भारत हिन्दू राष्ट्र बनेगा अगर किसान हारेगा
किसान अब वह नहीं है जिसके कन्धे पर हल होता था और हाथों में हँसिया। वो भी नहीं है जो बैलों के आसरे जीता था। उनकी पूजा करता था। न अब बैल हैं न हल। हँसिया की वह भूमिका नहीं, जो पहले थी। मगर किसान हैं। किसान के साथ अब ट्रैक्टर है और हिम्मत बेशुमार है। हौसला हिमालयी है।
जब देश की अर्थव्यवस्था में किसानी का योगदान बतौर जीडीपी पचपन प्रतिशत था तब भुखमरी थी, अनाज का अभाव भी था और अकाल भी था। बैल के लिए चारा भले ही मिल जाता रहा हो, किसानों के घर में फाका ही पड़ता था। देह पर लत्ता नहीं जुटता था। ओढ़ने के लिए चादर भी नहीं होती थी। इसलिए खुदकुशी का कोई सवाल ही नहीं था। बस ठिठुर के मरता था। भूख से मरता था। जब तक लड़ सकता था लड़ता था। लड़ते लड़ते मरता था।
जीडीपी में अब किसानी का केवल चौदह प्रतिशत का योगदान है। मगर अनाज की कमी नहीं है। भुखमरी नहीं है। अकाल की खबर बने चार पाँच दशक बीत चुके हैं। कालाहाण्डी लौट कर नहीं आया। यह हाल तब है जब केवल पंजाब, हरियाणा और कुछ हद तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने बाजी मारी है। बावजूद इसके अनाज भरपूर है और गरीबी भी है। गरीबी भी ऐसी कि वह गरीबों के जिगर और जमीर दोनों को नीबू की तरह निचोड़ देती है। एक तरफ अनाज भरा गोदाम है दूसरी ओर गरीबी बैताल है।
बैताल है कि पीछा ही नहीं छोड़ता। यह उसी अर्थव्यवस्था का बैताल है जिसे हम कभी वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था कहते हैं। कभी ‘खुला बाजार’ के नाम से पुकारते हैं। कभी दुलार से नव उदारवाद कह लेते हैं। जब उदारीकरण का विमान भारत की कल्याणकारी भूमि पर उतरा था तभी घोषणा हो गई थी कि अब चलेगा खुला खेल फरुखाबादी। खेल की छुट्टा संस्कृति की हवा बह चली थी। इस संस्कृति ने भारत सरकार से कहा, ’ महाराज, छुट्टी पा लो अपने कल्याणकारी स्वभाव से।‘
सरकार ने भी पल्ला झाड़ते हुए अपनी डुगडुगी बजा दी कि अब उसी का कल्याण होगा जो अपना कल्याण करेगा। यानी जो लाभ कमाएगा वही जीवन लाभ पाएगा। बाकी सबका जीवन – मरण विधि हाथ होगा। विधान बना बना कर वध किये गये। बाजार को ही मुक्ति का मार्ग बताया गया। सबको बाजार का ठिकाना बताया गया। किसी ने चूँ चपड़ नहीं की। बाजे गाजे के साथ सभी पहुँच गये। ढोल ताशे की ताल पर बल्ले – बल्ले जमाना नाचा। बल्कि कहिए कि बाजार ने जमाने को नचाया।
तब से अब तक सब को बाजार के ठिकाने लगा दिया गया। अब किसानों को निबटाने की तैयारी चल पड़ी है। सबको मालूम है कि किसान अब वे बैल नहीं, घोड़ा हैं। घोड़ों में और चाहे जो गुण होते हों, वे अड़ियल भी होते हैं और बिदकते भी खूब हैं।
पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम के किसान बिदक गये तो उन्होंने सीपीएम जैसी कैडर बेस्ड पार्टी को ऐसी धूल चटाई कि कैडर ढूँढे नहीं मिल रहे। यह इतिहास की नहीं, हाल की बात है। पैरामिलिट्री पार्टी भाजपा इसे कैसे भूल सकती है! यह नसीहत का एक पाठ है। इसीलिए पैरामिलिट्री पार्टी सावधानी से खेल रही है। होशियारी बरत रही है। वह नहीं चाहती कि वह कैडर बेस्ड पार्टी की गलती का शिकार हो जाए।
अगर वह शिकार हो गई तो बहुत आघात पहुंचेगा उसके अपने मूल लक्ष्य को। इस पैरामिलिट्री पार्टी का अपना लक्ष्य है सन दो हजार तीस के पहले भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना। दो हजार बीस का किसान आन्दोलन इस लक्ष्य की धज्जियाँ उड़ा सकता है और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनने से रोक सकता है, बशर्ते वह बिल वापस कराने में सफल हो जाए। अगर किसान हार गया तो भारत का हिन्दू राष्ट्र बनना तय है।
किसानों को बाजार के हवाले करना भाजपा का अपना लक्ष्य नहीं है। यही वजह है कि भाजपा के घोषणा पत्र में इसका उल्लेख भी नहीं है। यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के अभियान का एक हिस्सा है। इसे अंजाम देना उसकी विवशता है। अगर इसने वैश्विक अर्थव्यवस्था का यह काम नहीं किया, तो स्थिति वैसी बन ही सकती है कि सरकार से हाथ धोना पड़े। भारत जैसे देश में सरकार में बने रहने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अनुकूल होना अनिवार्य है। कोई विषम स्थिति न पैदा हो जाय इस लिए पैरामिलिट्री पार्टी फूँक-फूँक कर फुफकार रही है। क्योंकि दांव पर हिन्दू राष्ट्र का प्रोजेक्ट लगा है। किसान आन्दोलन की सफलता से यह प्रोजेक्ट खटाई में पड़ सकता है।
खटाई में न पड़ जाए, इसलिए पैरामिलिट्री पार्ट्री की सरकार सहिष्णुता बरत रही है। तरह तरह की बैरिकेडिंग कर रही है या कड़ाके की ठंड में वाटर कैनन का इस्तेमाल कर रही है, मगर गोलियाँ नहीं चला रही है। किसानों को कूट नहीं रही है। सरकार अहिंसात्मक व्यवहार कर रही है। यहाँ तक कि कर जोड़ कर निहोरा कर रही है। देश भर में घूम घूम कर आन्दोलनकारी किसानों के मगज में तीनों बिल की महीन बातें डाल रही है। मगर किसान हैं कि कह रहे हैं कि मोटी बात यह है कि ये तीनों बिल हमारी जान लेने वाले हैं, हमारा अस्तित्व मिटाने वाले हैं। किसान बाजार का व्याकरण समझते हैं। किसान अड़ गये हैं। बिदक गये हैं। मनाए नहीं मान रहे हैं, कह रहे हैं बिल वापस ले लो।
बिलों को वापस लेने की अपनी माँग से किसान टस से मस नहीं हो रहे हैं। जिस दिन से किसानों ने अपने अपने ठौर से कूच किया है दिल्ली पहुंचने के लिए, पैरामिलिट्री पार्टी की सरकार के प्रधान मन्त्री देश के अलग अलग शहरों से किसानों को सम्बोधित कर रहे हैं। लगभग डेढ़ दर्जन बार दूर से इन बिलों के फायदे गिना चुके हैं। सम्बोधन की यह अदाकारी सभी को सम्मोहन में बाँध रही है। बेशक फिलवक्त पूरी दुनिया में अपने मसीहा नरेन्द्र मोदी जी की बराबरी का कम्यूनिकेटर कोई और नहीं है। कम्युनिकेशन स्किल का हर पाठ उनका आजमाया हुआ है। जिस अटल बिहारी बाजपेयी को लोग सुनते हुए प्रमोद की अनुभूति से भर जाते थे, वे भुलाए जा चुके हैं। ऐसे बाअसर कम्युनिकेटर श्री नरेन्द्र मोदी जी की आवाज बेअसर हो रही है आन्दोलनकारी किसानों के सामने। वजह क्या है? वजह है अविश्वसनीयता। यह अविश्वसनीयता केवल श्री नरेन्द्र मोदी जी के प्रति नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण सरकार के प्रति है। हालाँकि वर्तमान सरकार और नरेन्द्र मोदी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गये हैं। यह सरकार और इस सरकार के प्रधानसेवक काम कर कर के ढहा रहे हैं।
मरहूम अटल बिहारी बाजपेयी की याद यहाँ अनायास नहीं आई है। अटल बिहारी बाजपेयी वह प्रधानमंत्री थे जिन्हें भी किसान की चिन्ता हुई थी। लेकिन उन्हें अपनी सीमा और संविधान की मर्यादा का गहरा ज्ञान था। उन्हें यह पता था कि कृषि का मामला राज्य के अधिकार क्षेत्र में है। इसीलिए प्रधानमन्त्री अटल बिहारी बाजपेयी ने दो हजार तीन में सभी राज्य सरकारों को एपीएमसी में सुधार के लिए एक मॉडल सुझाया था। इस मॉडल पर चार राज्य सरकारों ने अमल किया। महाराष्ट्र, कर्नाटक और दिल्ली ने कुछ ऐसी व्यवस्था की कि एपीएमसी भी बनी हुई है और ‘ खुला बाजार ‘ की व्यवस्था भी बनाई गई। दोनों व्यवस्थाएँ काम कर रही हैं इन तीनों राज्यों में। बिहार सबसे क्रान्तिकारी निकला। उसने एपीएमसी की व्यवस्था खत्म कर दी दो हजार छह में। बिहार तब से खुला बाजार है। नया कानून जो अब आन्दोलन और बहस का मुद्दा है, उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा बिहार में पहले ही आजमाया जा चुका है।
अब जो तीन बिल आए हैं, कहा तो उन्हें किसान बिल कहा जा रहा है। मगर कहने वाले कहते हैं कि ये कॉरपोरेट बिल हैं। प्रधानसेवक मशक्कत कर रहे हैं यह समझाने में कि ऐसा नहीं है। मगर किसान कह रहे हैं कि जैसा आप कह रहे हैं, वैसा नहीं है। इन तीन बिलों के माध्यम से सरकार किसानों और कृषि व्यवस्था से अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रही है और किसान सरकार का पल्लू पहले की तरह पकड़ कर रखना चाहते हैं। किसानों का मुख्य एतराज यही है कि सरकार अपनी सारी जिम्मेदारी और अधिकार छोड़ रही है। किसान कह रहे हैं दायित्व और अधिकार कल्याणकारी सरकार के लक्षण हैं। सरकार कह रही है कि हम बाजार व्यवस्था की सरकार हैं। बाजार व्यवस्था की सरकार की न कोई जिम्मेदारी बनती है और न ही अधिकार होता है। वह बाजार की एजेन्ट होती है। बाजार उसका आका है। इस सरकार ने तो आते ही ‘मिनिमम गवर्नेंस ‘ का एलान किया था। पूर्ण बहुमत की सरकार और मिनिमम गवर्नेंस! मिनिमम गवर्नेंस का मतलब ही है बाजार का गवर्नेंस नहीं, खुली छूट है।
किसान बिल के प्रति किसानों का दर्द यह भी है कि कृषि उपज के व्यापारियों के लिए कोई मानदण्ड नहीं तैयार किया गया है। इसका अर्थ होता है धोखा और ठगे जाने की सम्भावनाओं को सहारा देना। दूसरी ओर धोखा खाने या ठगे जाने पर किसानों के लिए प्राथमिक सुनवाई के बाद अपील की गुंजाइश नहीं रहने दी गई है।
यह व्यवस्था एक ओर जहाँ किसानों को न्याय से महरूम रखने की मंशा व्यक्त करती है, दूसरी ओर अदालत की न्याय व्यवस्था को सीमित भी करती है। किसानों का आन्दोलन केवल कृषि वाणिज्य का आन्दोलन नहीं है, लोकतन्त्र बचाने की लड़ाई भी है। लोकतन्त्र बचाने के ख्याल से ही यह किसान आन्दोलन विस्तार पा रहा है। लेकिन लोकतन्त्र अकेले किसानों के बचाए तो नहीं बचेगा। युवाओं को भी इस आन्दोलन में बढ़ कर हिस्सा लेना होगा। उन्नीस सौ नब्बे के बाद इस देश ने युवाओं को गुस्सा उगलते नहीं देखा है। लोकतंत्र युवाओं की शिरकत के बगैर कैसे सांस ले सकता है।
भाजपा के घोषणा पत्र में भले ही किसानी के क्षेत्र में इस हड़कम्प का उल्लेख न रहा हो, मगर हमारे प्रधानसेवक किसान की पीड़ा से सदैव पीड़ित रहे हैं। इसी पीड़ा से पीड़ित होकर उन्होंने किसानों की आमदनी दोगुनी हो जाने की घोषणा कर दी। पीड़ा हमेशा रास्ता दिखाती है। अब हर रास्ता बाजार की ओर जाता है। मंजिल भी बाजार है। इसी बाजार के भरोसे चौदह में सरकार बनाने के बाद प्रधान सेवक ने घोषणा की थी कि किसानों को उनकी लागत का डेढ़ गुना एमएसपी देंगे। निश्चित रूप से उन्होंने सरकार के खजाने से देने की बात तो नहीं ही कही होगी! अगर उन्होंने किसानों की आमदनी दोगुनी कर देने की बात कही थी तो वह भी बाजार के भरोसे ही तो कही होगी? अपना खजाना किसानों के लिए कौन लुटाए? सरकार की चिन्ता के दायरे में किसान नहीं हैं, बाजार है। संसद अब बाजार के एजेन्टों का क्लब है। मीडिया उस क्लब में शैफ और बैरे की भूमिका में हैं। सेवा देने के लिए और टिप्स के लिए टुकुर टुकुर निहारता रहता है मीडिया। मुँह जोहता रहता है।
किसान ठंड और बरसात की परवाह नहीं कर रहे हैं। मीडिया को भी बर्दाश्त नहीं कर रहे हैं। मगर झुक भी नहीं रहे हैं। घाघ सरकार अगर इन बाघ किसानों का शिकार कर इनकी खालों को संसद की दीवारों पर टांगने में सफल हो गई, तो छोटे किसानों का कौन हवाल?
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