सीता की उत्तरकथा
सीता भारतीय संस्कृति की एक ऐसी मिथकीय पात्र हैं लोकजीवन में जिनकी व्याप्ति काफी दूर तक है। इतनी कि कथाजगत से परे जाकर वे व्यक्तित्व की सरहदों में भी प्रवेश कर जाती हैं और स्त्रियों के लिए मानक बन जाती हैं। आज भी स्त्रियों के चरित्र के रेखाचित्र इसीके इर्द-गिर्द निर्मित होते हैं। ऐसे में सीता एक चरित्र मात्र नहीं रह जातीं, वे स्त्री और संस्कृति की अन्तर्क्रिया का साक्ष्य बन जाती हैं।
महाकाव्य एक सामन्ती विधा है और सामन्तवाद तथा पितृसत्ता में गठजोड़ होता है। महाकाव्यों में चित्रित राम का व्यक्तित्व मर्यादा पुरुषोत्तम का है। आदर्श और मर्यादा में बँधा हुआ है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि राम कहीं भी पितृसत्ता की सीमाओं का उल्लंघन नहीं करते। राम ने बँधी-बँधायी लकीर पर चलना ही पसन्द किया, अपनी तरफ से कोई नयी लकीर नहीं बनायी। मर्यादा में बँधा व्यक्ति कभी नयी लकीर नहीं खींच सकता। चाहे वह राम हों, वाल्मीकि हों, तुलसी हों या गाँधी – स्त्री के प्रति इनकी संवेदना सीमा का अतिक्रमण कर नवीन लकीर नहीं खींच पाती!
इसलिए यह अकारण ही नहीं है कि इन महाकाव्यों में स्त्री एक ऐसी छवि के रूप में उपस्थित है जिसे पितृसत्ता के संस्कारों ने गढ़ा है। यहाँ जो स्त्री है वह पितृसत्ता के संस्कारों में ढ़ली एक ऐसी स्त्री है जिसकी अपनी कोई इयत्ता नहीं है। पितृसत्ता ने जो छद्म रचते हुए स्त्री का अनुकूलन किया है, उसका ही साकार रूप महाकाव्यों के स्त्री पात्रों में देखने को मिलता है। बल्कि इस अनुकूलन को रचने में इन महाकाव्यों ने बड़ी भूमिका निभायी। इसलिए यहाँ हाड़-मांस की स्त्री की जगह एक विशिष्ट ढाँचे में ढ़ली हुई स्त्री दिखलाई पड़ती है।
लोकगीतों की परम्परा
इन महाकाव्यों के समानांतर लोकगीतों की परम्परा चलती है। लोकगीतों की सीता की कथा वहीं से शुरू होती है जहाँ से इन महाकाव्यों की कथा समाप्त होती है। यहाँ सीता की वह मर्मवेदना अभिव्यक्त हुई है जिसे सुनने और समझने को पुरुष रचनाकार प्रस्तुत नहीं थे।
भोजपुरी, बज्जिका और मैथिली संस्कार गीतों में कई जगह राम और सीता की उत्तरकथा मिलती है। व्याकरणिक रूपों में थोड़े से बदलाव के साथ ये गीत तीनों बोलियों में समान रूप से मिलते हैं। इन गीतों में सिया दुलारी का स्त्री मन छलका पड़ा है। सीता का यह मौन अगर कहीं मुखरित है तो लोकगीतों में। एक व्यक्ति के रूप में सीता के स्वाभिमान को सही अर्थों में इन गीतों ने ही सहेजा है।
लक्ष्मण द्वारा राम के आदेश से वन में छोड़कर चले जाने के बाद सीता कलप रही हैं। ऐसे में वनदेवी उन्हें आश्रय देती हैं। एक दिन पुत्रों का जन्म होता है। वे अयोध्या में अपने पुत्रों के जन्म का संदेश भिजवाती हैं देवर लक्ष्मण को, पर राम को संदेश देने से मना करती हैं –
‘‘पहिले कहब राजा दसरथ, तखन कोसिला रानी रे
ललना, तखन कहब लछुमन देओरा, राम जनि सूनथि रे’’
एक लोकगीत है जिसमें राम सीता को पुराना सबकुछ भूलकर अयोध्या लौट आने के लिए पत्र लिखते हैं। लोकगीतों की सीता राम को क्षमा नहीं करती हैं, वे अयोध्या वापस आने से मना कर देती हैं।
यज्ञ का आयोजन
राम यज्ञ का आयोजन करते हैं। पर बिना अर्धांगिनी के भला यज्ञ कैसे पूरा हो! महाकाव्यों में राम द्वारा सीता की स्वर्ण मूर्ति स्थापित करने की चर्चा आती है। पर लोकगीत दूसरा ही पक्ष रखते हैं जो रामकथा के मानवीय पक्ष को सामने रखता है। वे जानते हैं कि सीता उनके बुलाने से नहीं आयेंगी। इसलिए कौशल्या सीता को बुलाने के लिए गुरु को भेजती हैं क्योंकि सीता के लिए गुरु की आज्ञा को टालना कठिन होगा।
गुरु वशिष्ठ मुनि लक्ष्मण के साथ वन में जाते हैं। लोकगीत में इस प्रसंग का बड़ा मार्मिक चित्रण मिलता है। सीता कुटिया में बैठी अपने लम्बे केश बुहार रही हैं इतने में गुरु आते दिखते हैं। वे गुरु का पूरे शिष्टाचार के साथ आवभगत करती हैं जिसे देखकर गुरु कहते हैं कि तुम तो गुण की और शिष्टाचार की खान हो, फिर अयोध्या क्यों नहीं लौट चलती हो।
जिस राम के लिए सीता महल के सुख त्याग कर नंगे पाँव वन के पथरीली राह पर चल पड़ी थीं, रावण का साहस से सामना किया था, वही एक कोरे अपवाद के चलते नेह के बंधन को एक सिरे से तोड़ डालता है। जिस अवस्था में स्त्री को सम्बल की आवश्यकता होती है, उस अवस्था में राम निर्मम होकर उन्हें वन के असुरक्षित परिवेश में भेज देते हैं। वन में एकाकी बच्चों को जन्म देना पड़ता है और पालन पोषण करना पड़ता है। वह सब क्या इतनी आसानी से भुलाया जा सकता है। सीता किसी भी कीमत पर यह सब भूलने को तैयार नहीं हैं। गुरु के वचन का मान रखने के लिए वे अयोध्या की तरफ दस कदम बढ़ाती हैं और पुनः लौट आती हैं –
‘‘मानबि ए गुरुजी मानबि, गुरु के बतिया राखबि हो
ए गुरुजी, पांच डेग अजोधिया में जाइबि, फेरु चलि आइबि हो’’
सीता के मौन में निहित वेदना और स्वाभिमान को कविगण लक्षित नहीं कर पाये, लोकगीत मे इसकी अभिव्यंजना देखी जा सकती है –
‘‘सीता अंखिया में भरली विरोग एकटक देखिन हो
सीता धरती में गयी समाय कुछौ नहिं बोलिन हो’’
सीता के शील, प्रतिरोध और स्वाभिमान का जो वर्णन इन लोकगीतों में हुआ है, वह अपनी मार्मिकता में अद्भुत है। सीता को वन भेजकर महाकवि मौन हो जाते हैं। पर स्त्री मानस में सीता की यह मर्मकथा सदियों से अंकित है। कोई महाकवि सीता के इस मर्म तक नहीं पहुँच पाया है।