अतीत का जख्म और लोकतन्त्र की चुनौतियाँ
भारत जब 15 अगस्त, 1947 को आजाद हुआ तो दुनिया भर में रहने वाले भारत के लोगों में खुशी की लहर छा गई, वह इसलिए कि पिछले कई सौ वर्षों का सपना साकार हुआ था। लेकिन आजादी के साथ ही देश का बँटवारा हुआ, यह कहना गलत नहीं होगा कि देश पहले बँट चुका था और आजादी बाद में मिली। दंगा और फसाद तो आजादी के पहले से ही हो रहे थे लेकिन दोनों देशों के बीच बँटवारे की रेखा तय हो जाने के बाद स्थिति भयावह हो गयी। लगा कि बँटवारे की रेखा औरतों की देह से होकर ही गुजरी हो, हजारों औरतों का बलात्कार और फिर उन्हें अगुवा किया जाना… लगभग डेढ़ करोड़ परिवारों को अपने घर से उजड़ना पड़ा, लाखों लोगों की हत्याएँ हुईं और अनगिनत बच्चे अनाथ हुए। आजादी के 75 वर्षों के बाद भी दोनों देशों की जनता के मन से यह सवाल निकला नहीं है कि इस बँटवारे से लाभ किसको मिला?
बँटवारे के बाद भारत में जितने मुसलमान रह गये, (वे चाहते तो पाकिस्तान जा सकते थे) उनकी संख्या पाकिस्तान के मुसलमानों से थोड़ी ही कम थी। आजादी के पहले भारत में मुसलमानों की आबादी 24.3 प्रतिशत थी और आज बँटवारे के 75 वर्षों बाद भी 14.3 प्रतिशत है। कुछेक अपवादों को यदि छोड़ दें तो दुनिया के तमाम देशों की तुलना में भारत के मुसलमान ज्यादा सुकून और शान्ति से जी रहे हैं। रॉबर्ट क्लाईव के नेतृत्व में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जब प्लासी के युद्ध (1757) में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को हराकर भारत में कम्पनी का राज कायम किया तब से हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक साथ अँग्रेजों के जुल्म 1947 तक सहे। 1857 के सिपाही विद्रोह को भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन की शुरूआत माना जाता है। तब से 1947 तक आजादी की लड़ाई में हिन्दू और मुसलमान साथ थे। अँग्रेजों के जुल्म सहने में और आजादी की लड़ाई में जब दोनों सौ वर्षों तक साथ रहे फिर आजाद भारत में भी तो साथ रह सकते थे।
बँटवारे के बाद मुसलमानों की लगभग आधी आबादी जब भारत में ही रह गयी थी, फिर पूरी आबादी क्यों नहीं रह सकती थी? इन सवालों के तह में जाने से स्वतन्त्रता आन्दोलन के कई दिग्गज नेताओं की कलई खुलने लगती है। दरअसल देश की आम जनता बँटना नहीं चाहती थी, बँटवारे की ज्यादा जरूरत उन नेताओं को थी जिन्हें प्रधानमन्त्री और गवर्नर जेनरल बनने की जल्दबाजी थी। दूसरी तरफ सच्चाई यह भी है कि अँग्रेजों ने यह तय कर रखा था कि भारत को बँटवारे के साथ ही आजाद करना है इसलिए वे इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही अपनी कूटनीति बना रहे थे। बँटवारे की पटकथा पर ब्रिटिश शासकों ने बीसवीं शताब्दी की शुरूआत से ही काम करना प्रारम्भ कर दिया था। बंगाल का विभाजन (1905) अँग्रेजों की कूटनीति का ही हिस्सा था।
विभाजन के पीछे अँग्रेजी शासन का तर्क तो यह था कि प्रशासनिक जिम्मेवारी की दृष्टि से बंगाल प्रसिडेंसी जैसे बड़े सूबे को सम्हालना कठिन है इसलिए इसे दो हिस्सों में विभाजित किया जा रहा है,जबकि उनकी राजनीतिक मंशा यह थी कि इस विभाजन के माध्यम से हिन्दुओं और मुसलमानों की अलग-अलग गोलबन्दी को सुलगाया जाए। बंगाल के मुस्लिम बहुल पूर्वी इलाके में असम के कुछ हिस्सों को जोड़कर पूर्वी बंगाल और शेष बंगाल,बिहार एवं उड़ीसा को मिलाकर पश्चिमी बंगाल का गठन किया गया। सचमुच हिन्दू-मुसलमान के सम्बन्ध पर तनाव की जो तिल्ली अँग्रेजों ने तब जलायी थी,उसकी आग अभी तक बुझ नहीं पायी है। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि बंगाल विभाजन के ठीक बाद 1906 में ‘भारतीय मुसलमानों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए’ मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।
ब्रिटिश प्रधानमन्त्री ने 8 नवम्बर, 1927 को सर जॉन साइमन के नेतृत्व में साइमन कमीशन के गठन की घोषणा की। इस कमीशन के सात सदस्य थे और सभी अँग्रेज थे इसलिए इसे ‘श्वेत कमीशन’ भी कहा जाता है। आश्चर्य और आक्रोश की बात तो यह थी कि कमीशन को इस बात की जाँच करनी थी कि क्या भारत इस लायक हो गया है कि यहाँ के लोगों को संवैधानिक अधिकार दिए जाएँ? भारत की जनता के लिए यह घोर अपमानजनक बात थी इसलिए साइमन कमीशन का व्यापक विरोध हुआ। विरोध प्रदर्शन के दौरान लखनऊ में जवाहरलाल नेहरु और गोविन्द बल्लभ पन्त आदि ने लाठियाँ खायीं तो लाहौर में लाठी की गहरी चोट से लाला लाजपत राय की मृत्यु (17 नवम्बर,1928) हो गयी। लाला जी की मृत्यु के बाद स्वतन्त्रता आन्दोलन में उबाल आ गया और पूरा देश भड़क उठा। चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और अन्य क्रान्तिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला ठीक एक महीने बाद ले लिया। 17 दिसम्बर 1928 को इन क्रान्तिकारियों ने ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर साण्डर्स को गोली मार दी। कुछ ही दिनों बाद इसी हत्या के मामले में राजगुरु,सुखदेव और भगत सिंह को फाँसी दी गयी थी।
जिस समय साइमन कमीशन का व्यापक विरोध हो रहा था उसी समय भारतीय मामलों के मन्त्री लॉर्ड बर्केनहेड ने स्वतन्त्रता सेनानियों से कहा कि ‘वे एक ऐसा संविधान तैयार करें, जिसमें ऐसी व्यवस्था हो कि भारत की जनता आम तौर पर उससे सहमति व्यक्त करे।’ निःसन्देह साइमन कमीशन के भयंकर विरोध से घबराए अँग्रेजी शासन की स्वतन्त्रता आन्दोलन में फिर से फूट डालने की यह नयी चाल थी। वे जानते थे कि कॉंग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा आदि के नाम पर भारतीय अलग-थलग हैं, उनमें एका हो ही नहीं सकती। इस मसले पर कॉंग्रेस ने एक सर्वदलीय सम्मलेन का आयोजन फरवरी 1928 में किया। कई बैठकों के बाद यह निर्णय लिया गया कि मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में आठ लोगों (अली इमाम,तेज बहादुर सप्रू,सुभाष चन्द्र बोस, एम एस अणे,सरदार मंगरू सिंह, शोएब कुरैशी और जी बी प्रधान) की एक समिति बनाई जाए जो 1 जुलाई, 1928 के पहले भारत के लिए एक संविधान का प्रारूप तैयार करे। जवाहरलाल नेहरू को इस समिति का सचिव बनाया गया था। इस समिति की रिपोर्ट को नेहरू रिपोर्ट कहा गया। इस रिपोर्ट पर विचार विमर्श के लिए लखनऊ और दिल्ली में हुए सर्वदलीय सम्मेलन में वही हुआ जो अँग्रेज चाहते थे। अधिक प्रतिनिधित्व के मामले पर हिन्दू, मुसलमान और सिख गुट आपस में बँटे रहे।
इतिहासकार जोया चटर्जी मानती हैं कि 1932 के बाद से हिन्दू-मुसलमानों का आपसी टकराव ज्यों-ज्यों बढ़ता गया भारत विभाजन की जमीन तैयार होती गयी। वे लिखती हैं, ”पूर्वी बंगाल में फजल-उल-हक की ’कृषि प्रजा पार्टी’ का असर बढ़ा और पूना पैक्ट के बाद ‘हरिजनों’ के लिए सीटें आरक्षित हुईं जिसका असर यह हुआ कि सवर्ण हिन्दुओं का वर्चस्व घटने लगा, इसकी उन्होंने कल्पना नहीं की थी। इसका नतीजा यह हुआ है कि बंगाल के भद्रजन ब्रिटिश विरोध के बदले, मुसलमान विरोधी रुख अख्तियार करने लगे।” दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के मुसलमान नवाबों और जमींदारों को आशंका हुई कि हिन्दू भारत में उनका रुतबा और रसूख खत्म हो जाएगा। इसलिए वे विभाजन के पक्ष में हो गये। हिन्दू महासभा का तेवर और काँग्रेस के भीतर भी जो हिन्दुत्व की एक धारा थी, उसके रहते मुसलमानों की यह आशंका तब निर्मूल नहीं थी। अँग्रेजी शासक परोक्ष रूप से हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों को सहयोग इसलिए कर रहा था कि ये दोनों संगठन प्रखर रूप से विभाजन के पक्ष में थे। आखिरकार मुस्लिम लीग के लाहौर बैठक (23 मार्च,1940) में ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पारित हो जाने के बाद भारत का बँटवारा निश्चित हो गया।
अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ भी भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में बन रही थीं। 20 फरवरी,1947 को ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री क्लेमेंट एटली ने 30 जून, 1948 के पहले भारत को आजाद करने की घोषणा की और लॉर्ड माउन्टबेटन को भारत का वायसराय और गवर्नर जेनरल नियुक्त किया। यह क्लेमेंट एटली वही थे जो साइमन कमीशन के एक सदस्य के तौर पर 1928 में भारत आये थे, तब विंस्टन चर्चिल ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री थे जो भारत की आजादी के खिलाफ थे। 1945 के आम चुनाव में चर्चिल को हराकर एटली ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री बने। एटली के प्रधानमन्त्री बनते ही भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त हो गया।
दोनों देशों के बीच विभाजन रेखा को निर्धारित करने की जिम्मेवारी जिस अँग्रेज वकील सीरिल रेडक्लिफ को दी गयी थी, वे इसके पहले न तो कभी भारत आये थे और न ही भारत के बारे में उनकी कोई खास समझ थी। भारत के प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर का जन्म सियालकोट (पाकिस्तान) में हुआ था, बँटवारे के बाद वे दिल्ली आ गये थे। बाद में वे पाकिस्तान में भारत के राजदूत भी रहे। कुलदीप नैयर ने बताया था कि विभाजन की कहानी समझने के लिए उन्होंने सीरिल रेडक्लिफ से मिलकर बात की थी। रेडक्लिफ को इस बात का बेहद अफसोस था कि ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे बड़े उपनिवेश के बँटवारे के लिए उन्हें सिर्फ 11 दिन का समय मिला जो इस जटिल कार्य के लिए बहुत कम था,कम से कम दो वर्ष का समय मिलना चाहिए था।
लाहौर के बारे में उन्होंने बताया कि वहाँ हिन्दुओं की सम्पत्ति और जनसंख्या ज्यादा थी इसलिए इसे स्वाभाविक तौर पर भारत में रहना था लेकिन यह सोचकर कि पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं है, लाहौर पाकिस्तान को दे दिया गया। पंजाब में दोनों देशों के विभाजन की रेखा तय हो चुकी थी,जिसके अनुसार फिरोजपुर पाकिस्तान में था। नेहरू ने अपने प्रभाव से फिरोजपुर को भारत में आखिरी वक्त में शामिल कराया। जिस अगम्भीरता और अदूरर्दर्शिता के साथ आनन फानन में बँटवारे को क्रियान्वित किया गया उसके ये दुष्परिणाम होने ही थे। रेडक्लिफ ने नेहरू और जिन्ना के समक्ष यह आशंका व्यक्त की थी कि इतने कम समय में विभाजन रेखा दोषपूर्ण हो सकती है। नेहरू और जिन्ना में से कोई आजादी की तारीख को टालने के पक्ष में नहीं थे। लाखों लोगों की जान बचाने के लिए थोड़ा और समय लेकर क्या व्यवस्थित बँटवारा नहीं हो सकता था? इतने दिनों तक देश आजाद नहीं हुआ तो साल छह महीने और नहीं होता तो क्या हो जाता? जिन्हें अपना घर और मुल्क हमेशा के लिए छोड़कर जाना था, उन्हें अपने सामान और खुद को समेटने के लिए थोड़ा तो वक्त चाहिए था। जब तक उन्हें समुचित मुआवजा मिल नहीं जाता तब तक उनके जान माल की हिफाजत की गारण्टी दोनों सरकारों को नहीं लेनी चाहिए थी?
1923 में कॉंग्रेस के विशेष अधिवेशन में मौलाना आजाद के अध्यक्षीय वक्तव्य की इन पँक्तियों को याद करना प्रासंगिक होगा जब उन्होंने कहा था कि ‘आज अगर कोई देवी भी स्वर्ग से उतरकर यह कहे कि हमें हिन्दू-मुस्लिम एकता की कीमत पर 24 घण्टे के भीतर स्वतन्त्रता दे देगी, तो मैं ऐसी स्वतन्त्रता को त्यागना बेहतर समझूँगा। स्वतन्त्रता मिलने में होने वाली देरी से हमें थोड़ा नुकसान तो जरूर होगा लेकिन अगर हमारी एकता टूट गयी तो इससे पूरी मानवता का नुकसान होगा।’ आज यह देश मानवता के इसी नुकसान को झेल रहा है।
आजादी के 75 वर्ष बाद लोकतन्त्र के सन्दर्भ में पाकिस्तान से हमारी कोई तुलना नहीं है। जैसा भी हो हमने लोकतन्त्र को अब तक बचाए रखा है और हमारी शासन व्यवस्था आम तौर पर संविधान सम्मत है। पाकिस्तान में लोकतन्त्र के नाम पर तो लोक के पास कुछ बचा ही नहीं, सबकुछ तन्त्र(सेना) के पास है। पाकिस्तान की इस दुर्दशा की भविष्यवाणी मौलाना अबुल कलाम आजाद ने 1947 में ही कर दी थी। पाकिस्तान जा रहे मुसलमानों को तभी उन्होंने चेताया था कि उनकी स्थिति पाकिस्तान में दोयम दर्जे की रहेगी। ये बातें आज वहाँ सच साबित हो रही हैं।
11 अगस्त 1947 को मोहम्मद जिन्ना ने जो भाषण दिया था, उस भाषण के कथ्य की कसौटी पर यदि पाकिस्तान को परखें तो वह कहीं नहीं टिकता। यहाँ भी महात्मा गाँधी के सपनों का भारत दूर दूर तक नहीं दीखता। लेकिन हालात से लड़ते-लड़खड़ाते भी भारत आज दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। सैन्य शक्ति के सन्दर्भ में ग्लोबल फायरपावर ने दुनिया के 133 देशों की जो श्रेष्ठता सूची बनायी है, उसमें भारत का स्थान चौथा है। परमाणु, अन्तरिक्ष और आईटी प्रौद्योगिकी में भी भारत की दुनिया में अच्छी जगह है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो भारत को और देशों (खासकर पड़ोसियों) की तुलना में विशिष्ट बनाती है वह भारत के लोक की शक्ति है। भारत के पिछले 75 वर्षों का राजनीतिक इतिहास और जो कुछ हो, इस देश की लोकशक्ति का प्रमाण भी है। केन्द्र की ‘मजबूत’ सरकार को भी इस देश की जनता ने अपने मतदान से कई बार पलटा है।
आजादी के 75 वर्ष बाद इन उपलब्धियों पर सचमुच हम इतरा सकते थे,यदि चीन से 1962 के युद्ध में हम हारे नहीं होते, 1975 में इन्दिरा गाँधी की सरकार ने देश में इमरजेंसी नहीं लगाई होती, 1984में भोपाल गैस दुर्घटना नहीं हुई होती, 1990 के बाद कश्मीरी हिन्दुओं का कश्मीर से पलायन नहीं हुआ होता, 1992 को राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के विवादित ढाँचे को अराजक तरीके से ध्वस्त नहीं किया गया होता, 1996 के हवाला काण्ड में चर्चित राजनेताओं के नाम उजागर नहीं हुए होते, 2002 में गोधरा में कार सेवकों की हत्या और गुजरात के दंगे नहीं हुए होते, 2008 की यूपीए ने अपनी सरकार बचाने के लिए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को घूस नहीं दिया होता, भाजपा(भारतीय जनता पार्टी) के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण को रिश्वत मामले में सीबीआई अदालत ने दोषी करार नहीं दिया होता, 2012 के निर्भया मामले की बर्बरता ने पूरे देश को हिलाया नहीं होता, विडम्बनाओं की यह सूची कुछ और लम्बी हो सकती है।
आजादी के बाद के 75 वर्षों में से लगभग 50 वर्षों तक केन्द्र में काँग्रेस की या काँग्रेसी नेतृत्व के गठबन्धन की सरकार रही है, इसलिए देश की अधिकांश उपलब्धियों के लिए काँग्रेस का दावा गलत नहीं है। फिर तो भ्रष्टाचार, आर्थिक विषमता, बेरोजगारी,साम्प्रदायिकता और राजनीतिक मूल्यहीनता जैसी गम्भीर समस्याओं के लिए भी जिम्मेवार काँग्रेस को ही ठहराया जाना चाहिए। 1996 के आम चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और उसने अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में अन्य दलों के समर्थन से केन्द्र में पहली बार सरकार बनायी, लेकिन यह सरकार 13 दिनों में गिर गयी। फिर 1998 में भाजपा ने जो सरकार बनायी वह तेरह महीनों तक ही चली। लेकिन 1999 के आम चुनाव के बाद भाजपा के नेतृत्व में राजग की जो सरकार बनी उसने 2004 तक का अपना कार्यकाल पूरा किया। फिर कॉंग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार को 10 वर्षों तक मनमोहन सिंह ने चलाया। 2014 में भाजपा की स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनी और 2019 में तो नरेन्द्र मोदी ने ऐतिहासिक बहुमत से भाजपा को जीत दिलायी। भाजपा की राजनीति से हिन्दुत्व की आक्रामकता और कॉंग्रेस की राजनीति से मुस्लिम तुष्टिकरण को अलग कर दिया जाए तो फिर कॉंग्रेस और भाजपा में सिर्फ झण्डा और नारा का ही फर्क बच जाता है। विकास, निजीकरण, सरकारी संस्थाओं का राजनीतिक उपयोग आदि के मामले में काँग्रेस ने जो नीति बनायी और जैसा आचरण किया, भाजपा ने उस परम्परा को बहुत आगे बढ़ाया है।
यह अजीब विरोधाभास है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिस काँग्रेस पर मुसलमानों की उपेक्षा का आरोप लगता था उसी काँग्रेस ने आजादी के बाद मुस्लिम तुष्टिकरण को अपना राजनीतिक उपकरण बना लिया। सवर्ण (खासकर ब्राह्मण), मुसलमान और हरिजन आजाद भारत में काँग्रेस के वोट के मजबूत आधार थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मण्डल कमीशन के लागू करने के बाद पिछड़ी जातियों की राजनीतिक एकजुटता ने काँग्रेस के वर्चस्व को तोड़ा था। मण्डल की राजनीति का प्रभाव अब भी क्षेत्रीय पार्टियों में बचा हुआ है,लेकिन कमण्डल की राजनीति इन दोनों पर भारी पड़ रही है। जातियों की एकजुटता से राजनीतिक सत्ता बनाई और बचाई जा सकती है तो धर्म के नाम पर की गयी गोलबन्दी से स्थायी सत्ता बनाई जा सकती है,यह बात भाजपा ने अच्छी तरह से समझ ली है। इसलिए अकारण नहीं कि भाजपा का साम्राज्य देश में बढ़ता जा रहा है और काँग्रेस लगातार सिकुड़ती जा रही है।
निःसन्देह पिछले आठ वर्षों में भाजपा के कारण जो राजनीतिक एकध्रुवीयता देश में बढ़ी है वह लोकतन्त्र के लिए बड़ा खतरा है। सिर्फ शहरों का नाम ही नहीं, देश के लोगों को, देश की जमीन और देश के आसमान को जिस तरह से बदला जा रहा है वह संविधान की भावना के प्रतिकूल है। धर्म के नाम पर चलने वाली राजनीति का कार्पोरेट से अटूट गठबन्धन हो गया है। इसलिए इस देश में नागरिक कम होते जा रहे हैं और हिन्दू उपभोक्ताओं की संख्या बढती जा रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने एक फ़रवरी 2000 को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम. एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने 249 सिफारिशें की थीं। संविधान संशोधन के नाम पर यह संविधान को बदलने की बड़ी भाजपाई परियोजना थी। व्यापक विरोध के कारण तब यह टल गयी। ध्यान रहे यह परियोजना संसद से टली है, भाजपा के मन से नहीं।
ऐसे नाजुक समय में ईमानदार और सचेत बुद्धिजीवियों की भूमिका ज्यादा बढ़ जाती है। इस संकट में वे बुद्धिजीवी काम नहीं आएँगे जो हिन्दू कट्टरता पर तो शोर मचाते हैं लेकिन मुस्लिम कट्टरता पर चुप रह जाते हैं। इन्हीं चुप्पियों ने भाजपा की बढ़त में खाद पानी का काम किया है। यह आपको तय करना है कि आप भाजपा के लिए खाद बनेंगे या संविधान के रक्षक।