साहित्य

भर्तृहरि; आँतरिकता की तहें

 

“वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरै: सह। 

न मूर्खजनसम्पर्क: सुरेन्द्रभवनेष्वपि।।” भर्तृहरि (नीतिशतकम्)

          अर्थात् वनचारी जंतुओं के साथ दुर्गम पर्वतीय स्थानों और जंगलों में रहना अच्छा है; किंतु इंद्रभवन में भी मूर्खों के साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है। 

      भर्तृहरि बहुत अनुभवी और पारखी रहे हैं। हमारे लोकसंसार में उनकी ख्याति भरथरी के रूप में भी है। वास्तव में सच क्या है? इसे कोई नहीं जानता।अनेक क्षणों में भरथरी गाथा और उनका गायन प्रसिद्ध है। सच यह है कि वर्तमान को तो हम निरंतर भुगतते ही हैं; उससे किसी तरह बच भी नहीं सकते। वर्तमान हमारी दिनचर्या का हिस्सा होता है। उसमें कुछ ऊँच, कुछ नीच और कुछ समतल होता है। लॉक डाउन के पीरियड ने मुझे सरसरी तौर पर पढ़े गए, लेकिन लोक में प्रचलित कई लोगों पर और कई अन्य रचनाओं तक पहुँचने का रास्ता सुझाया।

बहुत कम लोग होते हैं, जो अपने क्‍लासिक्स का पुनरावलोकन करते हैं; हालाँकि ऐसे लोग जो अपने समय को देखते और अतीत को तथा लोक और शास्‍त्रीयता को भी देखते हैं। बहुत दूर की सोच रखते हैं। अपने समय और समाज पर केंद्रित उनकी चीज़ें बार-बार वहीं काम करती हैं। उनका ज्‍़यादातर ध्यान अपने आस-पास और अपने समय के संत्रास के तमाम रूपों में घूमता है। अपनी लाइब्रेरी खंगालने के क्रम में भर्तृहरि से  एक बार फिर गंभीरता से भेंट हुई। सबको पता है कि भारतीय साहित्य-संस्कृति में उनकी ख्‍़याति- और प्रतिभा समादृत है। उनके लिखे तीन शतक काफ़ी चर्चित रहे हैं। उन्हें शतकत्रय भी कहा जाता है— नीतिशतक, शृंगारशतक और वैराग्यशतक।

कुछ का यह भी मानना है कि व्याकरणग्रंथ वाक्यपदीय भी उनका है; लेकिन मेरा अनुमान है कि वह किसी अकेले का शायद नहीं हो सकता। डीडी कोसांबी उन्हें तीसरी शताब्दी के अंत के समय का   मानते हैं। लोक में सुनता आया हूँ कि वे उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। उज्जैन में दो बार जाकर उनको मत्था भी टेक आया हूँ। सच मानिए, लोक के बड़े संवेदनशील कान होते हैं। लोक में उछाह और उमंग-उल्लास भी अप्रतिम होता है। लोक के बहुत बड़े क्षेत्र में भरथरी की गाथा भी सुनी है।

भरथरी के गायकों को और उनके वाद्यों को भी सुना -देखा है। भिन्न-भिन्न अंचलों में उसके रूप हैं। लोक में एक कथा गुरु गोरखनाथ से भी जुड़ती है। हालाँकि उसके कोई ठोस आधार नहीं मिलते। अनुमान है कि भर्तृहरि प्राचीन व्यवस्था के विध्वंस को ज़रूरी मानते थे और नई व्यवस्था के उदय और विकास का सपना देखते थे। उन्हें ‘संक्रमणकाल की संधि’ का कवि भी कहा जा सकता है। इसलिए अंतर्विरोध की तमाम परछाइयाँ वहाँ विद्यमान हैं। 

      भर्तृहरि  की कविताओं में अपने समय के संक्रमण की पीड़ा और द्वंद्व दोनों हैं। जैसा लोकगाथाओं से भी ज्ञात होता है कि उनके भीतर बेचैनी के भयावह दंश रहे हैं; जिन्हें उन्होंने झेला है। उनकी तीसरी पत्नी पिंगला ने उनकी आँखें खोल दीं। शृंगार, नीति और वैराग्य उनके जीवन-व्यवहार को साधते हैं। शृंगार से विरक्ति और वैराग्य की ओर प्रस्थान उनके जीवन का एक बहुत बड़ा बिंदु या हिस्सा बने होंगे। मुझे लगता है कि उनकी कविताएँ समय के संक्रमण का भरपूर सामना करती हैं।

किसी को संकेत मिल सकता है कि वे एक पराजित मनोविज्ञान से उपजे संकट के बींधे और बिंधे कवि हैं; लेकिन उनके भीतर की प्यास जाग्रत विवेक और ताक़त उन्हें दुनिया का अप्रतिम कवि इसलिए मानेगी कि उनमें जिजीविषा का विस्तार बहुत है। मुझे उनका अपूर्व अनुभवलोक आश्चर्यचकित करता है। तभी तो राजसी वैभव, ऐश्वर्य , संपदा त्याग करऔर  पूरे ठाठ को छोड़कर वे ज़िंदगी की भीतरी यात्रा में शामिल होते हैं। उनका संसार को देखने का तरीका अन्यों से एकदम अलग है। उनकी दृष्टि का पैनापन, जीवन में गहराई से प्रवेश करने की अभूतपूर्व क्षमता निश्चय ही प्रभावित करती है। एक श्लोक बानगी के तौर पर पढ़िए—

“कामिनीकायकांतारे कुचपर्वतदुर्गमे। 

मा संचर मनः पांथ तत्रास्ते स्मरतस्करः।।” 

       अर्थात् रे मन! सुंदरियों के काय-कानन में स्तन रूपी दुर्गम पर्वतों की आड़ में कामदेव रूप बटमार छिपा हुआ है; उधर मत जा। भर्तृहरि का यह निजी दृष्टिकोण है।

  भर्तृहरि को पढ़ते हुए जाना कि उनकी कल्पनाशीलता, संवेदनशीलता और विषय के भीतर तक पैठने की क्षमता अदभुत है। पता नहीं, वे किसको कितना प्रभावित करते हैं; हमारे मनोजगत को ज़िंदगी के सच से कितना ओतप्रोत करते हैं। यह निश्चय ही हमारी ग्रहणशीलता पर निर्भर है। उनका समय भारतीय सामंतवाद के उदय की पृष्ठभूमि के रूप में देखा जाना चाहिए। उनकी कविता हमारे जनजीवन में स्त्री के महत्‍व का भरपूर रेखांकन भी करती है, हालाँकि वहीं से उन्होंने जीवन के विस्तार और फैलाव को हृदयंगम किया और अपने लिए रोशनी की वास्तविकता खोजी। दो श्लोक उदाहरण के रूप में रख रहा हूँ— पहला, एक आम आदमी के सच का और दूसरा, स्त्री के महत्त्व का— 

“मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता,

वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।

स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरति वनिता संगमुदितः,

सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।।”

—भर्तृहरि (नीतिशतक)

इसका अनुवाद मुझे भा गया— “मुनियों के लिए भूमि ही रमणीय शय्या है, अपनी भुजा ही तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वायु ही उनका पंखा है, चंद्रमा ही प्रकाशमान दीपक है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है। इन समानों के साथ ही मुनिजन ऐश्वर्यशाली राजा के समान सुखपूर्वक शयन करते हैं।” सोचिए, आज इस समय में क्या हालात हैं; कितने प्रकार की विसंगतियाँ हैं। कितने विरोधाभास हैं।अचानक एक श्लोक पढ़कर मैं उस पर रीझ गया— 

“स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति, योऽलीकपण्डितो युवतिम्।

यस्मात्तपसोऽपि फलं, स्वर्गस्तस्यापि फलं तथाप्सरसः।।”

             —भर्तृहरि (शृंगारशतक) 

अर्थात् जो विद्वान् युवतियों की निंदा करता है, वह निश्चय ही झूठा पंडित है। उसने पहले आप धोखा खाया है, अब दूसरों को धोखा देता है; क्योंकि अनेक प्रकार की तपस्याओं का फल स्वर्ग है और स्वर्ग का फल अप्सरा-भोग है।

         अच्छा हुआ कि हम इस समय कई-कई प्रश्नों का एक साथ सामना कर रहे हैं। अप्सरा भी एक स्त्री है और वैश्या भी एक स्त्री ही है और समूचे गुणानुवादों में  फँसाए जाने के बावजूद सिद्धांतों में उच्च और व्यवहार में पतित और नीचता का आचरण झेलने वाली स्त्री ही है। मैं भर्तृहरि के इस श्लोक को पढ़कर ठहर गया—

“क्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ता: पुरा तेऽखिला:,

क्षीरेतापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानौ हुतः।

गंतुं पावकमुन्मनास्तद्भवद्दृष्ट्वा तु मित्रापदं,  

युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीदृशी।।” 

              —भर्तृहरि (नीतिशतक)

         यहाँ मित्रता पर बहुत गहराई से विचार किया गया है। अनुवाद इस प्रकार है— “दूध में जब जल मिला तो दूध ने अपना रूप और गुण अपने मित्र रूपी जल को दे दिया। पर जब इस दूध और जल को एकत्र कर अग्नि पर चढ़ा दिया जाता है तो मित्र-रक्षा का ध्यान रख पहले जल ही जलता है। जब जल समाप्त हो जाता है तो दूध को भी मित्र बिना रहना उचित नहीं मालूम होता। इसलिए वह अपने को भी उबालकर आग में गिराने लगता है; किंतु ऊपर से शीतल जल का छींटा पाकर फिर वह शांत हो जाता है।”

भर्तृहरि को पढ़ते हुए ऐसा ज़रूर लगता है कि अपने क्लासिक को न जानना या उससे कन्नी काटना एक तरह से हमारा अपने समय से निर्वसन ही है। एक बेहद उम्दा बात है कि भर्तृहरि अपनी उधेड़बुन के पार जाते हैं। उनकी कविता उत्सुकता और उद्वेलन के द्वंद्वों को बार-बार रचती है। वह हम सबके लिए एक अद्भुत  यात्रा भी है और अंतर्यात्राएँ भी। वह हमें अपने आप में झाँकने का सुनहरा अवसर भी देती है।

भर्तृहरि का जीवन विसंगतियों एवं विरोधाभासों का केंद्र रहा है। गृहस्थजीवन और संन्यास जीवन की यात्रा के उनके एक दो नहीं बल्कि कई चरण रहे हैं। लगता है कि वे अपनी कविता में अमरत्व की खोज नहीं करते। भौतिक जीवन जगत के अंतर्विरोधों को बार-बार परखते हैं। खोजते हैं और एक रास्ता बनाना चाहते हैं। राज व्यवस्था को वे हर हाल में जनता के लिए निरापद देखने के आग्रही रहे हैं। इसलिए उनकी कविता इसका भरपूर अन्वेषण करती है। अनेक प्रश्नाें का बहादुरी से सामना करने की ताक़त भी देती है। लोक गाथाओं में रचा गया भर्तृहरि शायद अनेक आयामों में जिया भोगा और रचा गया होगा। ऐसा अनुमान है।

लोक में  यह ख्यात है कि प्रसिद्ध योगी मत्स्येंद्रनाथ या मछन्दरनाथ और गोरखनाथ उनके समकालीन थे। वास्तविकता क्या है कोई नहीं जानता। यह ज़रूर है कि उन्हें जीवन का अभूतपूर्व ज्ञान था। शायद उनकी कविता इसलिए श्रृंगार, नीति और वैराग्य के विभिन्न क्षेत्रों, चरणों और अनुभव लोक तक जाती है और वहीं से अनुभव, संघर्ष और जीवन के जद्दोजहद में प्रवेश करती है। अचानक एक श्लोक का एक अर्थ प्रकट हुआ। निश्चय ही निम्न कोटि  के लोग विघ्न के डर से काम शुरू ही नहीं करते। मध्यम कोटि के लोग काम शुरू करने के बाद बाधाओं से दुःखी होकर उसे बीच में ही छोड़ देते हैं और उत्तम कोटि के लोग बार -बार विघ्नों से आहत होकर भी शुरू किए गए काम को बिना पूरा किए किसी हालत में नहीं छोड़ते। यह श्लोक मैंने अपनी ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ा था। इन जैसे कई और भी।

सच है कि वे सार्वभौम भाषा की कल्पना करते हैं। उनके यहां पश्यन्ती ही अभिव्यक्ति का प्रथम चरण है। इसका रूपांतरण या अगला चरण भर्तृहरि ने प्रतिभा के रूप में स्वीकारा है; उनका मानना है कि शब्द ,विचार या प्रत्यय के बीच कोई भिन्नता नहीं है ।भर्तृहरि ने भाषा की आँतरिक संरचना को सार्वभौम माना है।पता नहीं मुझे लगता है कि वाक्य पदीय अकेले भर्तृहरि की रचना होना क्या किसी तरह संभव  है ।वह एक तरह का सहयोगी प्रयास ज़रूर माना जा सकता है ।जाहिर है कि उनकी प्रतिभा और जनजीवन में उनकी अद्भुत पैठ रही है। इससे  किसी भी तरह इंकार नहीं किया जा सकता। उसी तरह भर्तृहरि का संबंध लोक के कनफटा योगियों से जोड़ा गया है।ऐसी संसूचनाएँ भी की गई हैं। मेरे पास कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।क्या मात्र सारंगी में गाए जाने वाले पदों के द्वारा ही उनको उनसे जोड़ दें ।अच्छा हो कि इस पर बहुत गंभीरता से सोचने विचारने की ज़रूरत है। लोगों ने इस मामले का शायद कोई उद्घाटन किया हो।

लोक में भर्तृहरि की पैठ के रूप अलहदा हैं। माध्यमिक कक्षाओं में और उसके बाद उनके नीति युक्त श्लोक कई-कई बार पढ़े हैं। तब जानकारी नहीं थी कि ये भर्तृहरि के ही हैं।  पाँच-सात उदाहरण तो याद हैं।बस एक उदाहरण- 

”येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति॥”

अर्थात जिन लोगों के जीवन में न विद्या है, न तप है, न दान है, न शील है, न गुण है और न धर्म है, ऐसे पृथ्वी के भार स्वरूप लोग, मानो पशु ही मनुष्य का रूप धारण किए हुए विचरण करते हैं। 

हमारे क्लासिक में ऐसे अनगिनत रत्न हैं। जिन्हें हम ज़िंदगी भर नहीं जान पाते। भर्तृहरि जितने शास्त्रीय हैं उतने ही लोक से सम्बद्ध भी। उस शख्सियत की कल्पना भर की जा सकती हैं; जो राजकीय जीवन से संन्यास या वैराग्य के बीच कई चरणों में यात्रा करता रहा। भतृहरि पर उपन्यास प्रकाशित है महेश कटारे का शीर्षक है -कामिनी काय कांतारे।

अपने एक साक्षात्कार में महेश जी ने बताया -“मैनें सात वर्ष तक उन पर रिसर्च की, कई बार उज्जैन गया। जहां -जहां पता चला भर्तृहरि पहुंचें हैं। वहां गया। मतलब बंगाल की सैर मैनें की। पाल वंश कहां है, कैसे है? एक -दो लोग मिले उन्होंने बताया। भर्तृहरि की बहन मैनावती वहां पर थी। फिर भी मैं असम गया और वहां पर वह सब क्रियाएं देखीं -जो तांत्रिक क्रियाएं  होती थीं। क्योंकि उसके अनेक सोपान होते हैं -तंत्र के। आप जानते हैं? मद्य, मांस,मीन, मुद्रा और मैथुन.. पांच प्रकार के तो यही होते हैं। तंत्र साधना को गुह्य साधना भी कहते हैं। “(विश्व रंग, अप्रैल -सितंबर 2021, पृष्ठ -30)

भारत में  लोक की दुनिया के अनेक क्षेत्र हैं, उसमें उनके लोक रंग हैं। अपने जीवन के कई करुण प्रसंग उन्हेंं हमेशा विचलित करते रहे। एक उद्दाम श्रृंगार में डूबा आदमी, राजनीतिक परिदृश्य से जुड़ी हस्ती, वैराग्य और नीति के माध्यम से जीवन के विराट यथार्थ को गंभीरता से सहेजती निष्कम्प भावना और कल्पना के आकाश तक की यात्रा कराती हुई उनकी निर्मल दृष्टि रही है। सचमुच मेरी नज़र में उनका साहित्य हमारी अमूल्य धरोहर है। वे हमें निरन्तर चमत्कृत करते हैं। लोक के तमाम महत्वपूर्ण रत्नों को खोजने की दुनिया सौंपते हैं

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सेवाराम त्रिपाठी

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com
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