असाधारण से साधारण होते शिक्षक
शिक्षा और शिक्षक दोनों ही समाज की एक मजबूत धुरी रहे हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जिनमें शिक्षा नहीं होती है, वे लोग पशुवत कहे जाते हैं। पशु से अलग मनुष्य को, मनुष्य का दर्जा दिलाने में शिक्षक की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षकों को समाज में बेहद असाधारण दर्जा दिया गया हैI इसीलिए कहा गया है कि “शिक्षक कभी साधारण नहीं होता। प्रलय और निर्माण इसके गोद में खेलते है।“ चाणक्य का ये कथन देश के सभी शिक्षकों का ध्यान उस ओर ले जाता है, जिसकी वजह से भारत कभी विश्वगुरु कहलाता थाI लेकिन सवाल ये है कि आज के शिक्षक प्रलय और निर्माण के लिए विद्यार्थियों को तैयार कर पा रहे हैं? क्या वो अपनी शिक्षकीय गरिमा और अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर पा रहे हैं?
प्राचीन समय रहा हो या आज के गूगल गुरु का समय शिक्षक का स्थान समाज में कोई नहीं ले सक। किसी-न- किसी रूप में एक शिक्षक का मार्गदर्शन चाहिए ही होता है। एकलव्य ने भी द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर ही धनुर्विद्या में निपुणता हासिल की थी। महात्मा फूले, सावित्रीबाई फूले जैसे सामाजिक नायकों अथवा शिक्षकों ने महिलाओं और वंचितों को शिक्षित करने के लिए ताउम्र संघर्ष किया। इंटरनेट और एआई के माध्यम से हम जानकारी तो प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन ज्ञान नहीं। हम अपने सवालों के जवाब इंटरनेट से प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन मार्गदर्शन और प्रेरणा सिर्फ और सिर्फ शिक्षक ही दे सकते हैं। परन्तु आज शिक्षा जगत की पूरी तस्वीर बदली हुई प्रतीत हो रही है।
5 सितंबर को पूरे देश में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। बचपन के दिनों में इस दिन उत्साह से मन लबरेज रहता था, किंतु जैसे-जैसे इस व्यवस्था के तह तक जा रही हूँ, मन में एक टिस बनी रहती है। यह टिस शिक्षकों की बदलती परिभाषा को लेकर है, उनकी गिरती साख और उनके लिए शिक्षा के बदलते मायने को लेकर है, गुरु से ज्यादा गूगल गुरु के महत्व को लेकर है। एक समय था, जब समाज में शिक्षकों को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता था। शिक्षक के सामने विद्यार्थी तो क्या, उनके माता-पिता तक बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थें और यह डर नहीं, बल्कि शिक्षकों के प्रति सम्मान था। लेकिन अब तो विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों का उपहास करते आसानी से देखा जा सकता है। स्कूल शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ बदल चुका है। एक तरफ अधिकांश सरकारी संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता गिरती जा रही है। वहीं, दूसरी ओर निजी संस्थानों ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। प्राइवेट स्कूलों में आम जनता अपने बच्चों को पढ़ाने में असमर्थ हैं। छोटे-छोटे त्योहारों में विशेष वेश-भूषा में आने का आदेश, किताब-कॉपी और यूनिफॉर्म तक स्कूल से खरीदने की बाध्यता ने पालकों को पूरी तरह से तोड़ के रख दिया है। पहले पुरानी किताबों से भी काम चल जाता था। घर में बड़े भाई-बहन के लिए जो किताबें खरीदी जाती थी, उसी से लगभग बाकी के लोगों का भी काम चल जाता था। लेकिन अब तो हर साल नयी किताबें खरीदना अनिवार्य कर दिया गया है।
वहीं, उच्च शिक्षा में अधिकांश नियुक्तियां एक खास विचारधारा के लोगों की या फिर पैसे के दम पर होना आम बात हो गई है। अब नियुक्तियों में योग्यता से ज्यादा जुगाड़ मायने रखता है। संस्था प्रमुखों को ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ लोगों के बदले चमचे और रीढ़विहीन लोग ज्यादा पसंद आते हैं। किसी समय शिक्षकों को आदर्श स्वरूप मान कर विद्यार्थी आगे बढ़़ते थें। किंतु, आज सत्य और आदर्श की राह अपनाने वाले शिक्षकों को परेशान करना शिक्षा के ठेकेदारों का प्रमुख धंधा हो गया है। उच्च शिक्षा में शिक्षकों के प्रमोशन में शोध पत्र और पुरस्कारों में जबसे नंबर का प्रावधान किया गया, तब से शोध पत्र लिखने, छापने और पुरस्कार बांटने के क्षेत्र में एक नया बाजार पैदा हो गया है। पैसा लेकर शोध पत्र छापने और पुरस्कार देने वालों का रोजगार बेहद तीव्र गति से रफ़्तार पकड़ चुका है।
शिक्षकों पर विद्यार्थी लाने का भी दबाव बनाया जाता है और नहीं लाने पर संस्था से बाहर निकालने तक की धमकी दी जाती है और अक्सर निकाल भी दिया जाता है। शिक्षकों से बंधुआ मजदूरों जैसा व्यवहार किया जाता है। नियुक्ति देते समय योग्यताएं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की मांगी जाती है, लेकिन वेतन चपरासी से भी कम दिया जाता है और यह स्थिति सिर्फ प्राइवेट संस्थानों में नहीं बल्कि सरकारी संस्थानों में भी दिखने लगी है। कई बार तो एक मिनट की देरी होने भर से उस दिन का वेतन काट दिया जाता है। लेकिन काम रात तक कराने के बाद भी कोई अतिरिक्त मानदेय नहीं दिया जाता है।
वर्तमान समय में शिक्षा और शिक्षकों के लिए जिस प्रकार की सामाजिक चुनौतियाँ बढ़ रही है, उस परिस्थिति में यह गंभीर चिंता का विषय है कि क्या शिक्षक और विद्यार्थी अपने धर्म का पूर्णतः पालन कर पाएंगे? शिक्षा के बढ़ते बाजार से क्या वो अपने आप को बचा पाएंगे? क्या वैसे गुरु पुनः इस धरती पर अपने मूल्यों को स्थापित कर पाएंगे, जिसने भारत को विश्व गुरु का दर्जा दिलाया था? क्या सच में फिर से भारत विश्वगुरु बन पायेगा? इन बातों को ध्यान में रखते हुए हमें आगे बढ़ने की आवश्यकता है। देश की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारत के पुनः विश्वगुरु बनने की जो बात कही जा रही है, क्या उसमे हम सच में सफल हो पाएंगे? क्या इस शिक्षा नीति के माध्यम से देश में हम विचारकों, क्रांतिकारियों और चिंतकों को पैदा कर पाएंगे? या फिर विद्यार्थी पेट भरने और परिवार तक सिमट कर रहने वाले आम इंसान बनकर रह जाएंगे?
तमाम विसंगतियों को देखते हुए भी गूंगे-बहरे बने रहने वाले शिक्षक, अपने आका के सुर में सुर मिलाने वाले शिक्षक, क्या वास्तव में शिक्षक कहलाने लायक हैं? क्या सच में ऐसे गुरु भारत को विश्व गुरु बना पाएंगे? यह एक गंभीर सवाल है। जब शिक्षक खुद गलत रिश्ते पर चलता हो तो वह विद्यार्थियों को सही मार्ग पर कभी नहीं ला पाएगा। आज के अधिकांश शिक्षक अपने स्वार्थ और सुख-सुविधा के नशे में धुत्त हैं, जो धृतराष्ट्रा के रूप में आस-पास मौजूद रहते हैं। फिर भी मुट्ठी भर शिक्षक आज भी ऐसे हैं, जो अपने शैक्षणिक मूल्यों पर आंच नहीं आने दे रहे हैं और उम्मीद है, ऐसे ही गुरु भारत को विश्वगुरु के मार्ग पर अग्रसर करेंगे। इस बात में कोई दो राय नहीं कि ऐसे ही शिक्षक भारत की नयी तस्वीर बना पाएंगे।
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