सिनेमा

हाँ! मुझे सिनेमा देखना अच्छा लगता है – स्वतंत्र मिश्र

 

  • स्वतंत्र मिश्र

 

मैं दो दिन पहले हैदराबाद में दे दे प्यार देखने एक मल्टीप्लेक्स गया| यहाँ मैंने टिकट लेते समय पूछा कि हॉल नम्बर कितना है? उसे मेरा सवाल ही समझ में नहीं आ रहा था| तीन बार पूछने के बाद उसने दिमाग दौड़ाया और फिर कहा—स्क्रीन नम्बर टू| मुझे लगा कि शायद मैं पीछे छूट गया हूँ और मैं अपने शहर के सिनेमा हॉल में देखी गई फिल्मों की यादों में खो गया| टिकट ब्लैक होने से लेकर, टिकटों को लेकर खिड़की पर मारपीट और सीटियाँ और फूहड़ से लेकर वाह-वाह के कमेंट तक सब याद आने लगे|

मैं एक छोटे से शहर जमालपुर का रहने वाला हूँ| मेरे यहाँ टीवी नहीं था और टीवी देखने के लिए बहुत मशक्कत करनी होती थी| आठवीं, नौंवी में गया तो चोरी से फिल्में देखने की आदत डाल ली| वहाँ दो सिनेमा हॉल था- अवंतिका सिनेमा और रेलवे सिनेमा| हम सिनेमा देखने 8 किलोमीटर दूर मुंगेर और 53 किलोमीटर दूर भागलपुर भी चले जाते| यह सिलसिला आगे चलता रहा| पटना, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, जमालपुर का कोई सिनेमा हॉल या​ वीडियो हॉल रहा होगा जहाँ मेरे कदम ना पड़े हों| मैंने खुर्जा, हवेली खड़गपुर, तारापुर, आगरा, जयपुर, भोपाल, शिमला और देवास में सिनेमा देखा है|

जमालपुर के सिनेमाघरों में नई फिल्मों से ज्यादा पुरानी फिल्में लगती थीं| मैंने यहाँ मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, वक्त, आंखें, राजा और रंक, खिलौना, शराबी, शोले, पत्थर के सनम, इंकलाब आदि बहुत सारी फिल्में दिखी|

दिल्ली में जब कॉलेज में पढ़ने लगा तब शुक्रवार को कई बार तीन-तीन सिनेमा एक दिन में देखा| एक आध बार तो चार सिनेमा देख लेता था| एक दिन में दो सिनेमा देखने की तो गिनती ही नहीं है| दिल्ली में भी सभी सिनेमाघरों में फिल्म देखने का दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन 60-70 सिनेमाघरों में तो सिनेमा देख ही ली होगी| हैदराबाद में भी यह सिलसिला जारी है| हैदराबाद में दो साल में कम से कम 100 फिल्में तो देख ही गया होउंगा| मैं सिनेमा देखने के लिए 50-60 किलोमीटर स्कूटर चला लेता हूँ| यही काम मैं खाने के लिए कर लेता हूँ| इन कामों में मुझे कभी भी थकान नहीं होती है| सबसे बड़ी बात यह है कि मुझे सिनेमा देखने के लिए किसी की कम्पनी की दरकरार नहीं होती है| मैं अकेले सिनेमा देखने चला जाता हूँ|

आज पुरानी फिल्मों को देखने के लिए हॉल ही नहीं उपलब्ध हैं| अब नई फिल्में मल्टीप्लेक्स या सिंगल स्क्रीन पर देखता हूँ| टीवी पर हिन्दी, अंग्रेजी सिनेमा देखता हूँ| हालाँकि, टीवी पर ज्यादातर समय सिनेमा के कुछ सीन देखने के बाद उकताहट पैदा होने लगती है| एक बात और टीवी पर भी सिनेमा देखते हुए मैं खिड़की और दरवाजे बन्द कर अंधेरा करता हूँ और माहौल बनाता हूँ|

अब पुरानी नहीं देखी हुई या पहले देख ली गई फिल्मों को देखने के लिए यूट्यूब का सहारा ले रहा हूँ और यह बेहतर विकल्प है| लेकिन, अपने शहर के सिंगल स्क्रीन को बहुत मिस करता हूँ| अब वे बन्द हो गई हैं| कहीं जादू दिखाया जाता है तो कहीं शादियाँ होती हैं|

लेखक टीवी पत्रकार हैं|

सम्पर्क-  +919521224141,

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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