छः कविताएँ : विहाग वैभव
नाम : विहाग वैभव
जन्म : 30 अगस्त 1994, जौनपुर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से पीएचडी
‘मोर्चे पर विदागीत’ कविता संग्रह प्रकाशित
हिन्दी की लगभग सभी चर्चित पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित।
पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी परास्नातक के कोर्स में ‘प्रचलित परिभाषाओं के बाहर महामारी’
शृंखला की कविताएँ सम्मिलित।
मराठी, बांग्ला, असमिया,उड़िया, उर्दू,अंग्रेजी आदि भाषाओं में कविताएँ अनूदित व प्रकाशित।
विभिन्न पत्रिकाओं में शोध पत्र प्रकाशित व सेमिनारों में व्याख्यान।
हिन्दी के प्रतिष्ठित ‘भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार’ और ‘कलिंग लिटरेरी फेस्ट 2023’ से सम्मानित।
सम्पर्क- vihagjee1993@gmail.com/ 8858356891
विहाग वैभव समकालीन हिंदी कविता का युवा स्वर हैं। भारतीय जीवन पद्धतियों, सामाजिक व्यवस्थाओं, सांस्कृतिक और धार्मिक जयघोषों को प्रश्नांकित करते हुए विहाग ने अपनी कविताओं में मनुष्य की गरिमा को रेखांकित किया है। यथार्थ को अपनी कविताओं के लिए आविष्कृत करते हुए वे जीवन के मर्म को रचते हैं। वाचाल होती कविता का संसार आज कोलाहल से भरा हुआ है। “माँ के चूल्हे से आती” आग वाली मातृभाषा में पके शब्द इस कोलाहल में लोप नहीं होते बल्कि अलग आभा के साथ प्रकट होते हैं! वे सदियों से चली आ रही हिंसा के विरुद्ध हिंसा नहीं बल्कि विवेक, प्यार और मानवीयता की पक्षधरता करते हैं। वाक्यों को “कीचड़ में बदल” देने के इस दौर में विहाग की कविताएँ शब्दों- वाक्यों के प्रति आस्था सौंपती हैं! अपनी रचनात्मकता से विहाग ने कुछ ऐसे दरवाज़ों पर दस्तकें दी हैं, जो सदियों से बंद पड़े हैं! – हृषीकेश सुलभ
- कविता की मातृभाषा
जो शब्दों को बंधक समझते हैं
उनके लिए परिहास है
यह हमारा ध्वनियों से शब्दों तक पहुँचने का इतिहास है
रसोई में बैठी माँ
हमें अपने पास बुलाती
एक हाथ से करछुल चलाती
दूसरे हाथ से बिखेर देती हमारे सामने चूल्हे में बची हुई पिछले पहर की राख
हम डरते राख में आग होने से
मगर माँ जानती थी-
आग उतना नहीं जलाती जितना जलाता है अज्ञान
माँ हमारे सामने बिखेर देती चूल्हे की बची हुई राख
और कहती- यही है तुम्हारा श्यामपट्ट
अब इस तरह लिखो क
इस तरह ख
और इस तरह ग
इस तरह सीखी हमने भाषा
इस तरह जाना कि कैसे आग राख बनती है
राख शब्द बनते हैं
और राख से बने शब्दों में
आग के होने की सम्भावना बरकरार रहती है
इस तरह हम शब्दों के आईने में आये
हमने देखा कि कैसे धर्मग्रंथों के शब्दों से हमारे पुरखे क़त्ल किये गए
कैसे मारे गए उन्हें संबोधनों के कोड़े
कैसे धारदार नुकीले शब्द उनके आत्मा को छीलते हुए गुजरे
कैसे अक्षरों को भड़काया गया मेरे लोगों के ख़िलाफ़
कैसे एक अर्थवान वाक्य बना सकने की सजा में बस्तियाँ जलाई गयीं
यह हमारे भाषा में आने का इतिहास था
अब वर्तमान के मैदान में हम वाक्यों और ध्वनियों का युद्ध लड़ रहे हैं।
अब भी
जब मौसम हमारे रक्त में बर्फ घोलने लगता है
और पूरी की पूरी बस्ती अपने-अपने खोहों में सिकुड़ने लगती है
तब अपनी भाषा को
माँ की चूल्हे की राख में बची हुई आग से सेंकता हूँ
शब्दो को नगाड़े की तरह ठोंकता हूँ
साथियों! इसमें मेरा कुछ भी नहीं
मेरे शब्द अगर न्याय के लिए मोर्चा खोलते हैं
मेरी कविता
अँधेरे के ख़िलाफ़ मशाल जलाती है
इसमें मेरा कुछ भी नहीं
मेरी मातृभाषा में ही आग है
जो माँ के चूल्हे से आती है।
- प्यार
गहरी अँधेरी रात में
प्रकाशवान जुगनू की तरह चमकेगा वही
रास्ता दिखायेगा
जब पीड़ा का पहाड़ पड़ेगा तुम्हारे कन्धे पर
घुटने-घुटने को होंगी साँसे
अलौकिक देह धरकर आएगा
वही हाथ बढ़ाएगा
बाहर निकालेगा
जीवन घिरेगा जब
अंगारों को लौ में
तुम्हें राख होने से बचाएगा वही
वही एकमात्र सर्वशक्तिमान प्यार होगा
जो तुम्हें अंधेरों, अंगारों और गुनाहों से बचा ले जाएगा
वही एकमात्र प्यार
कभी-कभी बीता हुआ
कभी साथ जीता हुआ।
- समय इस तरह भी प्रकट होता है जीवन में
(एक)
समय इस तरह भी प्रकट होता है जीवन में
रोटी देखकर रुलाई आ जाती है
सबसे छुपते छुपाते अपनी थाली
अजगर के गले में अटक गए दिन काटते हैं
अन्न की भूख इतनी कारुणिक कैसे हो गयी
हम सोचते जाते हैं
और उन निवालों को याद करते जाते हैं
जो किसी पुरस्कार की तरह याद आते हैं।
जीवन के गुप्त रहस्यों में
मन का खा लेना भी शामिल होगा
कौन जानता था
कौन जानता था
समय इस तरह भी प्रकट होगा जीवन में।
(दो)
हो सकता है तुम पर ऐसे भी दिन गुजरें
कि कोई तुमसे तुम्हारी भूख पूछे
तो भात के अदहन की तरह
भीतर से रुलाई फूटे
ऐसे दिन भी गुजर सकते हैं तुमपर
कि अचानक लोगो से पूछना चाहो –
मैं कहाँ से आया था?
यह ट्रेन जहाँ जा रही है वहाँ मेरा घर है क्या?
- दुःख
रात होती है तो
दुःख भी रहजनी करते हैं
अँधेरे में पाकर हमें निपट अकेले
दिन भर का कमाया हुआ सुख
लूट लेते हैं।
- लगभग मलाला के लिए
एक दिन यूँ ही बैठे-बैठे मलाला मुझे अच्छी लगने लगीं
वक़्त ने चार साँस भी न लिया होगा
कि मैं मलाला के लिए रोने लगा
मलाला को जब गोली लगी थी तब मैं मुस्कुराया था
वक्त की आरर डाल पर चढ़कर खुद को हिलाता हूँ
तो स्मृतियों का यह तिक्त फल झड़ता है-
मेरे इंग्लिश-अध्यापक ओ. पी. राय ने
मेरी कच्ची उम्र में मुझसे कहा था-
‘ज़रा-सी गोली छू जाने से इतनी लोकप्रियता मिले तो मैं भी खा लूँ ‘
और मैं मुस्कुराया था
मैं जानता हूँ आज सालों बाद
अचानक यह कैसे हुआ कि
मलाला के सिर में लगी गोली का दर्द मेरे मष्तिष्क में उतर आया
एक दिन उन सभी योद्धाओं का ख़ून और पसीना अपनी ही देह में सच होने लगता है
जो गुजरे वक़्तों में
हक़, न्याय और प्यार जैसी अच्छाईयों के लिए
लड़ते-मरते रहे
वे घृणा और शोषण और अन्याय के असली दुश्मन थे
वे आर.एस.एस. और तालिबानियों की असली मुश्किल थे
हत्यारों ने पढ़ने जाती लड़कियों के सामने हस्तमैथुन किया
गोबर और कीचड़ उछाला और बंदूकें चलाईं
(यह सिर्फ़ हत्या के अलग-अलग हथियार के बारे में है)
कच्ची उम्रों के मन में रोप दी गयीं सनातन घृणाएँ
एकदिन समझ की तेज धार से बह जाती हैं
और हम अपने योद्धाओं को इस तरह याद करते हैं कि
उन्हें याद करते जाते हैं
उन्हें प्यार करते जाते हैं
उनके लिए रोते जाते हैं।
उनकी तरह होते जाते हैं ।
6. देश का नेता
नेता एक कवि होगा
तो जनता ‘बेगमपुरा’ की नागरिक होगी
नेता एक माली होगा
तो जनता सीख लेगी रंगों और खुशबुओं को रोपना
नेता यदि होगा कोई लुहार
तो मुमकिन है
वह सभी बन्दूकों को पिघलाकर हँसिया बना डाले
अब यह प्रमेय इतना भी मुश्किल नहीं
कि जनता जश्न से चिल्ला रही हो-
मारो-मारो, लूटो-पीटो, हत्या-हत्या
और हम यह भी न समझ पाएं कि हमारे नेता कौन हैं!