साहित्य

भारत माता ग्रामवासिनी!

 

इण्टर के विद्यार्थियों को वर्षों से कवि सुमित्रानन्दन की कविता ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ पढ़ाते हुए इस बार अर्थ के कुछ और आयाम उद्भासित हुए और साथ ही कुछ सवाल भी। भारत माता ग्रामवासिनी कविता स्वतन्त्रता संघर्ष के दौर की चुनौतियों को बड़े सुन्दर  ढ़ंग से अभिव्यक्त करती है। यह कविता उस भारत माता को सम्बोधित  है जो तरुतल निवासिनी हैं और तीस कोटि नग्न क्षुधित जनों की माँ  हैं। तब याद आता है जवाहरलाल नेहरू का वह संस्मरण जब किसी गाँव में भारत माता की जय का नारा लगा रहे भोले भाले किसानों से वे इसका अर्थ पूछते हैं और जब वे नहीं बता पाते तो वे कहते हैं कि भारत माता आपलोग ही हो। कभी राष्ट्र- प्रेम से ओत-प्रोत, बलिदान के लिए आतुर युवाओं के उत्साह का स्वतःस्फूर्त तरीके से आलम्बन बना यह शब्द एक बार फिर चर्चा में है, पर क्या उसी श्रद्धा और पावन भावना से?आखिर कहां से आया 'भारत माता की जय' का नारा...कौन है इसका जनक - bharat mata ki jai

माता में करुणा का भाव सन्निहित होता है। मातृत्व अपनी करुणा में सबको समाहित करता है, सब पर समान रूप से बरसता है। उसमें समता का भाव होता है। ऐसा कैसे हुआ कि वह माता जो तीस कोटि क्षुधित जनों की माँ थीं, वे कुछ लोगों की माता बन बैठीं और कुछ लोगों की संहारणी? मातृत्व की करूणा और संरक्षण में घृणा और हिंसा के तत्त्व  कहाँ से आ जुड़े?  कभी टैक्स के नाम पर, कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी समुदाय के नाम पर यह मान लिया गया है कि इस देश पर कुछ लोगों का ही हक है। यह प्रचारित किया जाता है कि कुछ लोग ही टैक्स भरते हैं, इसलिए सारे अधिकार और सुविधाओं के वे हकदार हैं। बाकी लोग देश के लिए बोझ हैं। भुला दी गयीं हैं वे संतानें जो आज भी इस लोकतन्त्र  में अपनी जगह के लिए प्रतीक्षित हैं।

भारत को गाँवों का देश कहा जाता है, यहाँ  की लगभग उनहत्तर प्रतिशत जनता अभी भी गाँवों में बसती है। क्या विकास का कोई भी रास्ता इन्हें दरकिनार करके बन सकता है?  लेकिन हुआ ऐसा कि मान लिया गया कि यह देश और यहाँ के संसाधन केवल एक प्रतिशत लोगों के लिए हैं। इनके पक्ष में बोलना षडयन्त्र  और अपराध माना जा रहा है। अनेकता में एकता का सर्वोच्च उदाहरण माने जाने वाले इस देश में मत-वैभिन्य के लिए कोई जगह नहीं बची। आज भिन्न विचारधारा रखना देशद्रोह है। यहाँ की संस्कृति, परम्परा, रहन सहन में घुल गए तत्त्वों और लोगों को प्रयासपूर्वक अलगाने की चेष्टा हो रही है और इसके लिए न्याय, संविधान, मानवीयता और नैतिकता को ताक पर रखते हुए हिंसा का खुलेआम प्रदर्शन हो रहा है। और बावजूद इसके हमारी संवेदना कहीं से आहत नहीं हो रही।

भारत माता की मूल छवि का राजनीतिकरण और इससे उपजी आक्रामक उग्रता

भाषा विज्ञान में अर्थ परिवर्तन की एक दिशा होती है अर्थ संकोच अर्थ की व्याप्ति की सीमा को संकुचित कर देती है। जैसे भारत राष्ट्र का एक समुदाय के लिए संकुचित हो जाना। दूसरा होता है अर्थ विपर्यय। कहना उचित होगा कि भारत माता शब्द का अर्थ संकोच ही नहीं, अर्थ विपर्यय हो गया है। कभी स्वतःस्फूर्त ढंग से राष्ट्रीय भावना का आलम्बन बनीं भारत माता आज न केवल समुदाय विशेष के लिए संकुचित हो गयी हैं बल्कि मातृत्व की करुणा, समता और समाहित करने के भाव का स्थान हिंसा, विभेदीकरण और बहिष्करण ने ले लिया है। सबसे बड़ी बात कि भारतवर्ष के लिए जब माता का प्रतीक चुना गया था, तब हम मध्ययुगीन मानसिकता से निकलने के लिए संघर्ष कर रहे थे, वे तत्व अभी हमसे पूरी तरह छूटे नहीं थे।

साथ ही हमें साम्राज्यवाद से टकराने के लिए भावनात्मक उन्मेष की आवश्यकता थी। उस समय की जरूरतें कुछ और थीं। आज हम विज्ञान और तकनीक के चरमोत्कर्ष के युग में हैं। ऐसे में पुराने प्रतीक आरोपित से लगते हैं। और जिस तरह इसको पुनर्जीवित किया जा रहा है, वह आरोपण ही है। हाथ में डंडा और हथियार लिए उन्मादित भीड़ जब भारत माता के नारे लगा रही होती है तब लज्जा से सर नत हो जाता है यह देखकर कि यह तो माता और भारत – दोनों का ही अपमान है। यह कैसा जयघोष है जो उनकी सन्तानों  को अपमानित करके किया जा रहा है? पूछने की जरूरत महसूस होती है कि ऐसे लोग भारत को कितना जानते हैं। वस्तुतः ये भारत को जानते ही नहीं – यदि जानते तो ऐसा करते ही नहीं। और जब भारत शब्द को कोड वर्ड या रुटिन वर्क बना दिया जाता है तो कहने की जरूरत महसूस होती है कि शब्द की अतिशय आवृत्ति से उसकी अर्थक्षमता घट जाती है – अज्ञेय से शब्द उधार लूं तो ‘वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है’।

Ramdhari Singh Dinkar Biography in Hindi | रामधारी सिंह दिनकर का जीवनीयह संयोग ही है कि बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के राष्ट्रभाषा के पत्र के लिए निर्धारित पाठ्यक्रम में इसके ठीक बाद ही रामधारी सिंह दिनकर की कविता है ‘वृथा मत लो भारत का नाम’। वर्षों पहले निर्धारित पाठ्यक्रम की कविताओं को आज के सन्दर्भ  में पाकर मैं विस्मित हूं। इसमें वे लिखते हैं – ‘मानचित्र पर जो मिलता, नहीं देश भारत है’। भारत क्या है?  क्या यह मात्र किसी भू भाग, पर्वत-नदी-खेत खलिहान का समुच्चय है?  देश केवल पर्वत-नदी-पठार-खेत-खलिहान से नहीं बनता, देश बनता है वहाँ के निवासियों से। और भारत के निवासी कौन हैं?  वे कौन सी धाराएँ हैं जो यहाँ के प्रवाह में समाहित हो गयी हैं, बिना इसे जाने देश को कैसे समझा जा सकता है? धर्म, सम्प्रदाय, समाज – हर जगह विरोधी युग्म खड़े किये जा रहे हैं और इससे भी आगे बढ़कर इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों के बीच भी दीवारें खड़ी की जा रही हैं बिना यह सोचे कि यह इतिहास के साथ साथ देश और समाज से भी खिलवाड़ है।


यह भी पढ़ें – राष्ट्रकवि दिनकर, राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के खतरे


दिनकर लिखते हैं, भारत एक भावना, एक विचार है समरसता का, अखंडता का, मनुष्यता और प्रेम की विजय का। विडंबना यह है कि विश्व बंधुत्व का पोषण करने वाले, मानवता का गान करने वाले इस देश में प्रेम और मानवता की बात करना ही अपराध हो गया है। तभी तो एक लड़की जब युद्ध के विरुद्ध मनुष्यता के पक्ष में अपने मनोभाव व्यक्त करती है तो उसे गालियां पड़ती है, रेप तक की धमकी दी जाती है खुले आम और किसी के मन में कोई क्षोभ और प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न होती। इस देश में मानवता की बात करने वाला आज अपराधी है, देशद्रोही है।

कभी सबको अपने में समाहित करने वाला यह शब्द विभेदकारी क्यों और कैसे बन गया, यह समझना जरूरी है। इतिहास साक्षी है कि किस तरह अंग्रेजों ने फूट डालो और शासन करो की नीति से हमें तोड़ा था। यह तथ्य आज भी हमें आक्रोशित करता है। इतिहास का वह पृष्ठ हमारे लिए सबक है – यह हम कब समझेंगे?  एक बार फिर फूट की राजनीति की जा रही है और इसबार अपनो के द्वारा। कहीं ऐसा न हो कि लम्हों की इस खता को एक बार फिर हमें सदियों तक भुगतना पड़े।

.

Show More

सुनीता सृष्टि

लेखिका पेशे से हिन्दी की प्राध्यापिका हैं और आलोचना तथा कथा लेखन में सक्रिय हैं। सम्पर्क +919473242999, sunitag67@gmail.com
5 4 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x