लोकप्रिय साहित्य से परहेज क्यों?
पिछले दिनों हिन्दी की यशस्वी लेखिका शिवानी की 98 वीं जयंती पर उनकी विदुषी पुत्री एवम प्रतिष्ठित पत्रकार लेखिका मृणाल पांडेय ने इस बात की शिकायत की कि हिन्दी के आलोचकों ने शिवानी जी को यथोचित स्थान नहीं दिया। यह शिकायत केवल शिवानी के बारे में ही नहीं है बल्कि उन तमाम लेखकों के बारे में हैं जो अपने समय में पाठकों में काफी लोकप्रिय रहें हैं लेकिन हिन्दी की मुख्यधारा के वे लेखक नहीं माने गए तथा हिन्दी के आलोचकों ने उन्हें वह स्थान नहीं दिया या उनको साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं दिया और एकेडमिक जगत से बाहर कर दिया।
यह शिकायत हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक अजित कुमार को भी थी कि उनके गुरु हरिवंश राय बच्चन को भी आलोचकों ने बहिष्कृत कर दिया। बच्चन भी शिवानी की तरह अपने समय मे काफी लोकप्रिय थे। मैथिली शरण गुप्त और दिनकर के साथ भी यही हादसा हुआ। गुप्त जी की भारत भारती और साकेत भी काफी लोकप्रिय हुई थी और उस ज़माने में प्रेमचन्द के गोदान से अधिक बिकी थीं। लेकिन दोनों कवियों को राष्ट्रवाद के खाते में डालकर उन्हें हिन्दी आलोचना के हाशिये पर डाल दिया गया। लोकप्रियता का एक और उदाहरण चित्रलेखा के साथ भी जुड़ा है जिस पर दो दो बार फिल्में बनी लेकिन आज भगवती चरण वर्मा लगभग विस्मृत हैं।
आज़ादी के बाद लोकप्रिय कृति के साथ हादसे की घटना गुनाहों का देवता के साथ हुई और धर्मवीर भारती इससे जितने लोकप्रिय हुए उससे अधिक हिन्दी आलोचना में बहिष्कृत भी हुए। उन्हें एक रोमांटिक उपन्यासकार कहकर हिन्दी साहित्य के इतिहास से बाहर धकेलने का प्रयास किया गया। क्या हिन्दी साहित्य का लोकप्रियता से कोई वैर है? अब तक केवल प्रेमचन्द ही केवल अपवाद हैं जो लोकप्रिय भी हैं औरआलोचकों की नज़र में गंभीर भी हैं।
क्या किसी कृति का मूल्यांकन केवल आलोचक करेगा या पाठक भी करेगा? क्या हमारे लेखकों ने आलोचकों पर अधिक भरोसा किया पाठकों पर कम किया। हमने पाठकों के चयन और विवेक को महत्व नहीं दिया।आलोचक ने जिस कृति की तारीफ कर दी उसकी डुगडुगी बजती रही। यह सही है कि साहित्य की किसी कृति का मूल्यांकन केवल लोकप्रियता के आधार पर नहीं हो सकता लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ग़ालिब मीर, तुलसी कबीर मीरा सूरदास शेक्सपियर टॉलस्टॉय गोर्की प्रेमचन्द मंटों रेणु फ़ैज़ साहिर मज़ाज़ सब अपने पाठकों के बदौलत ही पूरी दुनिया में जाने गए।
अगर इनका विशाल पाठक वर्ग नहीं होता तो वे इतने नहीं जाने जाते लेकिन हिन्दी में शैलेन्द्र जैसे लोकप्रिय गीतकार को भी कवि नहीं माना गया और पाठ्यक्रम तथा साहित्य के इतिहास से हमेशा बाहर रहे। नीरज के साथ भी यही दुर्घटना हुई। हिन्दी में रचना की श्रेष्ठता का पैमाना पुस्तकों की बिक्री नहीं हो सकता। अगर ऐसा होता तो कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा रानू आदि बड़े लेखक माने जाते। चेतन भगत टैगोर से बड़े लेखक माने जाते क्योंकि उनकी किताबें टैगोर से अधिक बिकी हैं।
जाहिर है चेतन भगत टैगोर नहीं हो सकते पर यह भी देखा गया है कि समाज के बदलने से संस्कृति के बदलने से पाठकों की रुचियों में बदलाव आता है। उनके लिए दिलचस्पी के विषय भी बदलते हैं। इस वजह से जो कृति कभी बहुत लोकप्रिय थी वह बाद में लोकप्रिय न हों। देश की आज़ादी की लड़ाई के समय लिखी गयी कृतियों को ऑज की युवा पीढी काम पढ़े क्योंकि आज की चुनौतियाँ अलग हैं पर कृतियों में छिपा संदेश अगर प्रासंगिक हो और उसमें समाज की चेतना से कोई तारतम्य बना हो तो वह कृति हमेशा लोकप्रिय रहती है।
महाभारत और रामायण जैसे क्लासिक्स इसके उदाहरण हैं। कृतियों में युग चेतना हो तो कृतियाँ जीवित रहती हैं और वह लोकप्रियता के मानदंडों पर खरी उतरती हैं। मीडिया का काम अच्छी कृतियों के प्रचार प्रसार के लिए जरूरी है। अंगर धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान और सारिका जैसी पत्रिकाएं नहीं होती तो शिवानी या दुष्यंत कुमार अपने पाठकों तक नहीं पहुंचते। जब कमलेश्वर ने पहली बार दुष्यंत को छापा तब किसी ने नहीं सोचा था कि वह इतने लोकप्रिय हो जाएंगे। दुष्यंत और मुक्तिबोध के पाठक अलग हैं। हम दुष्यंत के पैमाने से मुक्तिबोध की आलोचना नहीं कर सकते और मुक्तिबोध के पैमाने से दुष्यंत का मूल्यांकन नहीं कर सकते।
उसी तरह शिवानी का मूल्यांकन कृष्णा सोबती के पैमाने से नही कर सकते और न ही कृष्णा जी के पैमाने से शिवानी का कर सकते है। अगले साल जब शिवानी जी की जन्मशती शुरू हो तो शायद हिन्दी साहित्य में इन सवालों पर विचार विमर्श हो और इक्कीसवीं सदी में आई नई पीढ़ी 60 या 70 के दशक के लोकप्रिय साहित्य से रु ब रु हो और समझ सके कि स्त्रियों के जितने पात्र शिवानी ने रचे थे उनमें से आज कितने जिंदा हैं और उनके उत्तराधिकारियों के जीवन संघर्ष में कितना परिवर्तन आया है।
क्या आज किसी और शिवानी की जरूरत है जो उसी तरह स्त्री समुदाय को संबोधित कर सके यह अब शिवानी को भी मैत्रेयी पुष्पाओं की तरह लिखना होगा पर यह सच है कि लोकप्रिय साहित्य भी अच्छे साहित्य के लिए खाद का काम करता है। शिवानी को पढ़कर महिलाओं ने साहित्य का संस्कार पाया है। प्रेमचन्द बच्चन दिनकर ने भी यह काम किया है। साहित्य का काम लोगों में एक संस्कार और जीवन मूल्य पैदा करना होता है। लोगों के सौदंर्य बोध को बदलना भी उसका काम है।
अगर अच्छा साहित्य लोकप्रिय होगा तो उससे समाज की संस्कृति भी बदलेगी। समाज की संस्कृति बदलेगी तो राष्ट्र भी बदलेगा इसलिए लोकप्रियता से परहेज नहीं होना चाहिए लेकिन हिन्दी में उन लेखकों को बड़ा माना जाता है जिनके पाठक विशिष्ट हों बुद्धिजीवी हों इलीट वर्ग से आते हों। लेकिन दूसरी तरह हिन्दी के लोग इस बात का रोना रोते हैं कि हमारे पाठक नहीं हैं। आखिर लोकप्रिय साहित्य से परहेज क्यों?