कैसे फैलेगा शिक्षा का उजियारा
बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ जैसे नारे गाँवों तक तो पहुँच गए, लेकिन शिक्षा नहीं पहुँची। ऐसे देश में जहाँ शिक्षा बच्चों का मूल अधिकार है, वहाँ हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियों का होना शर्म की बात है। शिक्षा के लिए जद्दोजहद करती ग्रामीण बालिकाएँ बड़ी मुश्किल से यदि स्कूल जाने भी लगें, तो भी अपने परिवेश और पारिवारिक हालात उन्हें शिक्षा से दूर करने में अहम भूमिका निभाते हैं। देश के 78 लाख बच्चों को पढ़ाई के साथ कमाई करनी पड़ती है, वहीं 8.4 करोड़ बच्चे आज भी स्कूलों से वंचित हैं। विभिन्न आंकड़े और रपट कहती हैं कि शिक्षा के मामले में सबसे खराब स्थिति उत्तर प्रदेश की है, जहाँ 16 लाख बच्चों तक शिक्षा की रोशनी नहीं पहुँचायी जा सकी है। स्कूल जाने वाले बच्चों में भी 59 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो ठीक से पढ़ नहीं पाते हैं।
2013 में मानव विकास मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में 5वीं तक आते-आते करीब 23 लाख छात्र-छात्राएँ स्कूल छोड़ देते हैं। लगभग एक तिहाई सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालयों की सुविधा नहीं है, जिस कारण से वे स्कूल छोड़ रही हैं। भारत में लड़कियों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर देना ज्यादा जरूरी है, क्योंकि 22 लाख से भी ज्यादा लड़कियों की शादी कम उम्र में कर दी जाती है। ऐसे में उनका स्कूल छूटना स्वाभाविक है।
शिक्षा सहित लड़कियों के अन्य मुद्दों पर भी समाज को जागरूक करना होगा। खासतौर पर ग्रामीण समाज को। हमारे देश में शिक्षा की हालत बदतर है। ग्रामीण क्षेत्रों में हालात और भी भयानक हैं। इस मामले में सबसे खराब स्थिति लड़कियों की शिक्षा को लेकर है। यह आंकड़े यूनिसेफ की वार्षिक रिपोर्ट द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रन ने जारी किए हैं।
ग्रामीण भारत में कुछ सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बहुत ज्यादा है, जिससे छात्रों और शिक्षकों का अनुपात बिगड़ जाता है। पाँच दिसम्बर 2016 को मानव संसाधन विकास मन्त्री द्वारा लोकसभा में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार देशभर के प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों के 18 प्रतिशत पद और माध्यमिक स्कूलों में 15 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं। मसलन सरकारी स्कूलों में शिक्षक के छह पदों में से एक पद खाली है यानी करीब 10 लाख शिक्षकों की सामूहिक रूप से भारी कमी है। वहीं भारत के 2600 लाख स्कूली बच्चों में से 55 प्रतिशत बच्चे सरकारी स्कूल जाते हैं।
शिक्षकों की कमी झेलते हजारों स्कूलों के पास शौचालय तो क्या क्लास रूम तक नहीं है। देश में अभी भी करीब 1,800 स्कूल पेड़ के नीचे या टेंटों में चल रहे हैं। सैम्पल रजिस्ट्रेशन सिस्टम बेसलाइन सर्वे 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 15 से 17 साल की लगभग 16 प्रतिशत लड़कियाँ बीच में ही स्कूल छोड़ देती हैं। गुजरात इस मामले में देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है। गुजरात में 15 से 17 साल की 26.6 प्रतिशत लड़कियाँ किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ देती हैं।
इसका मतलब यह है कि राज्य में 26.6 प्रतिशत लड़कियाँ 9वीं और 10वीं कक्षा तक भी नहीं पहुँच पाती हैं। छत्तीसगढ़ में 15 से 17 साल की 90.1 प्रतिशत लड़कियाँ स्कूल जा रही हैं, जबकि असम में यह आंकड़ा 84.8 प्रतिशत है। बिहार भी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा पीछे नहीं है। यहाँ यह आंकड़ा 83.3 प्रतिशत है। झारखण्ड में 84.1 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 79.2 प्रतिशत, यूपी में 79.4 प्रतिशत और ओडिशा में 75.3 प्रतिशत लड़कियाँ हाई स्कूल के पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं। अगर 10 से 14 साल की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो इसमें गुजरात सबसे निचले पाँच राज्यों में आता है।
करीब 1.2 करोड़ भारतीय बच्चों का विवाह दस वर्ष की आयु से पहले हो जाता है। इनमें से 65 प्रतिशत कम उम्र की लड़कियाँ हैं और बाल विवाह किए गए हर 10 अशिक्षित बच्चों में से 8 लड़कियाँ होती हैं। प्रति 1,000 पुरुषों की तुलना में कम से कम 1,403 ऐसी महिलाएँ हैं, जो कभी स्कूल नहीं गयीं। भारत के पाँच राज्य तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में महिला साक्षरता की दर सबसे ऊँची है। इन्हीं राज्यों में महिला उद्यमियों की संख्या भी सबसे ज्यादा है।
आर्थिक जनगणना के अनुसार देशभर में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे कारोबार में इन पाँच राज्यों की 53 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। तमिलनाडु में शिक्षित महिलाओं की संख्या 73.4 प्रतिशत है। करीब 10 लाख व्यापारिक इकाइयाँ यहाँ महिलाओं के द्वारा चलाई जाती हैं, जो देशभर में महिलाओं द्वारा चलाए जा रहे व्यापार में सबसे अधिक है। वहीं केरल का दूसरा स्थान है। यहाँ भारत की सबसे ज्यादा शिक्षित महिला आबादी है। यहाँ 90 प्रतिशत महिलाएँ साक्षर हैं और व्यापार की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत है।
शिक्षा को लेकर सरकार के प्रयासों में भले कमी रही हो, लेकिन सरकारी अभियानों से शिक्षा की स्थिति में सुधार आया है। खासतौर पर सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी है। शिक्षा के अधिकार का कानून लागू करने के बाद प्राथमिक शिक्षा के लिए होने वाले नामांकनों में वृद्धि दर्ज की गयी है। इसके अलावा स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या में भी लगातार गिरावट आ रही है।
वर्ष 2009 में 6 से 13 वर्ष की उम्र के स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों की संख्या लगभग 80 लाख थी, जबकि पाँच साल बाद यानी 2014 में यह घटकर 60 लाख रह गयी है। 2014 में 3 से 6 वर्ष की उम्र के बीच के 7.4 करोड़ बच्चों में से लगभग 2 करोड़ बच्चे किसी तरह की प्री-स्कूल शिक्षा नहीं ग्रहण कर रहे थे। सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी के चलते लोग निजी स्कूलों की तरफ रुख कर रहे हैं। शिक्षकों की कमी झेलते हजारों स्कूलों के पास शौचालय तो क्या क्लास रूम तक नहीं हैं।
यूनिसेफ की गुडविल एम्बेसडर प्रियंका चोपड़ा का कहना है कि जब तक लोग लड़के और लड़की में भेदभाव खत्म नहीं करेंगे, तब तक इस स्थिति में बदलाव नहीं आएगा। उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा सहित अन्य राज्यों के प्रत्येक गाँव में स्कूल ही नहीं हैं यानी पढऩे के लिए छात्रों को दूसरे गाँव जाना पड़ता है। इसके चलते माता-पिता अपनी बेटियों को स्कूल नहीं भेज पाते और भारत में ग्रामीण शिक्षा विफल रह जाती है। गरीबी भी एक बाधा है।
सरकारी स्कूलों की हालत अच्छी नहीं है और निजी स्कूल बहुत महंगे हैं। इसका नतीजा यह रहता है कि माध्यमिक शिक्षा में सफल रहकर आगे पढऩे के लिए कॉलेज जाने वाले छात्रों की संख्या कम हो जाती है, इसलिए गाँवों में माध्यमिक स्तर पर ड्रॉप आउट दर बहुत ज्यादा है। भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाने की नींव प्राथमिक और ग्रामीण स्तर पर रखना जरूरी है, ताकि शुरू से ही शिक्षा का स्तर बेहतर हो। मुफ्त शिक्षा के बजाय ड्रॉप आउट के पीछे की वजह जाननी चाहिए, जो कि प्रगति के रास्ते में एक बड़ी बाधा है।
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