अविजित पाठक ने वाजिब सवाल उठाया है कि मल्टीप्ल च्वॉयस क्वेश्चन की ऑब्जेक्टिव प्रणाली (MCQ प्रणाली) ने ज्ञान के रास्ते को अपूरणीय क्षति पहुँचायी है। सारा ज्ञान एक प्रश्न और चार उत्तर के विकल्प में सिमट गया है। 99% और 100% अंक लाने वाले बच्चे उच्च शिक्षा में प्रवेश के लिए धक्के खाते हैं और अपने ही समाज के वंचितों को (आरक्षण के कारण) अपना दुश्मन समझते हैं।
इस MCQ प्रणाली से तार्किक चिंतन की जगह ख़त्म हो गयी है। कोचिंग सेंटर, गाइड बुक का व्यवसाय खूब फला-फूला है। समझदारी और ज्ञान की जगह रणनीति ही सफलता की कुंजी हो गयी है। सफलता तो मिलती है पर सीखने का सुख और प्रयोग का आनंद जाता रहा।
इस सफलता-पोषक शिक्षा ने जैसे विशेषज्ञ दिये हैं, उनमें न सामाजिक विवेक है, न राजनीतिक बुद्धि और न ही सांस्कृतिक चेतना। ये विशेषज्ञ सफलता के नशे में चूर नितांत स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होते हैं। वर्तमान क्रूरता को वे नैतिक समर्थन देते हैं। वे अमरीकी जीवन मूल्यों के अंधभक्त होते हैं। वे हमारे दौर में फ़ासिज़्म का सामाजिक आधार तैयार करते हैं।
अफ़सोस यह है कि किसी राजनीतिक दल को या किसी लेखक संगठन को या किसी समाजसेवी को या अन्य किसी सार्वजनिक संगठन को इसकी चिंता नहीं है। सरकार नयी शिक्षा नीति ला रही है। वैज्ञानिक कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में बनी समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। उसे आरएसएस के शिक्षा संबंधी संगठनों ने जाँच-परख लिया है। उसमें कक्षा पाँच तक मातृभाषा के नामपर अवधी-भोजपुरी-मैथिली में पढा़ने का सुझाव है, आठवीं तक पूरे देश में हिंदी अनिवार्य करने का प्रस्ताव है, सीनियर सेकेंडरी तक गणित और विज्ञान का एक ही अखिल भारतीय पाठयक्रम चलाने का निर्देश है; लेकिन यह सब MCQ प्रणाली से होगा या विश्लेषण की पद्धति है, इसका ज़िक्र नहीं है।
शिक्षा नीति के उक्त प्रस्तावों के बारे में अलग से विचार हो सकता है। मेरी समझ से, यदि हिंदी पूरे देश में अनिवार्य की जाय तो गलत नहीं है; उसके साथ उत्तर भारत में एक दक्षिण भारतीय भाषा भी अवश्य पढ़ाई जाय। इसी प्रकार अन्य प्रस्तावों पर भी हम सबकी राय हो सकती है। लेकिन यहाँ विचार का विषय MCQ प्रणाली है।
यह MCQ प्रणाली कॉर्पोरेट युग के पूँजीवाद का शैक्षणिक दर्शन है। इस दौर का आर्थिक मंत्र है—कम लागत, अधिक मुनाफ़ा-तुरंत मुनाफ़ा! किसी तरह के सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रश्न नहीं है। इस दौर का सामाजिक मंत्र है—कम परिश्रम, अधिक प्राप्ति, किसी भी क़ीमत पर प्राप्ति! किसी तरह के नैतिक आचरण का प्रश्न नहीं है। यही बात शिक्षा पर लागू होती है। बड़ी सफलता के लिए न्यूनतम परिश्रम, बस अधिकतम अंक चाहिए! यह अंधी होड़ है जो कॉर्पोरेट पूँजीवाद का लक्षण है, जिसमें ज्ञान, नैतिकता, सामाजिक दायित्व और नागरिक चेतना सब अपने स्वार्थ से परिभाषित होते हैं।

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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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