हलफ़नामा

एक फिल्मकार का हलफ़नामा : 11

 

गतांक से आगे…

   संगीत संध्या कार्यक्रम पश्चात आगे की शूटिंग की योजना बनाने स्वाधीन दास के साथ बैठा और स्क्रीनप्ले के कुल दृश्यों (सीन्स) को कई भाग में इस तरह से बांटा ताकि पता चल सके कि एक दिन में कितने सीन की शूटिंग संपन्न की जा सकती है। इस बात पर विचार करते हुए सभी सीन की रूपरेखा तैयार की। लोकेशन के अनुसार स्क्रीनप्ले के सीन को अलग किया ताकि जिस किसी एक लोकेशन पर कई सीन फिल्मानी थी, उसे एक जगह किया। अर्थात सीन नंबर फलाँ-फलाँ रघुनाथपुर गाँव में, सीन न. फलाँ डुमरी में तो सीन… रहुआ, मानू बाबू की कोठी, अश्वनी खत्री की हवेली आदि-आदि। इस तरह सभी सीन को विभक्त करने के बाद प्रतिदिन होने वाली शूटिंग का हिसाब लगा सोचा कि यदि 12 घण्टे प्रतिदिन शूटिंग की जाए तो कितने दिन में  शूटिंग सम्पूर्ण होगी। हिसाब जोड़ का अंक आया- कम से कम बारह दिन। हमनें पंद्रह दिन तय किया। 

  अब आगे की दिशा तय करने के पूर्व अर्थ पक्ष देखना जरूरी हिस्सा था। इसी पर  सारी बात टिकी थी और इसके बिना तो एक कदम बढ़ना मुश्किल था। इसलिए जरूरी था कि दादा को कलकत्ता भेजूँ ताकि वहाँ जाकर वे कैमरा, लाइट, मेकअप, ड्रेसमैन तथा इक्विपमेंट्स आदि का रेट पता कर सकें। इसी पर सही अर्थ का अनुमान टिका था। दादा को कलकत्ता जाकर यह काम करना था, जिसमें हफ़्तों लग सकते थे। होटल का खर्च वहन करने की स्थिति नहीं थी। वहाँ के एक रिश्तेदार मुरली मनोहर खत्री, जो ‘बलराम द स्ट्रीट’ में रहते थे, को फोन कर सब बात बताई और कहा कि दादा को मैं भेज रहा हूँ, वे आपके यहाँ सिर्फ रुकेंगे। सुबह नहा-धोकर निकल जाएंगे, बाहर अपना चाय, नाश्ता-खाना करेंगे। आप केवल कुछ दिन उनके ठहरने का ठिकाना दे दें। वे सहर्ष तैयार हो गए तो दादा को रुपये दे रुख़सत किया।

  उनके जाने के बाद पंद्रह दिन चलने वाली शूटिंग का हिसाब लगाने बैठा। इस कार्य में जितने व्यक्ति लगने थें, उनके आने-जाने, रहने-खाने पर होने वाले व्यय के साथ-साथ अभिनेता-अभिनेत्रियों-सहयोगियों आदि पर होने वाले व्यय का एक अनुमानित हिसाब लगाया तो घर के सदस्यों को जोड़ करीब पचास व्यक्तियों के 15 दिनों की खाने की व्यवस्था (सुबह की चाय से लेकर नाश्ता, लंच, शाम की चाय और डिनर तक) का इंतज़ाम करना था। अनुज सुनील नंदा से बात की। उसने बताया कि बाजार से व्यवस्था करवाने पर एकदम साधारण दो वक्त का खाना, चाय, नाश्ता भी कम-से-कम साढ़े तीन-चार सौ प्रति व्यक्ति से कम नहीं पड़ेगा। इससे बेहतर है घर पर ही कुक रखकर बनवाया जाए। सस्ता भी पड़ेगा और खाना भी गर्म मिलेगा। मीनू भी रोज बदला जा सकेगा। चौथाई से भी कम खर्च में बेहतर खाना मिलेगा। सुनील का पंकज हंडे के साथ कैटरिंग का व्यवसाय था। उसने कहा जो एक्चुअल लगेगा वो अमाउंट दे देना। प्रॉफिट नहीं लूँगा। पचास आदमी का 15 दिन का मोटामोटी हिसाब तो समझ गया था। अब ज्यादा माथापच्ची करने की जगह उसे इस काम का जिम्मा सौंप इस ओर से निश्चिंत हो गया।

टेक्नीशियंस

   करीब दस दिनों के कलकत्ता प्रवास के बाद स्वाधीन दास लौटे तो उन्होंने बताया कि जैसा आप चाह रहे थे, वैसे लोग मिल गए है। कैमरा, लाइट, मेकअप आदि इक्विपमेंट्स के साथ-साथ ड्रेसमैन, मेकअपमैन, कैमरामैन और लाइटमैन सबका रेट उन्होंने दिया, जो बम्बई के रेट से लगभग आधा था। दादा बोलें कि सभी कम उम्र के लोग हैं। कुल सात टेक्नीशियन आएंगे सामानों के साथ। सातों के आने-जाने का टिकट और एडवांस पहले भेजना होगा या तो जाकर देना होगा।

    अब इस 15 दिन चलने वाली शूटिंग में जो कुल अनुमानित खर्च होना था और मेरे पास जो उपलब्ध अर्थ था, उसका कोई मेल नहीं था। पैसे का कैसे इंतज़ाम होगा इसी चिंता में कई दिन गुजर गए। दादा रोज मिलते और कहते कि उन्हें एडवांस कर डेट फिक्स कर लिया जाए। अब उन्हें क्या बताता कि यहाँ ‘झोरी में झांट न, सराय में डेरा’ कहावत से चरितार्थ हो रहा हूँ! इस उहापोह में  करीब बीस दिन और गुजर गए। कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। यदि शूटिंग शुरू कर भी दूँ तो बीच में ही लथर जाऊँगा और इज्जत पर बट्टा लगेगा अलग। 

   इसी उहापोह में था कि अचानक एक दिन, ‘बिल्ली के भाग से छींका टूटा’ वाली बात चरितार्थ होती दिखी। स्टेट बैंक का एक ऑफिसर द्वार खटखटा बोला – “एसबीआई होम फाइनेंस कंपनी लिमिटेड से आपने होम लोन लिया था।” मुझे लगा कि शायद किश्त के तगादे के लिए आया है, लेकिन उसने बताया कि कंपनी तो बंद हो गई, किन्तु उसके जितने भी पीए लोन थे, उसे हमारी एसबीआई ने टेकओवर कर लिया है। आप का लोन भी पीए था। पांच-छः हजार के करीब बकाया शेष रह गया है आपके नाम पर, यदि आप उसे चुकता कर दें तो आपके इस मकान पर रिपेयरिंग या एक्सटेंशन के लिए 4 से 5 लाख का लोन भी दे सकते हैं।” इस अँधे को क्या चाहिए था, दो आँखें!

     झट दूसरे दिन जाकर एसबीआई के ब्रांच में उस ऑफिसर से मिला। लोन का फाइनल हिसाब कर उसे चुकता किया। उन्होंने एक होम लोन का एप्लीकेशन फॉर्म थमाते जरूरी कागज़ात के साथ अप्लाई करने को कहा। मकान का नक्शा और जमीन के कागज़ात तो उनके पास थे हीं। उन्होंने अद्यतन मालगुजारी रशीद और एस्टीमेट कॉस्ट बनवाने को कहा। एस्टीमेट बनाने के लिए एक इंजीनियर को पैसे दे मालगुजारी रशीद कटवाने गया तो साले कर्मचारी ने नानी याद दिला दी। मिलता ही नहीं, जहाँ ऑफिस रखे था, वो मेरे घर के बहुत पास ही था लेकिन कभी खुलता ही नहीं! ऑफिस के बगल वाले एक सीमेंट दुकानदार ने बताया कि मंगल को सीओ ऑफिस में जाकर पता करिए, वहीं मिलेगा। मुशहरी अंचल में कर्मचारी की खोज की तो एक परिचित व्यक्ति ने दलाल से भेंट करा कहा- ‘इसे तीन सौ टका के साथ पिछले रशीद की कॉपी दे दीजिए। कल शाम तक यह आप के पास पहुँच जाएगा।’ लेकिन काहे को शाम को वो मिलता! कई दिन दौड़ने के बाद अंततः सफलता हाथ आई। इस तरह पंद्रह दिन झोंका गया इस काम के पूरा होने तक।

कुढ़नी स्कूल और सुनील नंदा

     खुशी-खुशी सभी कागज़ात के साथ जब बैंक जाकर उस ऑफिसर को एप्लीकेशन थमाया तो उन्होंने निरीक्षण कर कहा कि इसमें बेग़म को भी को-बोरोवर बनाना होगा। उनका फोटो, आईडी, पैन और सिग्नेचर भी इस फॉर्म के साथ चाहिए। दूसरे दिन यह सब कर-करा कर सौंपते हुए पूछा कि कब आएं? तीन दिन बाद। तीन दिन बाद मिला तो उन्होंने बताया आपका चार लाख लोन सैंक्शन हुआ है। मैंने कहा कि पाँच के लिए आवेदन किया था। तो उन्होंने बताया कि आप पाँच लाख का एस्टीमेट बनवा कर दिए हैं। उसका एट्टी परसेंट ही लोन सैंक्शन हो सकता है। ‘तो अब कबतक अमाउंट मुझे देंगे?’ – मेरे उतावलेपन पर एक एकाउंट ओपनिंग फॉर्म थमाते कहा कि पहले वाइफ के साथ ज्वाइंट एकाउंट खोलें, तब न अमाउंट ट्रांसफर की बात होगी। जल्दी घर भागा और फॉर्म भर-भूर, फोटो साट-सूट, बेगम से दस्तखत करा-कुरु, आईडी, पैन ले मोटरसाइकिल स्टार्ट की। अघोरिया बाजार में जाम के कारण समय पर पहुँच नहीं पाया तो यह कार्य दूसरे दिन पर टल गया। दूसरे दिन एकाउंट खुला तो ऑफिसर ने एक डॉक्यूमेंट थमाते कहा कि इसपर 900 रुपये का नॉन जुडिशल स्टाम्प साट कर ले आएं। कचहरी में यह स्टाम्प लेने में दो दिन लग गए। जब स्टाम्प साट कर ले गया तो उक्त ऑफिसर ने दो घण्टे के बाद एक चिट्ठी के साथ स्टाम्प सटा वह डॉक्यूमेंट देते कहा कि इसे कचहरी जाकर ‘एम्बोस’ करा लाएं। पूछा कि कहाँ से? तो बोले-  ‘चिट्ठी में लिखा है। वहाँ के चपरासी को पचास रुपये के साथ इसे दे देंगे। वह कल आपको एम्बोस कराकर दे देगा’। चिट्ठी खोल पता देख कचहरी दौड़ा।

  दूसरे दिन एम्बोस डॉक्यूमेंट बैंक ऑफिसर को सौंपा तो बोले- “दो दिन मैं छुट्टी पर जा रहा। साली की शादी में, शनिवार को लौटूंगा। मंडे को आप वाइफ के साथ आ जाएं। आप दोनों का लोन पेपर पर सिग्नेचर लेना है, उसके बाद ब्रांच मैनेजर के अप्रूव करते हीं आपके खाते में लोन ट्रांसफर हो जायेगा।

    करीब एक महीने की मशक़्क़त के बाद अंततः मेरा खाता हरियाया तो मैं भी हरिया गया। यह सब होते-होते मई समाप्त हो गया। अब शूटिंग स्टार्ट करने के लिए दादा से बात करते आशंका जाहिर की, कि जुलाई में शूटिंग होने पर कहीं बारिश होने लगे तो काफी नुकसान  होगा और काम भी पूरा नहीं हो पायेगा। दादा बोले कि मैं भी यह कई दिनों से सोच रहा था लेकिन मनीषा दत्ता से बात हुई तो उन्होंने कहा कि जुलाई में इतनी बारिश नहीं होती है, शूटिंग की जा सकती है। आश्वस्त हो दादा को रुपये देकर कलकत्ता भेजा कि सभी को एडवांस कर शुरू जुलाई का डेट ले लें। स्वाधीन दा कलकत्ता कूच कर गए।

     रात बेग़म पूछी- “फिल्म पूरी हो जाएगी न? अबतक इतने लाख खर्च कर चुके हैं लेकिन…।” मैं क्रोध से उबल पड़ा- “तुम को क्या लगता है? नहीं कर पाऊँगा? ये मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट है, इसे पूरा करके ही दम लूँगा।” 

“ड्रीम प्रोजेक्ट तो खुदीराम बोस भी था!” – बेग़म बोली तो चिढ़कर उसे कहा- “था ही नहीं, है। लेकिन उसके बारे में बाद में सोचूँगा। और वह बहुत खर्चीला प्रोजेक्ट भी है, मेरे अकेले… कूवत से बाहर का प्रोजेक्ट है, बिना किसी फिनांसर के वह संभव नहीं। अभी तो दिमाग में सिर्फ और सिर्फ खत्री जी घूम रहे हैं। सोते, जागते, उठते, बैठते वही दिखते हैं। वैसे यह प्रोजेक्ट भी अपने बस की बात तो थी नहीं। बस जुनून…  देखो आगे क्या होता है…..।”

  जारी...

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वीरेन नन्दा

लेखक वरिष्ठ कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। सम्पर्क +919835238170, virenanda123@gmail.com .
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