हिन्दू बनाम हिन्दू
भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई, हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई पिछले पाँच हजार सालों से भी अधिक समय से चल रही है और उसका अन्त अभी भी दिखाई नहीं पड़ता। इस बात की कोई कोशिश नहीं की गयी, जो होनी चाहिए थी कि इस लड़ाई को नजर में रख कर हिन्दुस्तान के इतिहास को देखा जाए। लेकिन देश में जो कुछ होता है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा इसी के कारण होता है।
सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपन्थियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिन्दू धर्म के अलावा वे बँट गये, अक्सर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने में कामयाब हो गये। हिन्दू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपन्थियों का झगड़ा चला आ रहा है जिसमें कभी एक की जीत होती है कभी दूसरे की और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ है, लेकिन झगड़ा आज तक हल नहीं हुआ और झगड़े के सवालों पर एक धुन्ध छा गया है।
हिन्दू धर्म अब तक अपने अन्दर उदारवाद और कट्टरता के झगड़े का हल क्यों नहीं कर सका, इसका पता लगाने की कोशिश करने के पहले, जो बुनियादी दृष्टि-भेद हमेशा रहा है, उस पर नजर डालना जरूरी है। चार बड़े और ठोस सवालों – वर्ण, स्त्री, सम्पत्ति और सहनशीलता – के बारे में हिन्दू धर्म बराबर उदारवाद और कट्टरता का रुख बारी-बारी से लेता रहा है।
चार हजार साल या उससे भी अधिक समय पहले कुछ हिन्दुओं के कान में दूसरे हिन्दुओं के द्वारा सीसा गला कर डाल दिया जाता था और उनकी जबान खींच ली जाती थी क्योंकि वर्ण व्यवस्था का नियम था कि कोई शूद्र वेदों को पढ़े या सुने नहीं। तीन सौ साल पहले शिवाजी को यह मानना पड़ा था कि उनका वंश हमेशा ब्राह्मणों को ही मन्त्री बनाएगा ताकि हिन्दू रीतियों के अनुसार उनका राजतिलक हो सके। करीब दो सौ वर्ष पहले, पानीपत की आखिरी लड़ाई में, जिसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान पर अँग्रेजों का राज्य कायम हुआ, एक हिन्दू सरदार दूसरे सरदार से इसलिए लड़ गया कि वह अपने वर्ण के अनुसार ऊँची जमीन पर तम्बू लगाना चाहता था। करीब पन्द्रह साल पहले एक हिन्दू ने हिन्दुत्व की रक्षा करने की इच्छा से महात्मा गाँधी पर बम फेंका था, क्योंकि उस समय वे छुआछूत का नाश करने में लगे थे। कुछ दिनों पहले तक, और कुछ इलाकों में अब भी हिन्दू नाई अछूत हिन्दुओं की हजामत बनाने को तैयार नहीं होते, हालाँकि गैर-हिन्दुओं का काम करने में उन्हें कोई एतराज नहीं होता।
आधुनिक साहित्य ने हमें यह बताया है कि केवल स्त्री ही जानती है कि उसके बच्चे का पिता कौन है, लेकिन तीन हजार वर्ष या उसके भी पहले जबाल को स्वयं भी नहीं मालूम था कि उसके बच्चे का पिता कौन है और प्राचीन साहित्य में उसका नाम एक पवित्र स्त्री के रूप में आदर के साथ लिया गया है। हालाँकि वर्ण व्यवस्था ने उसके बेटे को ब्राह्मण बना कर उसे भी हजम कर लिया। उदार काल का साहित्य हमें चेतावनी देता है कि परिवारों के स्रोत की खोज नहीं करनी चाहिए क्योंकि नदी के स्रोत की तरह वहाँ भी गन्दगी होती है। अगर स्त्री बलात्कार का सफलतापूर्वक विरोध न कर सके तो उसे कोई दोष नहीं होता क्योंकि इस साहित्य के अनुसार स्त्री का शरीर हर महीने नया हो जाता है। स्त्री को भी तलाक और सम्पत्ति का अधिकार है। हिन्दू धर्म के स्वर्ण युगों में स्त्री के प्रति यह उदार दृष्टिकोण मिलता है जबकि कट्टरता के युगों में उसे केवल एक प्रकार की सम्पत्ति माना गया है जो पिता, पति या पुत्र के अधिकार में रहती है।
हिन्दू धर्म में सम्पत्ति की भावना संचय न करने और लगाव न रखने के सिद्धान्त के कारण उदार है। लेकिन कट्टरपन्थीहिन्दू कर्म-सिद्धान्त की इस प्रकार व्याख्या करता है कि धन और जन्म या शक्ति का स्थान ऊँचा है और जो कुछ है वही ठीक भी है। सम्पत्ति का मौजूदा सवाल कि मिल्कियत निजी हो या सामाजिक, हाल ही का है। लेकिन सम्पत्ति की स्वीकृत व्यवस्था या सम्पत्ति से कोई लगाव न रखने के रूप में यह सवाल हिन्दू दिमाग में बराबर रहा है। अन्य सवालों की तरह सम्पत्ति और शक्ति के सवालों पर भी हिन्दू दिमाग अपने विचारों को उनकी तार्किक परिणति तक भी नहीं ले जा पाया। समय और व्यक्ति के साथ हिन्दू धर्म में इतना ही फर्क पड़ता है कि एक या दूसरे को प्राथमिकता मिलती है।
आम तौर पर यह माना जाता है कि सहिष्णुता हिन्दुओं का विशेष गुण है। यह गलत है, सिवाय इसके कि खुला रक्तपात अभी तक उसे पसन्द नहीं रहा। हिन्दू धर्म में कट्टरपन्थी हमेशा प्रभुताशाली मत के अलावा अन्य मतों और विश्वासों का दमन कर के एकरूपता के द्वारा एकता कायम करने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन उन्हें भी सफलता नहीं मिली। उन्हें अब तक आम तौर पर बचपना ही माना जाता था क्योंकि कुछ समय पहले तक विविधता में एकता का सिद्धान्तहिन्दू धर्म के अपने मतों पर ही लागू किया जाता था, इसलिए हिन्दू धर्म में लगभग हमेशा ही सहिष्णुता का अंश बल प्रयोग से ज्यादा रहता था, लेकिन यूरोप की राष्ट्रीयता ने इससे मिलते-जुलते जिस सिद्धान्त को जन्म दिया है, उससे इसका अर्थ समझ लेना चाहिए। वाल्टेयर जानता था कि उसका विरोधी गलती पर ही है, फिर भी वह सहिष्णुता के लिए, विरोधी के खुल कर बोलने के अधिकार के लिए लड़ने को तैयार था।
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इसके विपरीत हिन्दू धर्म में सहिष्णुता की बुनियाद यह है कि अलग-अलग बातें अपनी जगह पर सही हो सकती हैं। वह मानता है कि अलग-अलग क्षेत्रों और वर्गों में अलग-अलग सिद्धान्त और चलन हो सकते हैं, और उनके बीच वह कोई फैसला करने को तैयार नहीं। वह आदमी की जिन्दगी में एकरूपता नहीं चाहता, स्वेच्छा से भी नहीं, और ऐसी विविधता में एकता चाहता है जिसकी परिभाषा नहीं की जा सकती, लेकिन जो अब तक उसके अलग-अलग मतों को एक लड़ी में पिरोती रही है। अत: उसमें सहिष्णुता का गुण इस विश्वास के कारण है कि किसी की जिन्दगी में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए, इस विश्वास के कारण कि अलग-अलग बातें गलत ही हों यह जरूरी नहीं है, बल्कि वे सच्चाई को अलग-अलग ढंग से व्यक्त कर सकती हैं।
कट्टरपन्थियों ने अक्सर हिन्दू धर्म में एकरूपता की एकता कायम करने की कोशिश की है। उनके उद्देश्य कभी बुरे नहीं रहे। उनकी कोशिशों के पीछे अक्सर शायद स्थायित्व और शक्ति की इच्छा थी, लेकिन उनके कामों के नतीजे हमेशा बहुत बुरे हुए। मैं भारतीय इतिहास का एक भी ऐसा काल नहीं जानता जिसमें कट्टरपन्थी हिन्दू धर्म भारत में एकता या खुशहाली ला सका हो। जब भी भारत में एकता या खुशहाली आयी, तो हमेशा वर्ण, स्त्री, सम्पत्ति, सहिष्णुता आदि के सम्बन्ध में हिन्दू धर्म में उदारवादियों का प्रभाव अधिक था। हिन्दू धर्म में कट्टरपन्थी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनैतिक दृष्टियों से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है। मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूट कर छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया, कट्टरपन्थी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश में एकता तभी आयी जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था।
आधुनिक इतिहास में देश में एकता लाने की कई बड़ी कोशिशें असफल हुईं। ज्ञानेश्वर का उदार मत शिवाजी ओर बाजीराव के काल में अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन सफल होने के पहले ही पेशवाओं की कट्टरता में गिर गया। फिर गुरु नानक के उदार मत से शुरू होनेवाला आंदोलन रणजीत सिंह के समय अपनी चोटी पर पहुँचा, लेकिन जल्दी ही सिक्ख सरदारों के कट्टरपन्थी झगड़ों में पतित हो गया। ये कोशिशें, जो एक बार असफल हो गईं, आजकल फिर से उठने की बड़ी तेज कोशिशें करती हैं, क्योंकि इस समय महाराष्ट्र और पंजाब से कट्टरता की जो धारा उठ रही है, उसका इन कोशिशों से गहरा और पापपूर्ण आत्मिक सम्बन्ध है।
इन सब में भारतीय इतिहास के विद्यार्थी के लिए पढ़ने और समझने की बड़ी सामग्री है जैसे धार्मिक संतों और देश में एकता लाने की राजनैतिक कोशिशों के बीच कैसा निकट सम्बन्ध है या कि पतन के बीज कहाँ हैं, बिल्कुल शुरू में या बाद की किसी गड़बड़ी में या कि इन समूहों द्वारा अपनी कट्टरपन्थी असफलताओं को दुहराने की कोशिशों के पीछे क्या कारण है? इसी तरह विजयनगर की कोशिश और उसके पीछे प्रेरणा निंबार्क की थी या शंकराचार्य की, और हम्पी की महानता के पीछे कौन-सा सड़ा हुआ बीज था, इन सब बातों की खोज से बड़ा लाभ हो सकता है। फिर, शेरशाह और अकबर की उदार कोशिशों के पीछे क्या था और औरंगजेब की कट्टरता के आगे उनकी हार क्यों हुई?
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देश में एकता लाने की भारतीय लोगों और महात्मा गाँधी की आखिरी कोशिश कामयाब हुई है, लेकिन आंशिक रूप में ही। इसमें कोई शक नहीं कि पाँच हजार वर्षों से अधिक की उदारवादी धाराओं ने इस कोशिश को आगे बढ़ाया, लेकिन इसके तत्कालीन स्रोत में, यूरोप के उदारवादी प्रभावों के अलावा क्या था – तुलसी या कबीर और चैतन्य और संतों की महान परम्परा या अधिक हाल के धार्मिक-राजनैतिक नेता जैसे राममोहन राय और फैजाबाद के विद्रोही मौलवी? फिर, पिछले पाँच हजार सालों की कट्टरपन्थी धाराएँ भी मिल कर इस कोशिश को असफल बनाने के लिए जोर लगा रही हैं और अगर इस बार कट्टरता की हार हुई, तो वह फिर नहीं उठेगी।
अब तक हिन्दू धर्म के अन्दर कट्टर और उदार एक-दूसरे से जुड़े क्यों रहे और अभी तक उनके बीच कोई साफ और निर्णायक लड़ाई क्यों नहीं हुई, यह एक ऐसा विषय है जिस पर भारतीय इतिहास के विद्यार्थी खोज करें तो बड़ा लाभ हो सकता है। अब तक हिन्दू दिमाग से कट्टरता कभी पूरी तरह दूर नहीं हुई, इसमें कोई शक नहीं। इस झगड़े का कोई हल न होने के विनाशपूर्ण नतीजे निकले, इसमें भी कोई शक नहीं। जब तक हिन्दुओं के दिमाग से वर्ण-भेद बिल्कुल ही खत्म नहीं होते, या स्त्री को बिल्कुल पुरुष के बराबर ही नहीं माना जाता, या सम्पत्ति और व्यवस्था के सम्बन्ध से पूरी तरह तोड़ा नहीं जाता तब तक कट्टरता भारतीय इतिहास में अपना विनाशकारी काम करती रहेगी और उसकी निष्क्रियता को कायम रखेगी। अन्य धर्मों की तरह हिन्दू धर्म सिद्धान्तों और बँधे हुए नियमों का धर्म नहीं है बल्कि सामाजिक संगठन का एक ढंग है और यही कारण है कि उदारता और कट्टरता का युद्ध अभी समाप्ति तक नहीं लड़ा गया और ब्राह्मण-बनिया मिल कर सदियों से देश पर अच्छा या बुरा शासन करते आए हैं जिसमें कभी उदारवादी ऊपर रहते हैं कभी कट्टरपन्थी।
उन चार सवालों पर केवल उदारता से काम न चलेगा। अन्तिम रूप से उनका हल करने के लिए हिन्दू दिमाग से इस झगड़े को पूरी तरह खत्म करना होगा।
हिन्दू व्यक्तित्व दो हिस्सों में बँट गया है। अच्छी हालत में हिन्दू सगुण सत्य को स्वीकार कर के भी निर्गुण परम सत्य को नहीं भूलता और बराबर अपनी अन्तर्दृष्टि को विकसित करने की कोशिश करता रहता है, और बुरी हालत में उसका पाखंड असीमित होता है। हिन्दू शायद दुनिया का सबसे बड़ा पाखंडी होता है, क्योंकि वह न सिर्फ दुनिया के सभी पाखंडियों की तरह दूसरों को धोखा देता है बल्कि अपने को धोखा दे कर खुद अपना नुकसान भी करता है। सगुण और निर्गुण सत्य के बीच बँटा हुआ उसका दिमाग अक्सर इसमें उसे प्रोत्साहन देता है। पहले, और आज भी, हिन्दू धर्म एक आश्चर्यजनक दृश्य प्रस्तुत करता है। हिन्दू धर्म अपने माननेवालों को, छोटे-से-छोटे को भी, ऐसी दार्शनिक समानता, मनुष्य और मनुष्य और अन्य वस्तुओं की एकता प्रदान करता है जिसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। दार्शनिक समानता के इस विश्वास के साथ ही गन्दी से गन्दी सामाजिक विषमता का व्यवहार चलता है।
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मुझे अक्सर लगता है कि दार्शनिक हिन्दू खुशहाल होने पर गरीबों और शूद्रों से पशुओं जैसा, पशुओं से पत्थरों जैसा और अन्य वस्तुओं से दूसरी वस्तुओं की तरह व्यवहार करता है। शाकाहार और अहिंसा गिर कर छिपी हुई क्रूरता बन जाते हैं। अब तक की सभी मानवीय चेष्टाओं के बारे में यह कहा जा सकता है कि एक न एक स्थिति में हर जगह सत्य क्रूरता में बदल जाता है और सुंदरता अनैतिकता में, लेकिन हिन्दू धर्म के बारे में यह औरों की अपेक्षा ज्यादा सच है। हिन्दू धर्म ने सचाई और सुंदरता की ऐसी चोटियाँ हासिल कीं जो किसी और देश में नहीं मिलतीं, लेकिन वह ऐसे अँधेरे गढ़ों में भी गिरा है जहाँ तक किसी और देश का मनुष्य नहीं गिरा। जब तक हिन्दू जीवन की असलियतों को, काम और मशीन, जीवन और पैदावार, परिवार और जनसंख्या वृद्धि, गरीबी और अत्याचार और ऐसी अन्य असलियतों को वैज्ञानिक और लौकिक दृष्टि से स्वीकार करना नहीं सीखता, तब तक वह अपने बँटे हुए दिमाग पर काबू नहीं पा सकता और न कट्टरता को ही खत्म कर सकता है, जिसने अक्सर उसका सत्यानाश किया है।
आज हिन्दू धर्म में उदारता और कट्टरता की लड़ाई ने हिन्दू-मुस्लिम झगड़े का ऊपरी रूप ले लिया है लेकिन हर ऐसा हिन्दू जो अपने धर्म और देश के इतिहास से परिचित है, उन झगड़ों की ओर भी उतना ही ध्यान देगा जो पाँच हजार साल से भी अधिक समय से चल रहे हैं और अभी तक हल नहीं हुए। कोई हिन्दू मुसलमानों के प्रति सहिष्णु नहीं हो सकता जब तक कि वह उसके साथ ही वर्ण और सम्पत्ति के विरुद्ध और स्त्रियों के हक में काम न करे। उदार और कट्टर हिन्दू धर्म की लड़ाई अपनी सबसे उलझी हुई स्थिति में पहुँच गयी है और संभव है कि उसका अन्त भी नजदीक ही हो। कट्टरपन्थी हिन्दू अगर सफल हुए तो चाहे उनका उद्देश्य कुछ भी हो, भारतीय राज्य के टुकड़े कर देंगे न सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम दृष्टि से बल्कि वर्णों और प्रांतों की दृष्टि से भी। केवल उदार हिन्दू ही राज्य को कायम कर सकते हैं। अत: पाँच हजार वर्षों से अधिक की लड़ाई अब इस स्थिति में आ गयी है कि एक राजनैतिक समुदाय और राज्य के रूप में हिन्दुस्तान के लोगों की हस्ती ही इस बात पर निर्भर है कि हिन्दू धर्म में उदारता की कट्टरता पर जीत हो।
राममनोहर लोहिया
(जुलाई, 1950 प्रकाशित प्रसिद्ध निबन्ध ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ का एक सम्पादित अंश)