एक फिल्मकार का हलफनामा भाग – 12
गतांक से आगे…
स्वाधीन दास के कलकत्ता जाने के बाद खत्री जी के अंतरंग और करीबी रहे मित्र युद्ध विक्रम मारूक तथा उनकी माँ की भूमिका के लिए आर्टिस्ट की जरूरत शेष रह गई थी तो पटना गया। वहाँ के नाट्यकर्मी अशोक आदित्य को मारूक की भूमिका के लिए कहा। वे सहर्ष तैयार हो गए तो अंजना भाटी का पता पूछा। उनके ‘क्यों?’ के सवाल पर बताया कि इस फिल्म में खत्री जी की माँ की भूमिका के लिए उनसे बात करनी है। मुझे साथ ले उनके घर तक वे गए। भाटीजी से बात हुई तो उन्होंने भी हामी भरी। इन दोनों का काम प्रकाश झा की टेलीफिल्म ‘विद्रोह’ में देख चुका था और वे उस भूमिका के लिए सर्वथा उपयुक्त थीं। रकम की बात की तो दोनों ने कहा कि काम हो जाए तब कहेंगे। इस बात से थोड़ा चौकन्ना हुआ! तो लौटते हुए अशोक आदित्य ने कहा कि आप निश्चिंत होकर जाएं हमदोनों समय से पहुंच जायेंगे। रुपए पैसे का आप टेंशन न लें।
जुलाई के प्रथम सप्ताह में पंद्रह दिनों के लिए टीम का आना सुनिश्चित हुआ तब स्क्रिप्ट के अनुसार तारीखों का सेड्यूल बनाया ताकि जिस सेड्यूल में जिस कलाकार की जरूरत हो ; उसे, उसी तारीख़ की सुबह या एक दिन पूर्व पहुंचने को कहा। इस बात की सूचना सभी को भेज दी।
कलकत्ते से टेक्नीशियन की पूरी टीम मिथिला एक्सप्रेस से मुजफ्फरपुर पहुंची। होटल में ठहराने की औकात तो थी नहीं, इसलिए सबको घर में ही टिकाया। सभी युवा और सहज दिखें, कोई टैबू नहीं। खाने-पीने में भी कोई खास फरमाइश नहीं, सिवा ‘डीम’ की फरमाइश के, वह भी कभी-काल कहते लेकिन रात को मूढ़ी के साथ रम की एक बोतल!
मुशहरी के सुधीर सहनी को हर लोकेशन पर जनरेटर की व्यवस्था का जिम्मा दिया हुआ था, उसे पुनः रिमाइंड कर एक जनरेटर घर के पास भी लगवाया, ताकि बिजली की आंख मिचौनी से बच सकूं। अपने पास सेकंड हैंड एक फिएट तो थी लेकिन एक और गाड़ी की व्यवस्था की, टेक्नीशियन और आर्टिस्टों के लिए। उसकी व्यवस्था कर अपनी गाड़ी के लिए भी एक ड्राइवर रखा ताकि समय पर वह भी सामान सहित लोगों को ला-ले जा सके।
सुबह सभी टेक्नीशियन तैयार हो गए तो सामान के साथ दोनों गाड़ी से उन सभी को मुजफ्फरपुर से करीब अठारह-उन्नीस किलोमीटर दूर कुढ़नी माइनर स्कूल वाले लोकेशन पर स्वाधीन दास और विवेक राव के साथ रवाना किया, जहाँ कभी खत्री जी शिक्षक हुआ करते थे। यह स्थल इसी स्कूल के एक शिक्षक गुप्तेश्वर प्रसाद के कारण उपलब्ध हो सका था। अफसोस कि आज वे दुनिया में नहीं हैं।
गाड़ी लौटी तो मैं भी कलाकारों के साथ कुढ़नी पहुंचा। साथ मेरा पुत्र कुशाग्र भी था, जो अयोध्या प्रसाद के बचपन का रोल कर रहा था। बचपन के कुछ दृश्य भी वहाँ फिल्माने थे। कलाकारों को तैयार करने के लिए ड्रेस मैन को हिदायत दी और कैमरामैन के साथ पूरे स्कूल का चक्कर लगाते उसे बताया कि किन जगहों पर शूट करना है ताकि वो अपनी तैयारी शुरू करे। स्कूल के मध्य स्थित बरगद का पेड़ दिखाते कैमरामैन को कहा कि यहाँ टाइटिल गीत फिल्माना है। यह ट्रॉली शॉट है। कैमरामैन अपने सहयोगियों को पटरियाँ बिछाने को कह लाइट मैन को रिफ्लेक्टर खोल लाइट सेट करने को कहता सुना।
फिल्म के इस टाइटिल सॉन्ग के रचनाकार राष्ट्रीय आन्दोलन में हिन्दी-प्रचार में अपना जीवन होम करने वाले बाढ़ निवासी कवि, नाटककार, अभिनेता ‘रामेश्वरी प्रसाद राम’ थें। इस गीत को पटना के दीपक कुमार ने संगीत में ढाला था। और भी कई स्वर उन्हीं के रिकॉर्डिंग स्टूडियो में रिकॉर्ड किया गया था, जिनमें बच्चों के स्वर में गाए गए पहाड़ा आदि तथा सीमा नंदा की आवाज़ में निराला की पंक्तियाँ “नव पर नव स्वर दे” था।
सेट तैयार हो गया तब ध्यान आया कि शूटिंग के लिए कुछ नन्हें बच्चों की जरूरत थी जिसे साथ लाने का होश नहीं रहा। इस काम में उसी स्कूल के शिक्षक ने मदद की और पास से ही कुछ बच्चों को बुलवा दिया। शूटिंग देखने वालों की भीड़ में से कुछ बच्चों को और चुन मेकअप और ड्रेसअप कराया। इस तरह यह दृश्य संपन्न हो सका।
शूटिंग स्थल पर लोगों के लिए खाना सुनील नंदा और पंकज हंडे मुजफ्फरपुर से लाते रहें। शूटिंग समाप्त कर हमलोग रात लौटने लगे तो विवेक राव ने पूछा कि मिडल और प्राइमरी स्कूल तो सुना था लेकिन यह ‘माइनर स्कूल’ का क्या मतलब? तो बताया कि उस वक्त शुरुआती क्लास प्राइमरी कहलाता था वह भी लोअर और अपर प्राइमरी, उसके बाद मिडल क्लास तब माइनर अर्थात एट और नाइंथ क्लास, इंट्रेंस उसके बाद। एट-नाइन क्लास पास व्यक्ति को भी तब सरकारी नौकरी मिल जाती थी।
दूसरे दिन हमलोग रघुनाथपुर में थे। सभी टेक्नीशियन का बांग्ला भाषी होने के कारण स्वाधीन दास मेरे और उनके बीच दुभाषिए बने रहें। कैमरामैन देवेन राय अपने हुनर में दक्ष था। मेरी भाषा न समझते हुए भी मेरे एक्सप्रेशन से ही बात समझ लेता और कैमरा उसी तरह संचालित करता कि मॉनिटर पर देखते हुए उसकी मन ही मन तारीफ़ करनी पड़ती। एक दिन स्वाधीन दास के नहीं रहने पर जब बेगम दुभासिया बनी तो चकित हो पूछा कि बांग्ला तुमने कब सीखी? के जवाब में बोली – “चैपमन स्कूल में बंगाली शिक्षिका के कारण। तुम तो घर की मुर्गी दाल बराबर भी नहीं समझते।” कुढ़ता उसकी बात पर चुप्पी साधे रहा। कारण यह भी था कि वही फिल्म के प्रोडक्शन मैनेजर का काम संभाल रही थी। प्रोडक्शन मैनेजर का काम कितना दुरूह और कष्टदायी होता है यह फिल्म मेकर ही जानता है। हींग से हरदी तक का जिम्मा उसी के सर होता है। किसी भी बात या वस्तु की कमी होने पर डायरेक्टर/प्रोड्यूसर उसी के मत्थे ठिकड़ा फोड़ता है। यहाँ तो जेब फटी थी तो प्रोडक्शन मैनेजर कहाँ से रखता! इसकी पूर्ति बेगम कर रही थी तो चुप्पी साधने के अलावा कोई चारा न था...।
जारी...