सावर्जनिक और निजी शिक्षा के भँवर में “शिक्षा अधिकार कानून”
- जावेद अनीस
शिक्षा अधिकार अधिनियम भारत की संसद द्वारा पारित ऐसा कानून है जो 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों के शिक्षा की जिम्मेदारी लेता है। 1 अप्रैल 2010 में पारित हुए इस कानून के बाद पूरे एक दशक का दौर पूरा हो चुका है। उम्मीद थी कि इसके लागू होने के बाद देश के सभी बच्चों को अच्छी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सकेगी। लेकिन दस साल पूरे होने के बाद इसे लागू करने में बरती गयी कोताहियों के अलावा खुद अपनी खामियों और अन्तर्विरोधों के चलते इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिले सके हैं। उलटे पिछले दस वर्षों के दौरान भारत में सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था की छवि और कमजोर हुई है, इन्हें केवल डाटा भरने और मध्यान भोजन उपलब्ध कराने के केन्द्र के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
कैसे फैलेगा शिक्षा का उजियारा
इसके बरक्स प्राइवेट स्कूल और मजबूत विकल्प के तौर पर उभरे हैं जिनके बारे में यह धारणा और मजबूत हुई है कि वहाँ “अच्छी शिक्षा” मिलती है। दरअसल शिक्षा का अधिकार अधिनियम की परिकल्पना ही अपने आप में बहुत सीमित है, यह अपने मूल स्वरूप में ही दोहरी शिक्षा व्यवस्था को स्वीकार करती है। इसके बनावट में सरकारी और प्राईवेट स्कूलों का विभेद निहित है। इस कानून में बहुत बारीकी से प्राइवेट स्कूलों के श्रेष्ठ होने के सन्देश समाहित हैं। शिक्षा अधिकार कानून की दूसरी सबसे बड़ी सीमा है कि यह अपने चरित्र और व्यवहार में सिर्फ गरीब और वंचित तबके से आने वाले भारतीयों का कानून है जो शिक्षा में समानता के सिद्धान्त के बिलकुल उलट है।
आरटीई एक कन्फ्यूज्ड अधिकार है जो एक साथ निजी और सरकारी दोनों में शिक्षा के अधिकार की बात करता है। शिक्षा अधिकार अधिनियम की धारा 12 (1) (सी) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में 6 से 14 साल की आयु वर्ग के आर्थिक रूप से कमज़ोर और वंचित समुदायों के बच्चों के लिये 25 प्रतिशत सीटों को आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया है जिसका खर्च सरकार उठाती है।
निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण का यह प्रावधान मध्यवर्ग के बाद गरीब और वंचित वर्गों के लोगों का सरकाई स्कूलों के प्रति भरोसा तोड़ने वाला कदम साबित हो रहा है। मध्यवर्ग ने एक पीढ़ी पहले ही सरकारी स्कूल छोड़ दिये थे लेकिन अब निजी स्कूलों में आरटीई के 25 प्रतिशत सीटों का विकल्प मिलने के बाद गरीब भी ऐसा कर रहे हैं। यह प्रावधान एक तरह से शिक्षा के बाजारीकरण में मददगार साबित हुआ है। इससे सरकारी शालाओं में पहले से पढ़ने वालों की भागदौड़ भी अब प्राइवेट स्कूलों की की तरफ हो गयी।
शिक्षा और ज्ञान
इस प्रावधान ने आर्थिक स्थिति से कमजोर परिवारों को भी निजी स्कूलों की तरफ जाने को प्रेरित किया है। लन्दन के इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन की प्रोफेसर गीता गाँधी किंगडन द्वारा किये गये विश्लेषण के अनुसार साल 2010 से 2016 के दौरान भारत में सरकारी स्कूलों में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 1।3 करोड़ की कमी हुई है जबकि इसी दौरान निजी स्कूलों में 1।75 करोड़ नये छात्रों ने प्रवेश लिया है। इस दौरान देश में निजी स्कूलों की संख्या में भी भारी वृद्धी हुई है जिनमें से अधिकतर आरटीई कोटे 25 प्रतिशत सीटों के लिये सरकार से फण्ड लेने के लालच में खुले हैं।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले अभिभावकों में निजी स्कूलों के प्रति आकर्षण नहीं था। शिक्षा अधिकार कानून से पहले ही निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाना स्टेटस सिम्बल बन चुका था लेकिन उक्त प्रावधान का सबसे बड़ा सन्देश यह जा रहा है कि सरकारी स्कूलों से अच्छी शिक्षा निजी स्कूलों में दी जा रही है इसलिए सरकार भी बच्चों को वहाँ भेजने को प्रोत्साहित कर रही है। इस प्रावधान ने पहले से कमतर शिक्षा का आरोप झेल रहे सरकारी स्कूलों पर सरकारी मुहर लगाने का काम किया है। पिछले दस वर्षों के दौरान यह प्रावधान सरकारी स्कूलों के लिए भस्मासुर साबित हुआ है। यह कानून तेजी के साथ उभरे मध्यवर्ग और समाज की गतिशीलता के साथ तालमेल बिठाने में नाकाम रहा है। इसने सरकारी स्कूलों को केवल गरीब और वंचित समुदायों के लिये एक प्रकार से आरक्षित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
इस देश में पिछले कई दशकों से बहुत ही सोच-समझ कर चलाई गयी प्रक्रिया के तहत लोगों के दिमाग में इस बात को बहुत ही मजबूती के साथ बैठा दिया गया है कि निजी स्कूलों में बच्चों को मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता सरकारी स्कूलों से कहीं अधिक अच्छी होती है और शिक्षा के निजीकरण को एक बेहतर विकल्प के तौर पर पेश किया गया है। दुर्भाग्य से भारत में शिक्षा अधिकार कानून लागू होने के बाद से शिक्षा व्यापार और तेजी से फैला है। सेंटर फार सिविल सोसाइटी द्वारा 2018 में प्रकाशित रिपोर्ट “फेसेस ऑफ बजट प्राइवेट स्कूल इन इण्डिया” के अनुसार भारत में लगभग 55 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूलों में नामांकित हैं जबकि निजी स्कूलों दाखिल बच्चों की संख्या 43 प्रतिशत हो गयी है।
शिक्षा, स्वास्थ्य और देश
इस दौरान गाहे बगाहे सरकारी स्कूलों को कम्पनियों को ठेके पर देने या पीपीपी मोड पर चलाने की चर्चाएँ भी लगातार चलती रही हैं।
सामाजिक न्याय के अस्पताल में शिक्षा की शव-परीक्षा
शिक्षा को सशक्तिकरण का सबसे ताकतवर हथियार माना जाता है खासकर उन समुदायों के आगे बढ़ने के लिए जो सदियों से हाशिये पर रहे हैं। वे शिक्षा को “खरीद” नहीं सकते हैं लेकिन अब उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर किया जा रहा है। शिक्षा का पूरी तरह से निजीकरण उनके लिये सभी रास्ते बन्द कर देने के समान होगा। अपने सभी नागरिकों को समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देना किसी भी सरकार का पहला दायित्व होना चाहिए। अपने सीमित अर्थों में भी आरटीई एक ऐसा कानून है जो भारत के 6 से 14 साल के हर बच्चे की संवैधानिक जिम्मेदारी राज्य पर डालता है लेकिन आधे अधूरे और भ्रामक शिक्षा की गारन्टी से बात नहीं बनने वाली है। अब इस कानून के दायरे बढ़ाने की जरूरत है। सबसे पहले इस कानून की सीमाओं को दूर करना होगा जो इसे भस्मासुर बनाते हैं।
प्रारूप राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 में शिक्षा के अधिकार कानून की समीक्षा की बात भी की गयी है तथा इस कानून की धारा 12(1) सी में सभी निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें निर्धन बच्चों के लिए आरक्षित करने के कानून को भ्रष्टाचार का कारण बताते हुए इस धन को सार्वजनिक शिक्षा में खर्च करने की अनुसंशा की गयी है। लेकिन सिर्फ इसी से काम नहीं चलेगा इसके साथ सावर्जनिक शिक्षा व्यवस्था की मजबूती के लिए कुछ बड़े और ठोस कदम उठाने होंगे, इसके साथ ही शिक्षा के निजीकरण की प्रक्रिया पर भी रोक लगाना होगा तभी हम इस देश के सभी बच्चों को को वास्तविक अर्थों में समान और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले अधिनियम की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं|
सम्पर्क- +919424401459, javed4media@gmail.com
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