साहित्य

कोरोना काल और प्रेमचंद की ‘शांति’ कहानी की प्रासंगिकता

 

दुनिया में कई महामारियाँ समय-समय पर दस्‍तक देती रही है। किन्तु अब तक की सभी महामारियाँ किस्‍से-कहानियों तक ही सीमित थी। किन्तु पहली बार इन कहानियों अथवा महामारियों को प्रत्‍यक्ष तौर पर महसूस करने का मौका मिला है। महामारी के इस विकराल रूप को देखते-देखते मन टूट सा गया है, किन्तु मीलों चलने की होड़ ने आज भी मन पर विराम नहीं लगने दिया। हम हर दिन इस महामारी को हराने में एक कदम आगे बढ़ रहे हैं।

आज देश-दुनिया जिस वैश्विक महामारी कोरोना से जूझ रहा है, वह हर दिन एक नयी समस्‍या लेकर खड़ा है। इन दिनों अखबार, टीवी समाचार चैनलों से मिल रही खबरें अत्‍यंत भयावह और हृदय विदारक हैं। इस बीमारी से रोगग्रस्‍त व्‍यक्ति और उसका परिवार इसकी पीड़ा से भलीभांति परिचित है। खासतौर पर कोरोना पीडि़त व्‍यक्ति जीवन-मृत्‍यु के इस खेल को बड़े ही करीब से देख रहा है। ऐसी स्थिति में बेड, ऑक्‍सीजन, दवाई की कमी ने, न जाने कितने लोगों का जीवन छीन लिया है। अव्‍यवस्‍था की ऐसी मार सही मायनों में बेहद दर्दनाक है। इस विपत्ति और संकट की घड़ी में पीडि़त व्‍यक्ति के परिवार की हालत बेहद मार्मिक अवस्‍था में पहुंच गयी है। कोरोना की मार और आसपास के लोगों का पीडि़तों के साथ अछूतों सा व्‍यवहार, रोगी और उसके परिवार को हर तरफ से कमजोर कर देता है।

सरकार के द्वारा सही समय में सही नीति और व्‍यवस्‍था का अभाव भी इसका एक प्रमुख कारण है। यदि सरकार समय रहते सही नीति और संसाधनों की व्‍यवस्‍था कर लेती, तो आज परिदृश्‍य कुछ और ही होता। संकट और विपत्ति की इस घड़ी में आम लोगों ने जिन मानवीय और नैतिक कर्तव्‍यों का निर्वहन कर जो मिसाल पेश किया है, वह सराहनीय है। परन्‍तु यह संख्‍या बेहद कम है। इसके विपरित ऐसे भी लोग देखने को मिल रहे हैं, जो आपदा को अवसर में बदल रहे हैं। बहरहाल किसको कितना दोष दिया जाये, य‍ह तो विमर्श का विषय है। वैश्विक महामारी के इस विकट समय में अधिकांश व्यक्ति सुख, समृद्धि और शांति की तलाश में भटक रहे हैं। इस भटकाव और तलाश की झलक हम इतिहास के साथ-साथ साहित्‍य में भी देख सकते हैं। साहित्‍य ने समाज को हमेशा से दिशा देने का कार्य किया है। इसी दिशा में प्रेमचंद द्वारा लिखी गयी ‘शांति’ कहानी आज के परिदृश्‍य में बेहद प्रासंगिक दिखाई देती है, जिससे सीख लेने की आवश्‍यकता है।

‘शांति’ कहानी की शुरूआत पहली बार ससुराल आयी बहू श्‍यामा से होती है। श्‍यामा भारतीय संस्‍कृति से परिपूर्ण नारी है। किन्तु श्‍यामा के पति बिल्‍कुल इसके विपरीत है। श्‍यामा के पति पश्चिमी सभ्‍यता के हिमायती थे। बाबू साहब का विचार स्त्रियों के रहन-सहन और शिक्षा के सम्बन्ध में बहुत ही उदार थे। इनका मन पत्नी के साथ कम रमता था। काम से वापस लौटने के बाद पश्चिमी संस्‍कृति के लेखकों की किताबें पढ़ा करते थे। जैसे- आसकर की सर्वश्रेष्‍ठ रचना। ठीक इसके विपरीत पत्‍नी रामायण पढ़ा करती थी। दोनों के बीच मानो दो संस्‍कृतियों की टकराहट थी। इसलिये बाबू साहब अपनी पत्‍नी को अपने अनुरूप ढालने के लिए पश्चिमी संस्‍कृति की शिक्षा देने की शुरूआत कर देते हैं। इसी शिक्षा और संस्‍कार की वजह से संयुक्‍त परिवार टूटकर एकल परिवार में विभाजित हो जाता है और सास-बहू की छोटी-छोटी बातों के कारण, बाबू साहब अपनी पत्‍नी को लेकर इलाहाबाद चले जाते हैं और एक नए जीवन का आरम्भ करते हैं।

बाबू साहब वकील थे, इनकी वकालत कम चलती थी। इसके बावजूद वे पश्चिमी संस्‍कृति के दिखावटी जीवन से प्रभावित होकर आय से अधिक खर्च करते थे और कहते थे कि अपनी दरिद्रता का ढिंढोरा अपने-आप क्‍यों पीटूँ? दरिद्रता प्रकट करना दरिद्र होने से अधिक दु:खदायी होता है। खर्च बढ़ना, आवश्‍यकताओं का अधिक होना द्रव्‍योपार्जन की पहली सीढ़ी है। इससे हमारी गुप्‍त शक्तियाँ वि‍कसित हो जाती हैं। इसलिये वह निर्धन होने के बावजूद दिखावापूर्ण जीवन जीने में विश्‍वास रखते थे। सप्‍ताह में मित्रों को भोजन पर बुलाना, थियेटर जाना, क्‍लब जाना, गार्डन जाना, सैर-सपाटे पर जाना आदि गतिविधियाँ इनके दिनचर्या का हिस्‍सा बन गया था। अब बाबू साहब की पत्‍नी का मन भी रामायण से हटकर इन्‍हीं गतिविधियाँ में खूब रमने लगा था। कल तक जो मर्दो के सामने आने में झिझकती थी, आज उनके साथ बैठकर हँसी-ठिठोली करने लगी थी।

इलाहाबाद आये हुए दो वर्ष हो चुके थे। इस दौरान बाबू साहब की पत्‍नी पूरी तरीके से पश्चिमी संस्‍कृति में ढल चुकी थी। अब वह विलासपूर्ण जीवन में व्‍यस्‍त रहती थी। इस जीवन से वह आनंदित भी थी। इसी दौरान एक दिन अचानक बाबू साहब को बहुत तेज बुखार आया, दिन-भर बेहोश रहे। किन्‍तु इनकी पत्‍नी श्‍यामा का मन अब इन चीजों से परे हो गया था। वह पति की सेवा छोड़कर प्रतिदिन के अनुसार अपनी दिनचर्या को बनाये रखना चाहती थी। जैसे ही पति को होश आता है, अपना ध्‍यान रखना कहती हुई, टेनिस क्‍लब खेलने के लिए चली जाती है। तब बाबू साहब को याद आता है कि आज से तीन वर्ष पूर्व, जब ऐसे ही तेज बुखार से वे पीडि़त थे, तब माँ ने दिन-रात उनकी सेवा की थी, जिससे वे जल्‍द ही स्‍वस्‍थ हो गये थे। फिर से वही तेज बुखार है, किन्तु इस बार मां नहीं, बल्कि पत्‍नी है जिसे मेरे सेवा भाव से ज्‍यादा उसे आधुनिक जीवन प्‍यारा हो गया है। इस कारण बाबू साहब करूण भाव से बोलते हैं कि मैं यहाँ कभी अच्‍छा नहीं हो सकता, मुझे अम्‍मा के पास पहुँचा दो। इस पर पत्‍नी बोलती है यहाँ किस चीज की कमी है, कहो तो दूसरे डॉक्‍टर को बुला दूँ।

बाबू साहब इस रोग से नहीं, बल्कि यहाँ के जीवन से तंग आ गये थे। उन्‍हें समझ आ गया था कि दूर के ढोल सुहाना होता है, वे इलाहाबाद के इन चार वर्षों में जिस पश्चिमी संस्‍कृति के अपना जीवनयापन किया और जिस शांति की खोज में वह यहां आये थे, वह जीवन अब उन्‍हें आदि से अंत तक संकटमय लगने लगा था। उन्‍हें यहाँ न तो हृदय की शांति थी और न ही कोई अन्‍य आनंद, न ही किसी का साथ। जो था वह एक उन्‍मत्‍त, अशांतिमय, स्‍वार्थपूर्ण, विलापयुक्‍त जीवन है। यहाँ न नीति है, न धर्म, न सहानुभूति, न सहृदयता। इसलिये इस जीवन से तंग आ गये थे।

एक दिन बाबू साहब अपनी पीड़ा बताते हुए, पत्‍नी श्‍यामा से विनीत भाव से बोले—आज मैंने निश्‍चय कर लिया है कि मैं अब फिर घर जाकर वही पहली वाली जिंदगी बिताऊँगा। मुझे अब इस जीवन से घृणा हो गयी है, और यही मेरी बीमारी का मुख्‍य कारण है। मुझे शारीरिक नहीं मानसिक कष्‍ट है। मैं फिर तुम्‍हें वही पहले वाली सलज्‍ज, नीचे सिर करके चलने वाली, पूजा करने वाली, रामायण पढ़ने वाली, घर का कामकाज करने वाली, चरखा कातने वाली, ईश्‍वर से डरने वाली, पतिश्रद्धा से परिपूर्ण स्‍त्री के रूप में देखना चाहता हूँ। यह बात सुनकर श्‍यामा के हृदय में जैसे वज्रपात हो गया हो। वह शांत हो गयी और चुप्‍पी साध ली। तभी बाबू साहब के मन में विचार आने लगा कि सभ्‍यता, स्‍वेच्‍छाचारिता का भूत स्त्रियों के मन में बड़ी सुगमता से कब्‍जा कर लेता है। बहुत सोच-विचार करके श्‍यामा फैशन की दुनिया को छोड़कर अपने कर्तव्‍य बोध को पहचानती है और बाबू साहब के साथ घर लौटती है। अब सास पहले से ज्‍यादा प्रेम से बहू को रखती है और पूरा परिवार शांतिपूर्ण जीवन व्‍यतीत करता है।

बाबू साहब को जिस शांति की तलाश रहती है, वह घर पहुँचकर मिल जाती है। परन्‍तु शांति की तलाश का कारण एक बिमारी बनता है। अन्‍यथा वह अपनी जीवन शैली से खुश थे। कुछ ऐसा ही हाल कोरोना के दौरान भी देखने को मिल रहा है। खासतौर से वैसे लोग जो पश्चिमी संस्‍कृति से आकर्षित होकर एक देश से दूसरे देश जाते हैं, और जब कोरोना जैसी महामारी का आगमन होता है, तब ऐसे लोग अपने परिवार और देश की ओर लौटते हैं। इसके कई उदाहरण कोरोना की पहली और दूसरी लहर में देखने को मिला। इस वैश्विक महामारी में हर व्‍यक्ति सुकुन और शांति की तलाश में हर वह प्रयास कर रहा है, जिससे सुकुन और शांति मिल सके। इस विकट आपदा और महामारी के समय में सारा सिस्‍टम जहां फेल साबित हो रहा है, ऐसे समय में एकमात्र अपने परिवार का सहारा है, जिनसे सबल, साहस और शांति मिल रहा है। इस महामारी ने संयुक्‍त परिवार की बढ़ती दूरियों को नजदीकियों में तब्‍दील किया है और ‘वसुधैव कुटुम्‍बकम्’ को चरितार्थ तो किया ही है, साथ ही एकल परिवार से हटकर लोगों को संयुक्‍त परिवार की ओर अग्रसर होने के लिए भी प्रेरित किया है।

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संतोष बघेल

लेखक शिक्षाविद् एवं स्‍वतन्त्र लेखक हैं| सम्पर्क- +919479273685, santosh.baghel@gmail.com
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