पश्चिम बंगाल

बंगाल का बदलता राजनैतिक समीकरण

 

बंगाल चुनाव पर विश्लेषकों की नजर टिकी हुई है। उनके लिए यह आकलन करना मुश्किल है कि इस बार किसकी सरकार बनेगी। एक तरफ ममता बनर्जी की लोकप्रियता, उनकी जुझारू छवि और राज्य का सरकारी महकमा है, तो दूसरी तरफ़ मजबूत पार्टीकेन्द्रीय सत्ता की ताक़त और प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता है। पेड न्यूज के जमाने में मीडिया रिपोर्टिंग पर विश्वास करना मुश्किल है। अक्सर मीडिया में जिस पार्टी को बहुमत मिलता है यथार्थ में उनकी हार हो जाती है। हाल के बिहार चुनावों में हमने देखा कि चुनावी गणित और मीडिया की समझ में भारी अन्तर रहा। जबसे चुनाव प्रबन्धन का खेल शुरू हुआ है, हम कम से कम इस मामले में पोस्टट्रूथ के युग में प्रवेश कर चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद बंगाल चुनाव में कुछ चीजें साफ दिख रही हैं। उसके आस पास कुछ सवालों के माध्यम से सम्भावनाओं का आकलन किया जा सकता है। 

बंगाल में कॉंग्रेस से वामपन्थ और वामपन्थ से तृणमूल की जो रफ़्तार बनी है उसमें अगला पड़ाव भाजपा का भी  हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 2014 के चुनाव ने यह तो प्रमाणित कर दिया है कि बंगाल के लोगों को भाजपा से विचारधरात्मक प्रतिरोध नहीं है। अब  केवल सही ढंग से हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद , बंगाली उप राष्ट्रवाद और  विकास के मुद्दों का  सही मिश्रण तैय्यार करने का सवाल है। इस काम में भाजपा ने महारथ हासिल कर ली है। ख़ास  बात है कि हर राज्य के समाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए पार्टी इस मिश्रण की अलग-अलग प्रतिलितपि तैयार कर लेती है। देखना है कि बंगाल के लिए वह कौन सी  प्रतिलिपि परोसती है? 

Image result for भाजपा के लिए बंगाल में जीतना

इस बात में कोई शक नहीं है कि बंगाल में भी भाजपा की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। इसका अन्दाजा उसके बढ़ते मत प्रतिशत और जीतने वाले सीटों से लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए 2011 के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने 294 सीटों में से 289 सीटों पर अपना उम्मीदवार दिया। मजे की बात है कि इसमें से कोई भी चुनाव नहीं जीत पाया और पार्टी को केवल 4% वोट मिला। 2014 के लोक सभा चुनाव में जब पूरे भारत में मोदी लहर जैसी बात हो रही थी, तो बंगाल में भाजपा को केवल दो सीट मिला, लेकिन मत  बढ़ कर 17% हो गया। 2016  के विधान सभा चुनाव में भाजपा 291 सीटों पर लड़ी और केवल तीन सीटों पर जीत पायी।

लेकिन विधान सभा चुनाव में इसका मत प्रतिशत 4% से बढ़कर 10 % हो गया। 2019 के लोक सभा चुनाव में भाजपा को 18 सीट मिले और वोट प्रतिशत 2014 के 17 % से बढ़ कर 41% हो गया।। अब अहम सवाल है कि इस विधान सभा चुनाव में क्या भाजपा अपने लोकसभा के जन समर्थन को बरकरार रख पाएगी। लेकिन यदि पिछले डेटा के आधार पर आकलन कर देखें तो इस बार के विधान सभा चुनाव में 2016 के 10.6% की तुलना में काफ़ी ज्यादा मत प्रतिशत की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। यदि भाजपा ने तीस प्रतिशत तक भी मत पा लिया तो फिर राज्य का राजनैतिक समीकरण काफी बदल सकता है। 

यह भी पढ़ें – सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और बंगाल का चुनाव

यह समझना जरूरी है कि कम्युनिस्ट पार्टी से ममता दी का संघर्ष तब हुआ जब कम्युनिस्ट  पार्टी अवसान की ओर थी। लेकिन आज जिस भाजपा से वह  संघर्ष कर रही है उसके साथ   उसकी बढ़ती  लोकप्रियता  और केन्द्र की मजबूत सरकार है। भाजपा के पास  हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के साथ विकास के संयोग की एक विचारधारा है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के  स्वयंसेवकों की सेना हैविशाल चुनावी मशीन है, खर्च करने के लिए अकूत पैसा है और प्रचार करने के लिए प्रधानमन्त्री स्वयं हैंइतना तो समझना आसान है कि ऐसे में ममता दीदी के लिए बाजी  कठिन  है।  लेकिन चीजें इतनी साफ भी नहीं है। बंगाल में तो वामपन्थी सरकार के समय ही तृणमूल कॉंग्रेस के समय भाजपा की जड़ें गहरी हो पायी हैं। इसलिए ऐसा  कहा जा रहा है कि पार्टी के पास संगठन तो नहीं है लेकिन शक्ति है। जबकि तृणमूल की जड़ें गहरी हैं और उसका जनाधार बहुत बड़ा है। संगठन और शक्ति के खेल में क्या होता है यह देखना रोचक रहेगा। 

ऐसे में महत्त्वपूर्ण सवाल  है कि भाजपा की रणनीति क्या है? सबसे पहले तो भाजपा इस प्रयास में है कि मुस्लिम बहुल इलाक़ों में हिन्दुत्व को आगे रखा जाए और मुस्लिम तुष्टिकरण को मामला बनाया जा सके। बंगाल में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 28% है और कुछ ज़िलों में तो उनकी उनकी संख्या  60 से 70 % तक है। पिछले चुनाव में 59 मुस्लिम प्रतिनिधि चुने गए जिसमें 32 तृणमूल से, 18 कॉंग्रेस से, 8 वाम दलों से एक फॉरवर्ड ब्लॉक से थे।  ऐसे में तृणमूल के मुस्लिम प्रेम की कहानी लोगों को सही लगने  लगे तो आश्चर्य की बात नहीं हैं। सवाल यह भी है इन इलाकों में हिन्दू  मत एकजुट हो कर यदि भाजपा को मिले तो क्या परिणाम निकलेगा? Image result for ओवैसी बंगाल

इसके अलावा यदि एम आइ एम के ओबेसी साहब ने भी इधर अपना ज़ोर अपनाया तो तृणमूल के लिए मुश्किलें बढ़ेंगी। तुष्टिकरण की  नीति के अलावा स्वतन्त्रता संग्राम और विभाजन के समय के   बंगाल के इतिहास का हवाला देते हुए यदि भाजपा ने हिन्दूमुस्लिम सम्बन्धों को बड़ा मुद्दा बनाया तो चीजें बहुत बदल सकती हैं। बंगाल के सामूहिक चेतना में विभाजन के समय हुए भयानक दंगों की यादें बची हैं और उसे कुरेदना आसान ही है। विभाजन से हुई  क्षति आदि  बंगाल के घायल भावनाओं के इतिहास  के रूप  में लोगों को याद है।आमार सोनार बांग्लाकी बर्बादी का दर्द आज भी  उनके सीने में  है। अगर  इस सच्चाई को  ही भाजपा  अपनी  चुनावी मुहीम की   मुख्य पटकथा बनाने में सफल हो गयी तो तृणमूल के लिए संकट गहरा सकता है। 

दरअसल  भाजपा केवल मुस्लिम मुद्दे पर ही निर्भर नहीं है। पार्टी ने कई बार बूथ स्तरों पर सर्वे करवायी है और इसका उपयोग यह  भाजपा उम्मीदवारों के चयन के लिए करेगी। दूसरी  तरफ तृणमूल ने प्रशान्त किशोर (पी के)को चुनावी प्रबन्धन के लिए रखा है। चुनाव प्रबन्धन के बाजार  में पी के का नाम तो बहुत है लेकिन हमेशा उनकी रणनीति सफल नहीं होती, कभी उलटी भी पड़ जाती है। महत्त्वपूर्ण बात है कि उनके सर्वे के लिए लोग किराए के होते हैं इसलिए उनमें कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती है। इससे निष्पक्ष सर्वे तो हो सकता है लेकिन पार्टी की वैचारिकी का सर्वे के समय विस्तार सम्भव नहीं है। भाजपा के लिए सर्वे उसकी  वैचारिक यात्रा  का एक औजार भी है। 

यह भी पढ़ें – बंगाल की नयी राजनीतिक परिस्थितियों की पड़ताल

जिस बड़े पैमाने पर भाजपा का सर्वे  होता है उस पैमाने पर तृणमूल का होना असम्भव है। जिन आँकड़ों का हवाला दिया जाता उसके विश्लेषण का कोई प्रमाण नहीं दिखता है। वैसे भी अभी तक चुनाव प्रबन्धन के क्षेत्र में  पी के की विशेषज्ञता की अग्निपरीक्षा हुई नहीं है। जिन दो या तीन चुनावों के बारे में कहा जाता है कि पी के के प्रबन्धन ने जीत दिलायी, उन चुनावों में  बिना किसी विशेष  ज्ञान के सामान्य प्रबन्धन में भी जीत ही होती।  पी के जिस दल  के लिए काम करते हैं उसमें आन्तरिक संकट पैदा हो जाता है और यह तृणमूल कॉंग्रेस में दीख रहा है। शीर्ष नेतृत्व से उनकी नजदीकी तो हो जाती है लेकिन दल के अन्य नेताओं से दूरी बन जाती है। दल के कार्यकर्ताओं में भी असन्तोष देखा जा सकता है। ठीक इसके उलट भाजपा अपने कार्यकर्ताओं को तो  बखूबी एकजुट करती ही है विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं को भी फोड़कर अपने में मिला लेती है। 

पार्टी के अन्दर के इस असन्तोष का फ़ायदा लेकर भाजपा ने तृणमूल के बड़े नताओं को अपनी ओर आकर्षित करना शुरू कर दिया है और उनमें पार्टी छोड़ेने की होड़ लग गयी है। रोज ही तृणमूल के महत्त्वपूर्ण नेताओं के पार्टी छोड़ कर भाजपा में शामिल होने की होड़ लगी हुई है। ज्यादतर नेता पार्टी से असन्तोष का कारण पी के और दीदी  के सम्बन्धी अभिषेक बनर्जी के रूखे  व्यवहार को बता रहे हैं। बंगाल राजनैतिक रूप से एक जागरूक समाज है और इस तरह के व्यवहार से  पार्टी को नुक़सान हो सकता है और खासकर  जब विपक्ष में भाजपा जैसी पार्टी हो जो असन्तुष्ट विपक्षी नेताओं का उपयोग करने में माहिर हो। 

यह भी पढ़ें – कब जीतेगा बंगाल

भाजपा ने जिस तरह से कॉंग्रेस पार्टी के नेतृत्व के माडल का सवाल उठाया है ठीक उसी तरह पार्टी में दीदी के वर्चस्व को मुद्दा बना दिया है। यह बात भी सच है कि तृणमूल में आन्तरिक जनतन्त्र का भारी अभाव है। ऐसा नहीं है कि भाजपा में इस समय बहुत आन्तरिक जनतन्त्र है फिर भी शक्ति का केन्द्रीकरण भाजपा में हमेशा ही  इसकी सम्भावना कम है, जबकि तृणमूल के स्वभाव में ही ऐसा है। इसलिए भाजपा में  जमीनी नेताओं की पहचान और उनको जगह देने की सम्भावनाएँ ज्यादा हैं। पार्टी ने इस काम के लिए पूरे बंगाल को पाँच भागों में बाँटा  है और हर हिस्से की ज़िम्मेदारी विनोद सोनकर, सुनील देवधर, दुष्यंत गौतम, विनोद तवदे, और शिव प्रकाश सिंह जैसे  महतपूर्ण लोगों को दिया है। इनका मुख्य काम पार्टी को ज़मीनी नेताओं से जोड़ना और  अन्य पार्टियों को छोड़ कर भाजपा में आने वाले नेताओं के जनाधार को समेटना है। 

बहुत ही चालाकी से भाजपा केवल अपने आधार को ठोस बना रही है, बल्कि बंगाल के प्रमुख महापुरुषों को भी कब्जे में ले रही है। रामकृष्णविवेकानन्द, पहले से ही उन्होंने ने हथिया रखा है और अब सुभाष, खुदीराम बोस आदि की बारी है। हाल में प्रधान मन्त्री ने सुभाष बोस की 150 वीं जयन्ती मनाने की घोषणा की  और इस बैठक में ममता दीदी को भी प्रोटकाल के तहत जाना पड़ा। वैसे भी उनके पास  जाने और जाने के चयन का  कोई  मामला नहीं था क्योंकि यह कार्यक्रम प्रधान मन्त्री का था कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का। इस कार्यक्रम में दीदी के स्वागत में जयश्री राम के नारे लगाए गए और इस बात पर दीदी विफ़र गयीं लेकिन मीडिया ने इसे हिन्दुओं के प्रति दीदी की बेरुख़ी के रूप में उछाल दिया. ऐसा लगता है यह सबकुछ पूर्व नियोजित था।  पार्टी नये आकॉन के साथ ही पार्टी श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे अपने पुराने और महत्त्वपूर्ण नेताओं को भी एक आइकॉन के रूप में  स्थापित  करने का प्रयास कर रही है।  इन महपुरुषों को पार्टी के आइकॉन में बदलने का महत्त्व पार्टी को बखूबी मालूम है। इसके माध्यम से जनता से संवाद आसान हो जाता है क्योंकि कि आइकॉन ही बाद में संवादवाहक का काम करने लगते हैं। 

Image result for भाजपा के लिए बंगाल में जीतना

लेकिन बंगाल में अभी भी भाजपा के  पास कोई ऐसा संगठन नहीं है जिसके सहारे तृणमूल की कमजोरियों का फ़ायदा अपने पक्ष में ले सके। भाजपा की पकड़ मीडिया और सोशल मीडिया पर बेहद मजबूत है। पार्टी की कमज़ोरियों की भरपाई सोशल मीडिया आर्मी के द्वारा की रही  है। मीडिया और सोशल मीडिया के द्वारा भाजपा एक ख़ास तरह की अवधारणा को आम लोगों की चेतना   में बिठाने में सफल रहती है। बंगाल में बहुत पहले से इसका प्रयास प्रारम्भ हो गया है। भाजपा का प्रभाव बंगाल में बढ़ रहा है, उसका प्रचारप्रसार इतना किया जाने लगा है ताकि आम लोगों के दिमाग़ में यह बात बैठ जाए कि बंगाल में भाजपा की जीत हो रही है। क्या इस अवधारणा का कोई दूरगामी प्रभाव हो सकता है

सबसे पहले तो यह समझना  ज़रूरी है कि  बंगाल के चुनाव में विचारधारा से ज्यादा अवधारणाओं का खेल है। वामपन्थी पार्टियों के हाशिए पर जाने के बाद से ही विचारधारा का महत्त्व घट गया है। उस समय वामपन्थी होना वैचारिक रूप से प्रबुद्ध होना माना जाता था, समाज में ऐसे प्रबुद्ध लोगों का सम्मान होता था। वैसे भी बहुत से लोगों के वामपन्थी होने का कारण विचारधारा के बदले सत्ता के समीप होने से लाभ ही रहा होगा। वैसे लोगों के लिए तो वामपार्टी, तृणमूल या भाजपा में कोई फ़र्क़ नहीं होगा। बल्कि भाजपा की रफ़्तार पकड़ती गाड़ी में सवार होना उनके लिए लाजिमी है। भाजपा ने इसके लिए अपने दरवाजे पूरी तरह से खोल रखे हैं। 

यह भी पढ़ें – बंगाल में वाम-काँग्रेस की चुनौती

इसलिए बंगाल में कॉंग्रेस से वामपन्थ और वामपन्थ से तृणमूल की जो रफ़्तार बनी है उसमें अगला पड़ाव भाजपा का भी  हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। 2014 के चुनाव ने यह तो प्रमाणित कर दिया है कि बंगाल के लोगों को भाजपा से विचारधरात्मक प्रतिरोध नहीं है। अब  केवल सही ढंग से हिन्दुत्वराष्ट्रवाद , बंगाली उप राष्ट्रवाद और  विकास के मुद्दों का  सही मिश्रण तैय्यार करने का सवाल है। इस काम में भाजपा ने महारथ हासिल कर ली है।   ख़ास  बात है कि हर राज्य के समाजिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखते हुए पार्टी इस मिश्रण की अलगअलग प्रतिलितपि तैयार कर लेती है। देखना है कि बंगाल के लिए वह कौन सी  प्रतिलिपि परोसती है?

अब इन परिस्थितियों में यह कहना तो मुनासिब नहीं है कि भाजपा के लिए बंगाल में जीतना आसान होगा लेकिन यह भी कहना मुश्किल है कि तृणमूल के लिए यह आसान रहेगायदि लड़ाई  केवल दो पक्षों के बीच सिमट गई तो  बहुत कुछ इस बात पर निर्भर  करेगा कि कॉंग्रेस और वाम पार्टियों के समर्थकों का रुख़ क्या रहेगा। गौर करने की बात है कि त्रिपुरा में लम्बे समय तक मुख्य मन्त्री रहे  लोकप्रिय नेता मानिक सरकार ने स्पष्ट रूप से कहा है कि तृणमूल  को हराने  के लिए भाजपा को वोट करना बंगाल के लिए एक ऐतिहासिक भूल होगी। वाम मोर्चा के आख़िरी मुख्यमन्त्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने पार्टी के मुखपत्र गणशक्ति को दी एक साक्षात्कार में बहुत ही स्पष्ट रूप  से कहा था कि  तृणमूल को हराने के लिए भाजपा को वोट देना तवे से निकालकर आग की भट्ठी में कूदने जैसा होगा। इन बातों से साफ है कि वाम समर्थक भी भाजपा की तरफ़ झुक सकते हैं और भाजपा इसी सम्भावना को एक बड़ा अवसर के रूप में देख रही है। 

यह भी पढ़ें – किस रास्ते बंगाल?

यह तो तय है कि इन कांग्रेस और वामदल  का जनाधार खिसकेगा। अब देखना यह है कि उनके समर्थक  जाते किधर हैंइसका आकलन कठिन इसलिए है कि जो लोग अब इन दोनों पार्टियों के समर्थन में खड़े हैं उनमें ज्यादातर लोग वैचारिक रूप से बेहद प्रतिबद्ध है और पिछले कुछ समय से उनकी लड़ाई तृणमूल से रही है। लेकिन यह भी सही है कि तृणमूल की तुलना में भाजपा से उनकी लड़ाई ज्यादा स्थाई है और प्रतिरोध ज्यादा कड़ा है। इन पार्टियों में भाजपा के  बढ़ते प्रभाव से वे बेहद चिन्तित हैं, इसलिए किसी भी क़ीमत पर उससे निपटना इनकी प्राथमिकता होगी। यदि ऐसा हुआ तो शायद उनके बीच चुनाव के पहले ही एक समझौता हो जाएगा और फिर भाजपा के लिए बंगाल एक सपना रह जाएगा। लेकिन  ठीक इसके विपरीत इन पार्टियों के समर्थक ममता दीदी से तंग आकर यदि बड़ी संख्या में भाजपा की ओर चले गए तो फिर तृणमूल के लिए मामला कठिन  होगा।  

कुल मिलाकर बंगाल की राजनीति एक रोचक मोड़ पर है और चुनाव का रोमांचकारी होना तय है। देखना है कि इस राजनैतिक खेल में भाजपा और तृणमूल अपनी क्षमताओं का उपयोग कैसे कर पाते हैं। सम्भावना यह कि बंगाल में अस्मिताओं की राजनीति का एक नया दौर चले और हिन्दू बनाम मुस्लिम, बंगलदेसी मुसलमान बनाम भारतीय मुसलमान, और बंगाली बनाम ग़ैर बंगाली जैसी अस्मिताओं का खेल शुरू हो जाए। ऐसा होना बंगाल की छवि के लिए भी ख़राब है वहाँ की आम जनता के लिए भी।

.

Show More

मणीन्द्र नाथ ठाकुर

लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +919968406430, manindrat@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

4 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
4
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x