पर्यावरण

पानी की जाति

 

    ‘जल बिन जीवन सून’, धरती, आकाश, अग्नि, वायु और जल पंचभूत निर्मित यह मानव शरीर। मिट्टी से बना शरीर अन्त में माटी में ही विलीन हो जाना है। इस पंचतत्व निर्मित वपु के भीतर विराजित अदृश्य निराकार आत्मा से इतर बेहद महत्वपूर्ण तत्व माना जा सकता है- पानी। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर का अंग-प्रत्यंग अपना स्वतन्त्र अस्तित्व एवं पूरा-पूरा महत्व रखता है। शरीर का सत्तर प्रतिशत भाग जल है। पानी की महत्ता का इस जगत का हर सजीव प्राणी तो अपनी अन्तरात्मा तक से प्रकट या मौन-मूक प्रार्थना भाव से धन्यवाद अर्पित करता है, किन्तु निर्जीव, मानव निर्मित वस्तुएं, भौतिक उपादान, अजैविक पदार्थ भी बिना जल के विकल दिखाई पड़ते हैं।

सड़कों पर सरपट दौड़ते वाहनों के इंजन में भी पानी का एक डिब्बा होता है। कुछ भी धोने के लिए, सफाई में पानी चाहिए। भवन निर्माण में पानी, और तो और पानी रोकने के लिए बनने वाले बाँध भी पानी की सहायता से ही बनाए जाते हैं। मुंह अंधेरे अपने मासूम मुख पर घूंघट के पट डाले पनघट पर पनवा भरन को जाती छबीली नाज़ुक नार के सुरम्य बहते से काव्य, दिलकश चित्रण व भूलती बिसराती यादों से लगाकर सम्प्रति सरकारी नलों या टैंकरों पर जल्दी व ज़्यादा पानी भरने के लिए होती होड़ा-होड़ी व कलह का मूल भी तो पानी ही है। किसी भी परिस्थिति या काल में जो नहीं बदला वह है पानी का रंग, रूप व्यवहार, जिसमें मिला दो लगे उस जैसा।

 ‘जल बिच मीन प्यासी, मोहे देख आवत हाँसी’ अपने कबीर बाबा तो चूकते नहीं हैं अध्यात्म के व्यंग्य बाण चलाने से तो उधर द्वापर काल में अर्जुन ने तो अपने बाण से गंगा को ही प्रकट कर दिया और उनसे भी पहले त्रेतायुगीन अपने सीताराम जी ने तो अपने बाण से उल्टा ही काम कर दिया, पूरा समुद्र ही सुखा दिया। मातृ इच्छा एवं पितृ आज्ञा से राज्याभिषेक के स्थान पर चैदह वर्षों का वनवास भुगत रहे राम रावण द्वारा अपहृत अपनी प्राणप्रिया की खोज में वानर-रीछों की सहायता से सुदूर भारत के दक्षिणतम छोर पर हिन्द महासागर के मुहाने पहुंच अपने आराध्य महादेव का शिवलिंग स्थापित कर कई दिनों तक समुद्रराज से पथ देने का अनुनय करते हुए जब थक कर उस दुर्विनित जड़बुद्धि सागर को श्रापित करने को अभिमंत्रित बाण का संधान प्रत्यंचा पर कर कुपित-क्रोधित भाव से उद्यत हो उठे तब सिंधुराज के भयभीत विनीत क्षमा याचना पर वह तुणीर राजस्थान के टेथिस सागर की ओर छोड़ इस हिन्द महासागर को नहीं तो उस सागर को जलहीन बना डाला।

जहाँ जल ही नहीं वहाँ कैसा सागर। जल बिन सून सब। समुद्र तो सुखा दिया गया, बन गया यहाँ मरुस्थल। थार का वीराना। खाली शुष्क जलवायु, रेत के टीले, अनन्त विस्तार पाते धोरे। इस हरितिमा से लहलहाते प्रदेश को ‘धरती धोरां री’ में तब्दील होते क्षणांश भी न लगा। दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) से आये शोधार्थियों एवं भू-गर्भ वैज्ञानिकों ने मई, 2019 में 5 करोड़ 80 लाख वर्ष पहले मरुभूमि में समुद्र के अस्तित्व के ठोस साक्ष्य प्रस्तुत किए। यह पूरा भू-भाग पहले सागर था। बाड़मेर ज़िले में मुलतानी मिट्टी से बने दांत, अस्थियां, स्पाइन, डर्मल स्केल जो सदियों पूर्व पृथ्वी की परतों में दब कालान्तर में जीवाश्म में परिवर्तित हो गए, वे ढूंढ निकाले हैं।

इससे पहले भू-गर्भ वैज्ञानिक राजस्थान की ज़मीन पर ताज़े पानी की झील की सम्भावना जताते थे, किन्तु नई खोज ने यहाँ उथले जलाशय के स्थान पर लगभग डेढ़ किलोमीटर (1520 मीटर) गहराई वाले पूरी तरह समुद्र की सच्चाई को तथ्यों के साथ खोज निकाला है। यहाँ की गरमी, नमी, तटीय जलवायु परिस्थितियां उत्तरी-दक्षिणी अफ्रीकी देशों मोरक्को, नाइजर, नाइजीरिया, टोगो से एवं दक्षिणवर्ती उत्तरी अमेरिका के और यूरोप के फ्रांस और बेल्जियम से मिलती जुलती है। वहाँ भी इस प्रकार के जीवाश्य पाए गये थे, जो जैसलमेर के सुल्ताना और बान्धा गाँव में मिले हैं। (सन्दर्भ- टाइम्स ऑफ इण्डिया 17 मई, 2019)

       बात राम, राजस्थान और सागर की चली है तो रावण के ससुराल से जुड़ा एक तथ्य भी स्मरण आता है, रावण की पत्नी परम पुनीता पावन हृदया प्रातःस्मरणीय पंचकन्याओं में से एक रानी मन्दोदरी का मायका भी यहीं मारवाड़ में जोधपुर शहर के पास 15 किलोमीटर पर मण्डोर में अवस्थित था। अब जब राजस्थान में सागर ही नहीं रहा तो उसका दुख मनाने की बजाय कविवर रहीम के दोहे से अपना जी बहला सकते हैं-

धनि रहीम जल पंक को
लघु जिय पीअत अघाय
उदधि बड़ाई कौन है,
जगत पिआसौ जाय

अर्थात कीचड़ का जल धन्य है कि छोटे-छोटे जीव उसे पीकर तृप्त हो जाते हैं। सागर में क्या बड़प्पन है? दुनिया उसके पास से प्यासी ही लौटती है। इसी से कुछ अलग दोहा भी पठनीय है-

अब तेरो बसिबो वहाँ,
नाहिन उचित मराल
सकल सूखि पानिप गयो
भदो पंकमय ताल

मराल को कहा गया है कि अब वहाँ निवास उचित नहीं होगा क्योंकि वहाँ तो पूरा पानी सूख चुका है। तालाब में कीचड़ ही बचा है।

 हिन्दू पंचांग में चन्द्रमास का चैत्र एवं वैशाख के बाद तीसरा महीना ज्येष्ठ अमूमन मई-जून के महीने में पड़ता है एवं यह गर्मी का शिखर समय होता है। अतिशय गर्मी में सबसे ज़्यादा महत्व जल का होता है। इसी से जल को समर्पित बड़े त्यौहार भी इस महीने में मनाए जाते हैं, जो जल की महत्ता, जल संरक्षण की आवश्यकता, जल स्रोतों की उपयोगिता को धार्मिक रीति रिवाजों से जोड़कर जनसमूह में अनायास ही चेतना जाग्रत करने का पुण्य परक कार्य सहज ही कर पाती है।

       गंगा दशहरा को राजा भागीरथ मुनि श्री गंगा मैया को इस धरा पर लाने का सुकीर्तिपरक कार्य कर चुके थे तो अगले दिन निर्जला एकादशी यानी ग्यारस का उपवास तो है ही, उस पर इस तपते जलते जेठ के महीने में पूरे दिवस पानी की एक बूंद भी पीने का निषेध हालांकि एक पतली गली है यदि होठ बिल्कुल सूख चुके हों, मन घबराने लगे, चक्कर आ रहे हों तो आपको जलग्रहण की अनुमति है, किन्तु साथ ही कुछ नियम और शर्तें (टी एण्ड सी) लागू होंगी। स्मरण रहे कि एकादशी में जल का प्रयोग अपने चुल्लू (हथेली) में आचमण के लिए इतना भर लेना है कि एक माशे के सोने की गोली डूब जाए।

इससे ज़्यादा जलग्रहण करना आपको पाप का भागी बना सकता है, क्योंकि इतने से ज़्यादा पानी की गणना मद्यपान में हो जाती है। माशा से एक कहावत ज़हन में ज़रूर उठती है, जिसका पता लगाया तो जाना कि तोला और माशा माप तोल की लघु इकाइयां हैं। माप तौल की लघु इकाइयां हैं तोला और माशा। एक माशा का वज़न 0.972 ग्राम होता है जबकि तोला साढ़े ग्यारह ग्राम का होता है। एक तोला में बारह माशा आते हैं। बहुमूल्य धातुओं व वस्तुओं के ख़रीद फ़रोख़्त में प्राचीन काल में प्रयुक्त इन मापों से बनी लोकोक्ति/मुहावरा निरन्तर परिवर्तनीय अस्थिरता को दर्शाता है। किसी एक बात पर टिक कर नहीं रहना। पल में तोला पल में माशा/ख़ैर दुनिया तो चल रही है जिस पर वो है आशा/तुकांत की ये भाषा/विषय से भटकाव के आसार बनने लगे हैं ज़्यादा/अपनी क़लम को सही दिशा/भटकते विचार न करें ज़्यादा साझा/समझ का रखें हम माद्दा।

 जल द्वारा निरन्तर चलायमान समय पर कवि सुंदरदास ने सार्थक दोहा रचा है-

सुन्दर यौ ही देखते, औसर बीत्यौ जाइ
अँजुरी माँहे नीर ज्यों, किती बार ठहराई।

 तात्पर्य यह है कि यों ही देखते-देखते समय हथेली में भरे पानी की तरह रिस-रिस कर ख़त्म हो जाता है। अंजुरी में पानी नहीं ठहर सकता। गतिवान जल द्वारा समय की बेलगाम सतत गति को बताया गया है। गंगा दशहरा में जल है तो अगले दिन निर्जला में भी जल पीने का निषेध तो है पर महत्ता भी तो जल ही की है। साहित्यकारों के प्रिय विरह रस के दोहों में भी जल और ज्येष्ठ मास अपना स्थान रखते हैं-

छाँह बिना ज्यों जेठ रबि
ज्यों बिन औषधि रोग।
ज्यों बिन पानी प्यास यों,
तेरी दुसह वियोग।

मतिराम जी ने असह्य विरह दुख को वैसा ही बताया है जैसे ज्येष्ठ माह में बिना शीतल छाया के सूर्य की गर्मी, जैसे दवा के बिना मर्ज़ असहनीय हो जाता है या जैसे बिना जल के प्यास सहन होना कठिन हो जाता है।

पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों तारा प्रभात

 जीवन की क्षणभंगुरता को आमजन को सरलता से समझाने का निमित्त भी यहाँ पानी ही बनता है।

  महाभारत युद्धोपरान्त द्वारका लौटते समय श्रीकृष्ण की मरुप्रदेश में उतंक मुनि से भेंट हुई। भगवान ने तपस्वी को अमृत जैसा जल मिलने का वरदान तो माँगने पर दे दिया, किन्तु इन्द्र ने इस बात का विरोध किया, किन्तु कृष्ण की हठ का मान रख मान गए। जब मुनि को प्यास लगी उन्होंने कृष्ण का स्मरण किया तत्काल भयावह चाण्डाल कुत्तों की टोली के साथ जल कलश ले आता दिख पड़ा और मुनि से शुद्ध अमृत सा जल पीने का आग्रह किया। मुनि बेहद कुपित हो गये। क्रोधित मुनि कृष्ण और चाण्डाल को श्राप देने लगे तो कृष्ण ने प्रकट हो उन्हें रोका और बताया कि देवराज चाण्डाल वेश में स्वयं आए थे, किन्तु नीची जाति का समझ आपने उनके हाथों अमृत-सा जल ग्रहण नहीं किया। आपका अहम आपकी इन्द्रियों की विजय को दर्शाता है।

जाति के आधार पर छोटे-बड़े का इतना भेद करना आपके ज्ञान की अपूर्णता का द्योतक है। आपका अहंकार ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि की समता को समझ नहीं पाया। कीट-पतंग, जीव-जन्तु, ज्ञानी-महात्मा, अल्पज्ञ-आम इन्सान सभी परमपिता परमेश्वर की सन्तान हैं, उन्हीं के हाथों निर्मित। जब तक मन में भेदभाव का कलुष होगा आप अमृत के अधिकारी नहीं बन सकेंगे। ऋषि को सत्य बोध कराने के उपरान्त कृष्ण ने मरुस्थल में छाने वाले जल भरे पयोद को उतंक मेघ नाम दिया। वस्तुतः जल तो स्वयं अमृत ही है। पर जल को भी जाति-धर्म के मानव निर्मित अमानवीय घृणास्पद विभाजन में बाँट समाज, धर्म, मानवता सभी पर संवेदनहीनता का प्रदूषण फैलाया जाता रहा है।

 तन की तृषा तो बुझा देगा पानी पर मन की तृष्णा किस जल से बुझेगी, किस विध बुझे ये अगन।

 जल प्रलय पर तो इस दुनिया का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य ‘कामायनी’ लिखा जा चुका है, आज से सौ वर्ष पूर्व। महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सृष्टि के विनाश से उठाकर मानव मन का जो चित्रण किया है वह भी जल प्रवाह के समान अद्भुत, अद्वितीय, अलौकिक, अमर प्रवाहमान आख्यान है।

       पानी शब्द सुनने के साथ दिमाग़ में तत्क्षण एक प्यासे की छवि आती है। भरी तपती-झुलसती गर्मी, शरीर से रिसता पसीना, सूखे होंठ, जल की तलाश में पथराई सी आँखें, कहीं दूर, कच्ची खपच्चियों की टपरी में एक छोटा मोखा, जिसके उस पार एक वृद्ध औरत या आदमी बैठा होता। छः सात मिट्टी के मटके रखे होते। रामझारे की लम्बी टोंटी से ओक माण्डकर पानी पी तृप्ति पाते बटोहू के लिए यह जल ही अमृत है। इसी पानी को बोतलबन्द हो वातानुकूलित कक्ष में सूट-बूट टाई धारक व्यक्ति के सामने एकदम ठण्डा पाते हैं तो प्यास और पानी की संगति नहीं बैठ पाती। सवाई माधोपुर के कवि श्री विनोद पदरज ने अपनी ‘पानी’ शीर्षक कविता में इसका शब्द चित्रण उकेरा है।

       पानी पर बने मुहावरे-कहावतें भी बहुतेरी हैं। कोई शर्मिन्दगी से पानी-पानी हो जाता है तो किसी ढीठ निर्लज्ज की आँखों का पानी ही उतर जाता है। कोई मेहनत से पानी रखता है तो कोई अयोग्य बने बनाए पर पानी फेर देता है। कहीं कोई विरहन दुखियारी खारे पानी को आँखों में भर लेना चाहती है। कहीं घड़ों पानी पड़ता है तो कहीं स्वाभिमान समाप्त कर पानी भर आता है। आँखों में पानी भी भर आता है तो कभी पानी ढलता भी है। कहीं कोई पानी में पतला होता है। कोई जोश बढ़ाते हुए पानी बढ़ाता है। इस पानी के बुदबुदे से संसार में कोई पानी पर जमाता है। कहीं खून का नहीं पर दूर का पानी का रिश्ता भी बनता है।

       सन्त कवयत्रि सहजोबाई ने इस अनमोल बात को बहुत सरल रूप में बता दिया है। जो व्यक्ति जाति, वर्णा और कुल को भूलकर सत्संग में आता है, उसके मन का सारी मैल-गन्दगी प्रक्षालित हो जाती है, जैसे मैला कुचैला जल भी गंगा में मिलने पर गंगाजल कहा जाता है, गंगा सा पवित्र हो जाता है-

जो आवै सत्संग में, जाति बरन कुल खोय
सहजो मेल कुचैल जल, मिले सु गंगा होय।।

       दिनोंदिन घटती सहिष्णुता, सामाजिक समरसता, साम्प्रदायिक सद्भाव के माहौल में पानी की जाति ही नहीं धर्म भी देखा जा रहा है।

       ख्यातनाम पत्रकार श्री श्रवण गर्ग ने देश की राजधानी दिल्ली की नाक के नीचे ग़ाज़ियाबाद ज़िले के एक गाँव डासना में स्थित देवी के मन्दिर में पानी की प्यास बुझाने के लिए प्रवेश करने वाले एक मासूम तरुण की ज़बरदस्त तरीके से पिटाई पर अपने सामाजिक माध्यम फेसबुक पर पुरज़ोर तरीके से विरोध की आवाज़ उठाई, किन्तु वे भी हैरत में है एवं देश की विडम्बना है कि इस क्रूर कृत्य का वीडिया बनाकर शान से उसे वायरल करने वालों के खिलाफ़ सत्ता पक्ष, विपक्ष कोई भी निन्दा व भत्र्सना के दो बोल तक बोलना तो दूर कोई दुख भी प्रकट नहीं करते।

आरिफ पर चोरी का झूठा आरोप लगा। उसे पानी पीने के भारी जुर्म में बेतहाशा पीटने की इक्कीसवीं सदी के इक्कीसवें साल की इस दुखद घटना से बहुत पहले वर्ष 1956 में आई राजकपूर की ‘जागते रहो’ फिल्म में भी इसी तरह का विषय दिखाया गया था, जिसका मूल था- पानी। नायक मोहन प्यास से विकल हो एक इमारत के अहाते में लगे टपकते नल पर पानी पीने को हाथ बढ़ाता है कि चोर-चोर का शोर मच जाता है। दहशतज़दा मोहन बचने के लिए फ्लैट दर फ्लैट भागता रहता है और हर घर में चोर-बेईमान लोगों को पाता है।

यहाँ मोहन की गरीबी और सम्प्रति किशोर का धर्म उन पर चोरी का मिथ्या लांछन लगा मूल कारण प्यास को ही सिरे से नज़रअन्दाज़ कर देता है। यशस्वी इतिहास, पौराणिक आख्यानों पर गर्वित हमारा सांस्कृतिक बहुलता वाला महान देश धर्म, दर्शन, अध्यात्म की पिपासा का शमन करने के लिए, ज्ञान प्राप्ति के निमित्त व्रत, तप, जप, उपासना, अध्ययन, स्वाध्याय के अभ्यास एवं श्रुत ज्ञान सूक्तियों, धार्मिक कथाओं, दार्शनिक मान्यताओं, आत्मा-परमात्मा, जगत-जीव, भौतिक-आध्यात्मिक के मनन अनुशीलन के लिए दुनिया में अपना वैशिष्ट्य रखता है। पुरातन काल से अद्यतन प्राकृतिक उपादानों, पंचतत्वों, सत्य-तथ्यपरक अनुभूत एवं काल्पनिक आदर्श जीवन पद्धति एवं सामाजिकता का ताना-बाना बुना जाता रहा है, किन्तु कुछ कुटिल मतिभ्रमित जन द्वारा जब जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को भी धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, नस्लमें विभाजन में रख मानवता को अपमानित किया जाता है तो यह अप्रिय स्थिति क्षुब्ध करती है।


यह भी पढ़ें – समय रहते समझें पानी की महत्ता


       इन्सानियत एवं हिन्दू धर्म पर सबसे बड़ा कलंक जातिवाद है। इसके प्रचार-प्रसार का समाज में सबसे प्रचलित पीड़ादायी तरीका है छुआछूत। अस्पृश्यता के भौतिक रूपान्तरण में सबसे ज़्यादा दंश पानी पीने से रोकना भी है। समाज में जब किसी व्यक्ति या परिवार को दण्डित किया जाता है तो पंचों द्वारा उसका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाता है यानी साथ बैठने पर प्रतिबन्ध।

जिकण गाँव में च्यार नीं
वैद वणिक जल न्याय।
बसणो तो अलगो रह्यो,
रात रह्यो नीं जाय।

  जिस गाँव में वैद्य, जल, वणिक और न्याय का चतुष्टय नहीं वहाँ बसना तो दूर रात भर रहना भी दुष्कर है। जल की महत्ता तो यहाँ बताई गयी है।

   ज़िन्दगी में दर्द, चिन्ता, मुश्किलें तो आती ही रहती हैं। इससे घबराने की बजाए इनसे पार पाने के लिए भी पानी के माध्यम से ऐसी स्थिति सेनिकलने और आगे बढ़ने की बात समझाई जाती है कि यदि पानी अशुद्ध है तो परेशान होने के बजाय कुछ समय के लिए उसे बिना छेड़े शान्त रहने दें। इससे कलुष गन्दगी अपने आप तल पर जम जाएगी। जीवन में भी काविड के इस अन्धे दौर में विपरीत परिस्थितियों में शान्त रहकर धैर्य रखते हुए सकारात्मक विचार हमें जिजीविषा दे पाएंगे जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी बहुत ज़रूरी है।

फिल्म ‘गीत गाता चल’ का यह गीत कितनी सरल, सहज, सार्थक काव्य रचना है जल के रूप और गुण पर-

चाँदी सा चमकता ये नदिया का पानी
पानी की हर इक बूंद देती ज़िन्दगानी
अम्बर से बरसे ज़मीं से मिले
नीर के बिना तो भैया काम न चले
ओ मेघा रे…… जल जो ना होता तो यह जग जाता जल।

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सीमा जोधावत वर्मा

लेखिका हिन्दी साहित्य में साहित्य समाज एवं सिनेमा विषय पर एक शोधार्थी के रूप में शोध कार्य कर रही हैं एवं स्वतन्त्र लेखन करती हैं। सम्पर्क +919414213557, seemajodhawat01@gmail.com
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