चौकीदार को चोर कहने के लिए कोर्ट की फटकार के बाद राहुल गाँधी ने तो माफ़ी माँग ली है, शहीदों के नाम पर वोट मांगने वाले नरेन्द्र मोदी भी शायद अफ़सोस जाहिर करें | जया प्रदा के बारे में अमार्यादित टिप्पणी करने के लिए आजम खान सामाजिक कटघरे में हैं| शहीद हेमन्त करकरे के बारे में भाजपा उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर का यह विवादास्पद बयान ‘उसे कसाब ने नहीं मारा,वह मेरे श्राप से मरा है’ लोगों के गले नहीं उतर रहा है| मौजूदा चुनावी जंग में इस तरह की अमार्यादित टिप्पणियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की अराजक होड़ मची हुई है| आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों और अपराधियों के परिवार के सदस्यों को उम्मीदवार बनाने के मामले में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपनी बेशर्मी बढ़ायी है|
भारत की संसदीय राजनीति में जाति का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है| उम्मीदवारों का नाम तय करने से लेकर जीत के गणित तक में जाति निर्णयकारी भूमिका में होती है| इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि चुनावी राजनीति का वर्तमान स्वरूप भयंकर जातिवादी है,इसलिए जो जातिवादी नहीं हैं उनके लिए इस संसदीय राजनीति में मतदान करने के अलावा कोई और भूमिका (लगभग) नहीं है| पतन के पाताल में जा रही राजनीतिक नैतिकता को थामने वाला कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका की मौजूदगी के बावजूद कोई तन्त्र नहीं दिख रहा है| इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अन्त में और आजादी के इकहत्तर वर्षों के बाद भी विडम्बना यह कि राजनीति का शास्त्र जो कहता है राजनीति के व्यवहार में वह दूर दूर तक लागू नहीं होता| या तो हमारे राजनीतिशास्त्री शास्त्र रचने में कोई गलती कर रहे हैं या हमारे राजनीतिज्ञ शास्त्र की सीमाओं का उल्लंघन कर रहे हैं| दोनों ही बातें लोकतन्त्र के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं।
शास्त्र कहता है कि जनता मतदान के द्वारा अपना संसदीय प्रतिनिधि चुने और (सबसे बड़े संसदीय दल के) चुने हुए प्रतिनिधि प्रधानमन्त्री को चुनें| 1984 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद जिस तरह से उनके पुत्र राजीव गाँधी को प्रधानमन्त्री बनाया गया,कहीं से नहीं लग रहा था कि भारत जैसे बड़े लोकतान्त्रिक देश का प्रधानमन्त्री नियुक्त हो रहा है,लग यही रहा था कि किसी निजी कम्पनी का मैनेजर बदला जा रहा है| तब राजीव गाँधी का कॉंग्रेस और राजनीति से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं था,वे हवाई जहाज उड़ाने वाले एक विशुद्ध पायलट थे| बोफोर्स घोटाले को राजनीतिक मुद्दा बनाकर 1989 में जब चौधरी देवी लाल के सहयोग से विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बहुमत हासिल किया तो संसदीय दल की बैठक में नेता चौधरी देवीलाल चुने गये थे,लेकिन देवीलाल ने प्रधानमन्त्री की टोपी राजा विश्वनाथ प्रसाद सिंह के सर पर रख दी|
2004 के लोकसभा चुनाव के बाद कॉंग्रेस संसदीय दल ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी को अपना नेता चुना लेकिन सोनिया गाँधी ने मनमोहन सिंह का नाम प्रस्तावित किया जिसे संसदीय दल ने स्वीकार कर लिया| राजनीतिक शास्त्र के विरुद्ध अब तो प्रधानमन्त्री का नाम लेकर चुनाव लड़ने की परम्परा इतनी प्रबल हो चुकी है कि जो पार्टी चुनाव से पहले अपना प्रधानमन्त्री घोषित नहीं करती है उसका राजनीतिक मुहिम रक्षात्मक हो जाता है| राजनीतिक नियमों से छेड़छाड़ हमारी संसदीय राजनीति के लिए अब छोटी बात है,बल्कि बड़े बड़े राजनीतिक घपलों का अभ्यास परवान पर है|
भारतीय लोकतन्त्र की सबसे बड़ी बाधा जन प्रतिनिधियों का कमजोर चरित्र है| सेवा करने के बजाय भोग और विलास ही अधिकांश जन प्रतिनिधियों का परम लक्ष्य बन गया है,इसलिए जनपक्षीय मुद्दों पर अमूमन उनका ध्यान नहीं जाता| 2004 से केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ने अपने कर्मियों के लिए पेंशन व्यवस्था समाप्त कर दी,लेकिन आश्चर्यजनक रूप से यह पेंशन व्यवस्था सांसदों और विधायकों के लिए जारी है| अगर हमारे जन प्रतिनिधियों में न्यूनतम नैतिकता,निष्ठा और राजनीतिक इमानदारी होती तो वे कहते कि हमारे देश के शिक्षकों,कर्मचारियों को जब पेंशन नहीं मिलता है तो हमें भी पेंशन नहीं चाहिए| सुख सुविधा हासिल करने के मामले में सभी सांसद और विधायक एकजुट हो जाते हैं,इसलिए यह मान लेने में हर्ज नहीं है कि राजनीतिक क्षेत्र में नैतिकता और ईमानदारी अब दुर्लभ गुण है|
यह राजनीति सुधरे कैसे यह एक बड़ा सवाल है| सिर्फ नेताओं के ऊपर दोष मढ़कर हम बरी नहीं हो सकते| चुनाव में नेता मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए जातीय गोलबन्दी के अलावा भावनात्मक मुद्दों को उठाते हैं, झूठे वादे और पैसों का प्रलोभन देते हैं| इतने से यदि बात बनती हुई नहीं दिखती है तो वे डराने धमकाने से भी बाज नहीं आते हैं| अल्पसंख्यकों के मन में सायास यह भय बैठाया गया है कि अमुक पार्टी की छत्रछाया में ही तुम सुरक्षित हो, अमुक पार्टी को ही वोट दो वरना तुम्हारी खैर नहीं…| पैसे लुटाकर नेता वोट लेने में यदि कामयाब हो रहे हैं तो हमारी जनता नेता से कम भ्रष्ट नहीं है और उसके पास कोई नैतिक अधिकार नहीं बचता कि वह नेताओं को जिम्मेवार ठहराए।
ये छिछली बातें वोट का आधार बनें इससे ख़राब और क्या हो सकता है? हमें ऐसी राजनीति का बीज बोना चाहिए जो जाति और सम्प्रदाय की बात न करे| समाज से भूख,भय,हिंसा,अत्याचार,गैरबरा बरी और बेरोजगारी समाप्त करने वाली राजनीति की हमें जरूरत है,ऐसी कोई पार्टी हो तो सामने आए|
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किशन कालजयी
लेखक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'संवेद' और लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक 'सबलोग' के सम्पादक हैं। सम्पर्क +918340436365, kishankaljayee@gmail.com
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