बंगाल, बंगालीपन और वामपन्थ
भाजपा की आक्रामकता ने बंगाल की दुखती रगों को फिर एक बार छेड़ दिया है
इसी 19 फरवरी को विश्वभारती विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह था, जिसमें प्रधानमंत्री ने आनलाईन अपना वक्तव्य रखा। ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में इस दीक्षांत समारोह की एक खबर का शीर्षक था —‘इतनी हिन्दी क्यों’ (ऐतो हिन्दी कैनो)। खबर में बताया गया है कि इस पूरे आयोजन का संचालन हिन्दी में किये जाने से लेकर पूरे कार्यक्रम पर हिन्दी के बोलबाले के कारण लोगों में काफी असंतोष दिखाई दे रहा है। आयोजन की संचालिका ने हिन्दी में संचालन किया, उपकुलपति विद्युत चक्रवर्ती ने हिन्दी में ही स्वागत भाषण दिया।
अतिथियों में हिन्दी-भाषियों की बड़ी उपस्थिति के कारण ही ऐसा करना उचित बताया गया। इसकी प्रतिक्रिया मेंविश्वविद्यालय के वर्तमान और पूर्व-विद्यार्थियों ने कहा कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के कार्यक्रम में इस कदर हिन्दी का आधिपत्य निंदनीय है। एसएफआई ने पोस्टर लगा कर कहा कि बीजेपी को खुश करने के लिए ही इस दीक्षांत समारोह में हिन्दी का बोलबाला रहा।
बंगाल में चुनाव प्रचार के लिए यहाँ गुजरात और हिन्दी प्रदेशों के नेताओं ने जिस प्रकार डेरा जमाया है, उससे क्रमशः लोगों में यह अनुभूति पैदा होने लगी है कि क्या बीजेपी ने इस चुनाव को बंगाल पर हमला करके उसे अपने कब्जे में करने का कोई औपनिवेशिक युद्ध शुरू कर दिया है! बाज हलकों में तो अमित शाह अथवा कैलाश विजयवर्गीय को बंगाल का अगला मुख्यमंत्री तक भी कहा जाने लगा है।
आज 21 फरवरी, मातृभाषा दिवस है। सन् 1953 में इसी दिन पूर्वी पाकिस्तान में भाषा आंदोलन की जो घटना घटी थी उसी की स्मृति में सारी दुनिया में इस दिन को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है। गौर करने की बात है कि 21 फरवरी 1953 के साल भर बाद ही पश्चिम बंगाल में भी बांग्ला भाषा के सवाल पर एक ऐतिहासिक राजनीतिक लड़ाई लड़ी गयी थी और वह लड़ाई सिर्फ भाषा की नहीं, भारत में बंगाल मात्र के वजूद की रक्षा की लड़ाई में बदल गयी थी। उस समय भी बंगाल के अस्तित्व पर कुछ ऐसा ही संकट पैदा हुआ था, जैसा कि आज मोदी-शाह के नेतृत्व में पैदा किया जा रहा है। ऐसा लगता है जैसे बंगाल की अपनी जातीय पहचान को ही खत्म कर देने की कोशिश की जा रही है।
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सन् 1954 का वह जमाना देश में कांग्रेस के एक छत्र राज्य का जमाना था। तब कांग्रेस में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन के सवाल को लेकर भारी विवाद था और कांग्रसे का एक बड़ा हिस्सा इसे देश की एकता के लिये अहितकारी समझता था। उसी समय कांग्रेस की ओर से एक कोशिश हुई थी कि बंगाल और बिहार को मिला कर एक पूर्वी प्रदेश का गठन किया जाए। उन दिनों तत्कालीन बिहार के मानभूम इलाके और पूर्णिया के एक बांग्लाभाषी अंश को बंगाल में शामिल करने को लेकर विवाद पैदा हुआ था। उस समय मानभूम के एक वैद्यनाथ भौमिक ने 21 दिनों का अनशन किया था जिसकी वजह से वह इलाका आज के पुरुलिया जिले में है इस पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण दास ने विरोध करते हुए कहा था कि ये सारे इलाके सैकड़ों साल से बिहार के हिस्से रहे हैं। इस पूरे विवाद के समाधान के तौर पर तब कांग्रेस हाई कमान ने एक अनोखा सूत्र पेश किया था जिसमें बंगाल और बिहार, इन दोनों राज्यों को मिला कर एक कर देने की बात कही गयी थी। इस प्रकार तब बंगाल को भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्र में विलीन कर देने की एक पेशकश की गयी थी। 23 जनवरी 1956 के दिन बंगाल के मुख्यमंत्री विधानचंद्र राय और बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण दास ने इस एकीकरण के प्रस्ताव के पक्ष में एक संयुक्त विज्ञप्ति भी जारी की थी। इसके बाद सिर्फ विधान सभा से प्रस्ताव पारित कराना बाकी रह गया था।
उस समय बंगाल के वामपन्थ ने इस प्रस्ताव का जम कर विरोध किया। जो बंगाल वैसे ही देश के बंटवारे के कारण शरणार्थी समस्या से जूझ रहा था, बिहार में उसके विलय का प्रस्ताव उसके अस्तित्व को ही विपन्न कर देने का प्रस्ताव था। यह भारत में बांग्ला भाषा की रक्षा का एक बड़ा सवाल बन गया। इसके लगभग सवा तीन साल पहले 15 दिसंबर 1952 के दिन भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन की मांग पर 56 दिनों के अनशन के बाद पोट्टी श्रीमालू की मृत्यु और आंध्र प्रदेश का गठन की घटना हो चुकी थी। बंगाल मेंवामपंथियों के विरोधकारण ही प्रदेश के मजदूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों ने सड़कों पर प्रदर्शन शुरू कर दिये। कोलकाता विश्वविद्यालय के सिनेट ने इस एकीकरण का विरोध करते हुए प्रस्ताव पारित किया।
भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के सवाल पर तब पश्चिम बंगाल में बाकायदा एक संगठन बना जिसका प्रारंभप्रसिद्ध वैज्ञानिक और लोक सभा के सदस्य मेघनाथ साहा ने किया था। 1 फरवरी 1956 के दिन कोलकाता में साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों ने एक जन-कन्वेंशन का आयोजन किया और 2 फरवरी को चरम चेतावनी दिवस घोषित किया गया। उस दिन लगभग 2 लाख छात्रों ने हड़ताल का पालन किया। राज्य की विधान सभा में 24 फरवरी के दिन एकीकरण का प्रस्ताव पेश किया जाने वाला था। भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की पश्चिम बंगाल कमेटी ने इस दिन को डायरेक्ट ऐक्शन डे के रूप में मनाने का ऐलान किया और घोषणा की गयी कि इस दिन विधान सभा के सामने धारा 144 को तोड़ा जाएगा। कुल मिला कर स्थिति इतनी तनावपूर्ण हो गयी कि सरकार ने 24 फरवरी को प्रस्ताव पेश करने के अपने फैसले को एक बार के लिए टाल दिया।
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उसी समय फरवरी महीने में ही मेघनाथ साह की अचानक मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के कारण कोलकाता के उत्तर-पूर्व लोकसभा क्षेत्र में उपचुनाव घोषित किया गया। तभी कोलकाता मैदान की एक सभा में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता ज्योति बसु ने इस क्षेत्र से पुनर्गठन कमेटी के सचिव मोहित मोइत्रा को कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में घोषित किया और ज्योति बसु ने यह ऐलान किया कि इस चुनाव से बंगाल-बिहार के एकीकरण के बारे में जनता की राय का पता चल जाएगा। इसने उस चुनाव के चरित्र को ही बदल दिया और वह चुनाव एकीकरण के सवाल पर जनमतसंग्रह में बदल गया। कांग्रेस अपने इस सबसे मजबूत क्षेत्र में पराजित हुई और इसके साथ ही बंगाल-बिहार के एकीकरण का प्रस्ताव हमेशा के लिए दफना दिया गया।
गौर करने की बात है कि बंगाल और बिहार के एकीकरण और मोहित मौइत्रा के उस ऐतिहासिक चुनाव की घटना को आज बंगाल में भाजपा के बंगाल के प्रति आक्रामक रुख को देखते हुए फिर से याद किया जाने लगा है। ‘आनंदबाजार पत्रिका’ में कल, 20 फरवरी के अंक में सैकत बंदोपाध्याय का एक लेख प्रकाशित हुआ है जिसका शीर्षक है —“बंगाल को हिन्दी क्षेत्र में निगल लेने की कोशिश बिल्कुल नई नहीं है : पर हमने मुकाबला किया था”। इस लेख में सैकत बंदोपाध्याय ने बंगाल-बिहार के एकीकरण के समूचे घटनाक्रम के उपरोक्त इतिहास को दोहराया है।
लेख के अंत में श्री बंदोपाध्याय ने यही कहा है कि “इसमें संदेह नहीं कि कहीं गलती हो गयी है। क्योंकि भाषा को न बचाने से प्रादेशिक स्वतंत्रता भी नहीं बचेगी। और तब नहीं बचेगा भारतीय बहुलतावाद। संघीय ढांचे की रक्षा के लिए ही बंगाल की अस्मिता और भाषा की रक्षा करना जरूरी है, इस बोध को पुराने इतिहास से हासिल करने की जरूरत है। इतिहास के सारे मोड़ जहाँ बहुत कुछ छीन लेते हैं, वैसे ही फौरन भूल सुधार लेने के अवसर भी तैयार कर देते हैं।”
कल ही विश्वभारती विश्वविद्यालय में भाषाई वर्चस्व की अश्लीलता के खिलाफ विभिन्न तबकों में जो भावनाएं पैदा हो रही है, वे भी सैकत बंदोपाध्याय की चेतावनी को व्यक्त करती है। सचमुच बंगाल में बीजेपी के आक्रमण को रोकना बंगाल के अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई है। वामपन्थ को इसे फिर से एक बार गहराई से समझना है।