एक फिल्मकार का हलफ़नामा : भाग 3
गतांक से आगे…
लाइब्रेरियों से बैरंग वापस होने के बाद एक दिन साइबर कैफे गया यह सोचकर कि नेट पर गूगल बाबा से शायद कुछ अयोध्या प्रसाद खत्री के बारे में जानकारी मिल सके। मगर फिर वही ठनठन गोपाल! कोई जानकारी नहीं। जानकारी मिली तो अयोध्या की, अयोध्या विवाद की। बहुत कोशिश की, नाम आगे पीछे किया तो देवकीनंदन खत्री मिलें, किन्तु अयोध्या प्रसाद खत्री के बारे में गूगल बाबा भी अंतर्यामी नहीं निकले। बाबा गूगल बोले- ‘रे मूरख, यहाँ ओहि बात न मिलेगी जो लोग डाल जाते हैं।’ यह सुन अपना सा मुँह लटकाए लौटा।
तब ख़याल आया कि क्यों न एक अपील देशभर के साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और पत्रिकाओं को भेजी जाए ताकि खत्रीजी से संबंधित कुछ जानकारियां उपलब्ध हो सके। अपील तैयार कर 20 सितंबर 2004 को इसे जारी किया। अपील का मज़मून था –
“आदरेषु,
दो मत नहीं कि ‘हिन्दी’ आज विश्व के मानचित्र पर एक चमक के साथ अंकित हो रही है, किन्तु ‘हिन्दी’ के इस वर्तमान रूप की पृष्ठभूमि में इसे खड़ी बोली हिन्दी स्वरूप प्रदान करने एवं स्थापित करने में जिस व्यक्ति ने भागीरथी प्रयत्न किये उसका नाम अयोध्या प्रसाद खत्री है, किन्तु उन्हें उस दौर के समकालीन एवं तुरंत बाद की पीढ़ी के लेखकों, आलोचकों एवं इतिहासकारों ने हाशिये पर डाल दिया तथा वह स्थान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थें।
‘अयोध्या प्रसाद खत्री’ का जन्म 1857 ई. में उत्तरप्रदेश के सिकंदरपुर ग्राम (जिला- बलिया) में हुआ था। गदर से उत्पन्न अंग्रेजों के अत्याचार से क्षुब्ध हो उनके पिता जगजीवानल खत्री सपरिवार पलायन कर बिहार के मुजफ्फरपुर शहर आकर बस गए। यहीं अयोध्या प्रसाद खत्री पले, बढ़े और इसी स्थान को उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाया।
1887 ई. में उन्होंने इसी छोटे से शहर मुजफ्फरपुर से ‘गद्य और पद्य की भाषा एक हो’ – के आंदोलन का बिगुल फूंका, जिसकी अनुगूँज सम्पूर्ण भारत ही नहीं, इंग्लैंड में भी सुनी गई। अयोध्या प्रसाद खत्री विरोध-प्रतिरोध झेलते, जबाब देते, खंडन करते थके नहीं। लक्ष्य से डिगे नहीं। गौरतलब है कि 1903 ई. में खड़ी बोली हिन्दी को मान्यता मिल गयी और 1910 ई. आते-आते ब्रजभाषा काव्य रचना की स्वीकृति कम होती चली गयी और वह स्वतः सिमटती हुई पृष्टभूमि में चली गयी। ‘भारत-भारती’ का प्रकाशन 1912 ई. में हो चुका था।
हिन्दी काव्य को स्थापित करने वाले इस महान व्यक्तित्व को आज की युवा पीढ़ी अब भी सही तौर पर नहीं जान पाई है, जिसने हिन्दी के पीछे अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।
आज जबकि आगामी 04 जनवरी 2005 को उनकी पुण्यतिथि का 100 वां वर्ष ही नहीं पूरा होने जा रहा है बल्कि हिन्दी काव्य के स्वीकृति का भी लगभग 100 वर्ष हो रहा है। हम हिन्दी भाषा के इस महान योद्धा को विशेष तरीके से स्मरण करना चाहते हैं जिससे उनके योगदान /अवदान को सही रूप में रेखांकित किया जा सके। उनका सही एवं वास्तविक मूल्यांकन हो।
इस अवसर पर राष्ट्रीय स्तर के आयोजन की एक परिकल्पना हमने की है, जिसके अंतर्गत दो दिवसीय समारोह का आयोजन उनकी कर्मभूमि मुजफ्फरपुर में सुनिश्चित किया गया है। इसमें उनपर एक स्मारिका का प्रकाशन, लघु फिल्म का निर्माण, विचार गोष्ठी एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम इत्यादि शामिल है। (जिसकी विस्तृत सूचना अलग से दी जायेगी) ऐसे में आप सबों से अपील की जाती है कि यदि आप के पास अयोध्या प्रसाद खत्री से संबंधित कोई दस्तावेज, उनपर आलेख, उनसे या उनके या उनके परिजनों /सगे संबंधियों से संबंधित कोई चीज/जानकारी हो तो कृपया निम्नलिखित पता पर भेजने का कष्ट करें।
अतः सादर अनुरोध है कि आप आयें, खड़ी बोली हिन्दी की नई पहचान के 100 सौ वर्ष पूरे होने के पीछे सक्रिय इस समर्पित व्यक्ति को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने के हमारे इस अभियान /इस पहल के साझीदार बनें।
आप सबों का
वीरेन नंदा”
इस अपील की 500 प्रति छपवाई और देश भर की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं, लघु पत्रिकाओं, साहित्यकारों, और सुधिजन को भेजी तथा इसकी उतनी ही प्रतियाँ फोटोस्टेट कराकर नाट्यकर्मी संजीत किशोर के साथ भिन्न दिशाओं में जाने वाली ट्रेन की बोगी के बाहर और अंदर चिपकाता रहा। यह सोचकर कि किसी की तो नज़र पड़ेगी। मगर जा रे हिन्दी जगत ! कहीं से कोईयो जबाब नहीं ! देश भर से केवल दो पोस्टकार्ड ! एक राँची से श्री शिवशंकर मिश्र का 14-10-2004 का लिखा पोस्टकार्ड, – ” ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’- अपील मिली, और उस से भी बढ़कर यह जानकारी की आप लोग इस बड़े और जरूरी काम को करने की ठान चुके हैं, खासकर एक ऐसे वक्त में जब बाहर के बड़े-बड़े नाम हमें अपने ही घर के लोगों के बारे में उचित दृष्टिकोण अपनाने का अवसर कम ही दे रहे हैं। आप ने मुझे याद किया, आभारी हूँ।”
और पीलीभीत से 24-10- 2004 को भारतीय क्रांतिकारी इतिहास के तपस्वी लेखक सुधीर विद्यार्थी का लिखा पोस्टकार्ड, कि “आपकी ओर से भेजी गई ‘अपील’ प्राप्त हुई। मुझे यह जानकर अच्छा लगा कि आप खड़ी बोली के सूत्रधार अयोध्या प्रसाद खत्री जी के विस्तृत योगदान को सामने लाने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं। मुझे आप के इस पत्रक से ही पता लगा कि वे बलिया जिले के थे। मेरे लिए उनपर कोई आलेख आदि भेजना संभव नहीं होगा। पर आप के इस कार्य के प्रति मेरे मन में बहुत सम्मान है। मुजफ्फरपुर में होने वाले कार्यक्रम की सूचना यदि समय से प्राप्त हुई तो आने की कोशिश करूँगा।
मेरी पत्रिका “संदर्श” का अंक नवंबर तक आने को है, दिल्ली में छप रहा है। पहला प्रूफ देख चुका हूँ। गुंजाइश हुई तो आपके इस साहित्यिक अभियान की जानकारी उसमें जोड़ दूँगा।” अर्थात सार्थक पहल के लिए बधाईयां थी मगर जानकारी शून्य। वर्तमान साहित्य ने अपने नवम्बर 2004 अंक में इस अपील को छापकर अपना योगदान दिया। लेकिन और कहीं से न कोई खत, न कोई सूचना ! जो मेरे ज्ञान में इजाफा करता।
( जारी….)