सकती तब ताई की बहु रानी साक्षी की मदद करती है। रानी, राजबीर, और हेमंत भन्नो, सुनैनी तीन बच्चे वास्तव में आपस में साक्षी से किस प्रकार जुड़े हुए हैं इसके लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
एक सशक्त दृढ़ स्त्री के रूप में नुसरत भरूचा का अभिनय दमदार है रहस्य पर से पर्दा उठाने की उसकी जिज्ञासा और संघर्ष बांधे रखता है, जिसकी भूमिका आरम्भ में बनाई गई थी जब लड़के कहतें है कि जब ये लड़की ये खेल में गिर गई चोट लगी तो रोने लगेगी तो लड़की कहती है नहीं रोऊँगी और रूढ़ियों का जो खेल लडकी से साथ खेला जाता रहा है, साक्षी उसका डटकर मुकाबला करती है, डरकर नहीं भागती। इस खेल में भन्नो ताई यानी मीता वशिष्ट ने अपना स्तर पर बेहतरीन प्रस्तुति दी है।
एक पल में अच्छी माँ की तरह तो दूसरे पल में बुरी सास की तरह, दोनों में उनका अभिनय यादगार है, हेमंत और राजबीर के किरदार में सौरभ गोयल भी पितृसत्तात्मक सोच की छलकपट प्रवृति को अत्यंत स्वाभाविक रूप में प्रतिबिम्बित करते है। राजेश जैस ने भी अपना करदार बखूबी निभाया है। अगर फिल्म का बेहतरीन पक्ष है तो वो अंशुल चौबे के कैमरे का प्रयोग जो रहस्यों को गहराता है, डराता है विचलित करता है यदि आपको हॉरर फिल्मों का शौक है तो ये अच्छा विकल्प है।
कुंए का दृश्य और कथानक आपको कुछ समय पहले आई फ़िल्म ‘काली खुही’ की याद दिलाती है लेकिन फिर भी छोरी उसकी नकल नहीं। फिल्म के अन्त में डराने वाले बच्चे वास्तव में वे ‘नन्हे कदम हैं जो एक नई सोच’ के मार्ग खोल रहें है लड़कों के रूप में उनका कहना ‘हम इस छोटी बच्ची का ध्यान रखेंगे’ लडको से ये अपेक्षा करना है कि यह तुम्हारी जिम्मेवारी है कि लड़कियों पर अत्याचार न होने पाए। कहानी और निर्देशक विशाल फुरिया भूषन कुमार कृष्ण कुमार पटकथा और संवाद विशाल कपूर की टीम हॉरर पृष्ठभूमि अपना सामाजिक सन्देश देने में सफल हुई है।
रक्षा गीता
लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
Related articles

बिच्छु का बोझ ढोना छोड़ो ‘डार्लिंग्स’
रक्षा गीताAug 08, 2022
‘TWO’ Parable Of Two’ सत्यजीत रे
रक्षा गीताMay 02, 2022
मैं ‘बसंती हवा’ होना चाहती हूँ
रक्षा गीताMar 04, 2022डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
विज्ञापन
