लोकतन्त्र में कब तक “खेला होबे”?
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव का नतीजा जो भी आया हो लेकिन इस चुनाव में लगे नारे “खेला होबे” को वर्षों तक याद रखा जाएगा। भारतीय राजनीति में यह एक ऐसा अद्भुत नारा था जो इतना लोकप्रिय हुआ कि सत्तापक्ष ही नहीं बल्कि विपक्ष दल को भी यह नारा लगाना पड़ा। आमतौर पर विपक्षी दल सत्ता के खिलाफ ऐसे नारे लगाते है लेकिन पश्चिम बंगाल में सत्ता पक्ष ने चुनाव में आक्रामक रुख अपनाते होते हुए खुद ही यह नारा लगाया जिसकी लोकप्रियता से घबराकर विपक्ष ने इस नारे को हड़पने कोशिश भरपूर कोशिश की। भारतीय राजनीति में यह सम्भवतः पहली बार हुआ होगा कि दो पक्ष ने एक ही नारे पर कब्जा जमाने की कोशिश की।
खेला होबे नारा भले ही बांग्लादेश से आया हो लेकिन तृणमूल के एक स्थानीय कार्यकर्ताओं ने इसे गाकर अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया और यह नारा जनता की जुबां पर चढ़ गया। चुनाव के बाद भले ही लोग इस नारे को न लगाएँ या उसके गीत न गाएँ लेकिन इस नारे के पीछे एक गहरा अर्थ छिपा है और यह नारा एक बहुत बड़ा सन्देश देकर गया है। “खेला होबे” का अर्थ और सन्देश केवल पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव तक ही सीमित नहीं है बल्कि भारतीय लोकतन्त्र मेंबरसों से खेले जा रहे “खेल” की ओर भी इशारा करता है?
सवाल है क्या यह खेल केवल चुनाव जीते तक ही सीमित है या इस “खेल” के जरिए ही आजादी के बाद शासक वर्ग जनता पर शासन करता रहा है और उससे छल करता रहा है। वैसे, यह खेल मैदान में खेले जाने वाले “खेल” से भी अलग है क्योंकि उस खेल में कुछ खेलभावना भी होती है और कुछ नियम कायदे कानून भी होते हैं तथा उसका उल्लंघन करने वाले खिलाड़ियों को फाउल भी दिया जाता है। ग्रीन कार्ड रेड कार्ड दिखाने के बाद उसे मैच से बाहर भी कर दिया जाता है लेकिन भारतीय लोकतन्त्र में जो “खेला” चल रहा है, उसमें कभी नियम कायदे कानून का पालन होता रहा हो , लेकिन अब तो ऐसा लगता है इस नियम कानून कायदे का कोई पालन ही नहीं हो रहा है।
विधायिका और कार्यपालिका ही नहीं बल्कि न्यायपालिका भी इसे एक तमाशबीन की तरह इस खेल को देख रही है। ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल का चुनाव है जहाँ तृणमूल कॉंग्रेस ने अपनी” सत्ता” को फिर से पानी के लिए” खेला” खेला हो या भाजपा ने ममता बनर्जी को उखाड़ फेंकने के लिए” खेला” होने की रणनीति बनाई हो। यह “खेल” देश की जनता के लिए महंगा पड़ गया क्योंकि देश में करोना काल की दूसरी लहर का दौर चुनाव के बीच ही शुरू हो गया लेकिन खेल करने वालों को जनता की जान की कोई फिक्र नहीं बल्कि वे तो रोड शो में व्यस्त रहे। चुनाव आयोग या न्यायपालिका को इतनी हिम्मत नहीं हुई जो इस रोड शो पर प्रतिबंध लगा दे। इस से आप अनुमान लगा सकते हैं कि राजनीतिक चुनाव राजनीतिक दलों के लिए कितना अहम है कि उन्हें इस से फुरसत नहीं कि वे जनता के दुख तकलीफों की तरफ ध्यान दें।
जाहिर है ऐसे दौर में को रोना के प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए था लेकिन सबसे दुखद बात यह है कि ना तो भाजपा और न ही तृणमूल और अन्य विपक्षी दलों ने भी इस प्रोटोकॉल का पालन न किया। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी अपने चुनाव क्षेत्र बनारस में यह देखने नहीं कि वहाँ जनता जी रही है या मर रही है। बनारस की हालत इतनी बदतर हो गयी है कि जिलाधिकारी ने लोगों को इस शहर में नही आने की सलाह दी है। गुजरात में भी यही हाल है। प्रधानमन्त्री अहमदाबाद से भी चुनाव लड़े थे और वहाँ लम्बे समय तक मुख्यमन्त्री रहे लेकिन इन जगहों में जाकर जनता का हाल चाल लेने के लिए उनके पास समय नहीं लेकिन वह पश्चिम बंगाल कई बार गये और उन्होंने कोविड प्रोटोकॉल का उल्लंघन करते हुए रोड शो किए भाषण दिये। इसे देश की जनता ने टीवी और सोशल मीडिया पर साक्षात देखा लेकिन चुनाव आयोग ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। क्या यह भारतीय लोकतन्त्र के वर्षों से चल रहे” खेला होबे “का हिस्सा नहीं है।
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गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पर भी आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन कई बार आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई होने की बात तो दूर उन्हें नोटिस तक भी नहीं भेजा गया। यहाँ तक कि उनके मामले में विपक्ष के आरोपों पर विचार के लिए आयोग की जो बैठक हुई उसके मिनट्स भी दर्ज नहीं किए गये ताकि चुनाव आयोग के रिकॉर्ड में इस बात को दर्ज नहीं किया जा सके कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी पर कभी आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप भी लगे थे। चुनाव आयोग के एक सदस्य ने डिसेंट नोट भी लिखा था पर उसे भी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं किया गया।
लोकतन्त्र के इस खेल में अब उच्चतम न्यायालय भी शामिल हो गया प्रतीत होता है। इसलिए गत एक दो वर्षों में उसकी विश्वसनीयता में काफी गिरावट आयी है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का मामला हो या अरुण मिश्रा या बोबडे का मामला हो उनकी साख अब वह नहीं रही जो पहले थी और यह आरोप आज मीडिया के एक हिस्से में लग रहे हैं। गोगोई को जिस तरह राज्य सभा का सदस्य बनाया गया, उसने समाज में विवाद को जन्म दिया।
अपने देश में वर्षों से उच्च पदों पर आसीन लोगों को उपकृत करने की जो एक परम्परा विकसित हुई है, खेल उसके पीछे ही है सच पूछा जाए तो आजादी के बाद लगातार धीरे-धीरे राजनीतिक मूल्यों और संस्कृति में गिरावट आती गयी है जिसका नतीजा यह है कि नौकरशाही ही नहीं बल्कि न्याय पालिका भी प्रश्नों के घेरे में आ गयी है लेकिन लोकतन्त्र के इस खेल में एक और प्लेयर है जिसकी तरफ जनता का ध्यान नहीं जाता या कम जाता है। ये प्लेयर देश के पूँजीपति हैं। सरकार बनाने और गिराने के खेल में पर्दे के पीछे यही रहते हैं लेकिन ये सामने नहीं आते। विधायिका और कार्यपालिका भी इनका बचाव करती है। विधायिका कानून बना कर तो कार्यपालिका नीतियाँ बना कर इन पूँजीपतियों का बचाव करती है। मोदी सरकार लोकतन्त्र के इस खेल में चुनाव बॉन्ड को गोपनीय बना देती है ताकि जनता को यह नही पता चले कि किस पूँजीपति ने कितना चन्दा इस बॉन्ड के जरिए दिया है।
क्या यह गोपनीयता लोकतन्त्र के लिए घातक नहीं? आखिर मोदी सरकार इस बात को क्यों छुपाना चाहती है कि उसे किस पूँजीपति ने चुनाव में चन्दा दिया है? वह चाहती है कि उसकी कलई ना खुले और कल कोई यह ना कह सके कि उसने जो नीतियाँ बनायी हैं वह उन पूँजीपतियों के हित में बनाई हैं जिन्होंने उसे चन्दा दिया है। लेकिन सबसे चिन्ता की बात यह है कि पिछले दिनों जब यह मामला उच्चतम न्यायालय में गया तो न्यायालय ने भी इलेक्टरल बॉन्ड के नियम को खारिज नहीं किया और इस तरह उसने इस मामले में हस्तक्षेप करने से यह कह कर इंकार कर दिया कि कानून बनाने का अधिकार संसद यानी विधायिका को है लेकिन उच्चतम न्यायालय को कानून की समीक्षा करने का तो अधिकार है।
अगर किसी कानून से संविधान के नियमों का उल्लंघन होता हो तो उसे खारिज किया जा सकता है। पर न्यायपालिका ने इस मामले से खुद का पल्ला झाड़ लिया। इससे पता चलता है कि लोकतन्त्र का जो खेल “खेला होबे” इस देश में खेला जा रहा है, उसमें कहीं न कहीं न्यायपालिका भी शामिल है। इसलिए वह ऐसे मौके पर खामोश रह जाती है और तमाशे को देखती रहती है। राफेल मामले में न्यायपालिका ने सरकार को क्लीन चिट दी लेकिन अब फ्रांस में यह रहस्योद्घाटन हुआ है कि दासो कम्पनी ने इस सौदे के लिए रिश्वत भी दी थी। क्या इस से न्यायपालिका सन्देह के घेरे में नहीं आती कि आखिर उसने किस आधार पर सरकार को क्लीन चिट दी।
पश्चिम बंगाल की विधानसभा चुनाव के “खेला होबे” नारे ने इस सवाल को जनता के सामने एक बार फिर रखा है कि लोकतन्त्र में यह कौन सा ‘खेल’ है जिसमें अपने अपने खिलाड़ियों को हराने और जिताने का काम चल रहा है और जनता इस खेल को तमाशबीन की तरह देख रही है। आखिर वह इतनी नासमझ बेबस या लाचार क्यों है कि वह इस खेल को या तो समझ नहीं रही है या फिर खेल को बन्द करने करने के लिए आगे नहीं आ रही है। क्या उसे कोई विकल्प नहीं दिख रहा है? या वह अभी दिग्भ्रमित है।