सिस्टम के कंधे पर लाशों का बोझ
बिहार के ‘माउंटेन मैन’, दशरथ माँझी को शायद ही कोई होगा, जो नहीं जानता होगा। उस समय लोग इनसे और भी अच्छे से परिचित हो गये, जब नवाजुद्दीन सिद्दकी जैसे कलाकार ने उनके जीवन को परदे पर पुन: जीवन्त कर दिया। दशरथ माँझी जिस गाँव में रहते थे, वहाँ से पास के कस्बे में जाने के लिए भी एक पूरा पहाड़ पार करना पड़ता था। उनके गाँव में उन दिनों न बिजली थी, न पानी। गाँव के लोग छोटी से छोटी जरूरतों के लिए पूरे पहाड़ को पार करते थे।
दशरथ माँझी को गहलोर पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का जूनून तब सवार हुआ, जब पहाड़ के दूसरे छोर पर लकड़ी काट रहे अपने पति के लिए खाना ले जाने के क्रम में उनकी पत्नी फाल्गुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गयी और उनका निधन हो गया। उनकी पत्नी की मौत दवाईयों और ईलाज के अभाव में हो गयी, क्योंकि समय पर वे अस्पताल नहीं पहुँच सकी।
यह बात उनके मन को अंदर तक झकझोर कर रख देता है। तब उन्होंने पहाड़ काटकर रास्ता निकालने का निर्णय लिया और इसके लिए सरकार से मदद भी मांगी। किन्तु, उन्हें हर तरफ निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद दशरथ माँझी ने संकल्प लिया कि वह अपने दम पर ही पहाड़ के बीच से रास्ता निकलेंगे, ताकि कोई और उनकी पत्नी की तरह मौत के मुंह में न समा सके। इस तरह वे बिहार के दशरथ माँझी के दुख ने उन्हें देश का ‘माउंटेन मैन’ बना दिया।
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किन्तु, ऐसे सिलसिलों का थमना इतना आसान नहीं है। न जाने हर साल कितने ही लोग अव्यवस्था और बद्इंतजामी के बीच दम तोड़ देते हैं। 24 अगस्त 2016 को ओड़िशा के एक आदिवासी दाना माँझी को अपनी पत्नी का शव कंधे पर उठाकर 12 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ा था। दाना माँझी की पत्नी अमांग की भवानीपटना के एक अस्पताल में मौत हो गयी थी, जहाँ वे टीबी के इलाज के लिए भर्ती थीं।
अस्पताल ने कथित तौर पर शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया कराने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद वे कंधे पर अपनी पत्नी का शव उठा कर पैदल ही गाँव की ओर निकल पड़े थे। इसके बाद भी लगातार कई ऐसी खबरें आती रही, जिसमें बेबसी और मजबूरी में इंसानों ने इंसानों के शव के रूप में सिस्टम के शव को अपने कंधे पर ढोया। हाल ही में लॉकडाउन के दौरान बिहार के जहानाबाद में एक बच्चे की मृत्यु भी अव्यवस्था के बीच हो गयी। वे भी अपने बेटे का शव अपने कंधे पर रोती-बिलखती ढोती रही, क्योंकि अस्पताल ने कथित तौर पर शव ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया कराने से इनकार कर दिया था।
औरंगाबाद, मुज्जफरपुर, औरैया के अलावे न जाने कितने मजदूरों और मजबूरों की मौत लॉकडाउन के दौरान अव्यवस्था और बद्इंतजामी की बलि चढ़ गयी। पैदल चलने और भूख प्यास के साथ-साथ कई हादसों ने इनकी सांसों को छीन लिया। एक तरफ जब फूल बरसायें जा रहे थें, तब उसी समय सड़कों पर बदहवास चल रहे ये मजबूर लोग अपने पैरों में पड़े छालों को देख रहे थें और पत्थरायी आंखों से उम्मीद लगाए थे कि कोई उन पर भी रहम करे। कोई उन्हें उनकी घर वापसी करा दे।
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यहाँ तक कि जिन पर फूलों की बरसा हो रही थी, वे भी यही सोच रहे थे कि काश! इस खर्चे से हमारे लिए सुविधायें खरीद लिया जाता तो कई डॉक्टर भी बेमौत मरने से बच जाते।लेकिन दूसरों के दर्द से किसी को क्या लेना-देना है। इन मजबूरों की लाशों की संख्या अभी भी कम पड़ रही थी। शायद यही कारण रहा होगा कि लॉकडाउन में भी अपने-अपने कोष को भरने के लिए शराब की बिक्री शुरू कर दी गयी। डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक शराब की वजह से दुनिया भर में हर साल 30 लाख लोगों की मौत हो जाती है। यह एड्स, हिंसा और सड़क हादसों में होने वाली मौतों को जोड़कर प्राप्त आंकड़ों से भी ज्यादा है।
खासतौर पर पुरुषों के लिए यह खतरा ज्यादा रहता है। शराब और स्वास्थ्य पर संयुक्त राष्ट्र की स्वास्थ्य एजेंसी की यह नई रिपोर्ट बताती है कि दुनियाभर में हर साल होने वाली 20 में से 1 मौत शराब की वजह से होती है। इनमें शराब पीकर गाड़ी चलाने, हिंसा करने, बीमारी और इससे जुड़ी दूसरी विकृतियों की वजह से होने वाली मौतें भी इसमें शामिल हैं।
भारत में भी शराब के कारण होने वाली मौतों का आकड़ा भयावह है। हर साल 2.6 लाख भारतीयों की मौत शराब से हो रही है। इसमें लीवर की समस्या, कैंसर, नशे में ड्राइविंग के दौरान रोड ऐक्सीडेंट्स जैसे कारण प्रमुख हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, शराब के कारण दुनिया भर में हर दिन 6 हजार लोगों की मौत होती है। भारत में हर साल सड़क हादसे में होने वाली करीब 1 लाख मौतें अप्रत्यक्ष रूप से शराब के दुरुपयोग से सम्बन्धित हैं। वहीं, हर साल होने वाली 30 हजार कैंसर मरीजों की मौत के पीछे भी शराब का इस्तेमाल एक प्रमुख वजह है। (नवभारत टाइम्स, 16 मई 2020)
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शराब से होने वाली मौतों के भयानक आकड़ों के बावजूद कोरोना जैसी खतरनाक महामारी के दौर में भी राज्य और केन्द्र सरकार ने शराब बिक्री को आवश्यक श्रेणी का दर्जा देते हुए शुरू कर दिया। शराबखोरों ने भी शराब की दुकानों पर ऐसी भीड़ लगा दी, जैसे शराब नहीं अमृत बिक रहा हो। शराब के रूप में जहर बेचने वाले लोग अपनी निजी स्वार्थों के कारण हर वर्ष, न जाने कितने ही घरों को उजाड़ देते हैं। सभी राज्यों में शराब बिक्री के दौरान भरपूर अव्यवस्था देखी गयी, जो लाशों की बढ़ती संख्या को शायद ही रोक पाए।
बिहार में प्रत्यक्ष तौर पर तो शराब बिक्री लम्बे समय से बन्द है और इस बात की खुशी भी है। किन्तु दुख तब होता है, जब आसपास और घर-परिवार के लोग शराब में तल्लीन होकर घर लौटते हैं। इससे एक बात तो स्पष्ट है कि बिहार में भी अप्रत्यक्ष शराब की बिक्री आजतक बन्द नहीं हो पाई। इस तरह मौतों को निरंतर आमंत्रित किया जा रहा है।
अप्रत्याक्षित और अचानक हुए लॉकडाउन के दौरान नोटबन्दी से भी ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। अमीर अथव समृद्ध लोग तो अपने घरों में सुरक्षित बैठे, टाईम पास करने के तरह-तरह के नुस्खे अपना रहे हैं। किन्तु, समाज के निचले तबके के लोगों की जिंदगी छिन्न-भिन्न हो गयी है। सरकार द्वारा जो व्यवस्थायें दी जा रही है, वे संख्या के हिसाब से बेहद कम है। साथ ही यह सबकुछ बहुत ही विलंब से उपलब्ध कराया जा रहा है।
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यह उसी तरह है, जैसे देर से मिला न्याय, अन्याय की तरह। ऊपर से मजबूरों का फायदा उठाने वाले लोग भी कम नहीं हैं। इस स्थिति में भी उनका शोषण किया जा रहा है। ठेकेदार, मालिक, ट्रक चालक, राशन दुकान वाले आदि जिसको भी मौका मिल रहा है, वे इस विपदा की आड़ में अपनी तिजोरी भरने में लगे हैं। इन सबके बावजूद इस परेशानी को झेलने वाले मजदूरों और मजबूरों के बारे में कहा जा रहा है कि- “ये परेशानी नहीं, बल्कि मजदूर भाईयों की त्याग और तपस्या है।”
राजनीति के मोहरे चलने वाले नेता और पार्टियाँ इस महामारी की आड़ में भी जिस लूट की भूख को तृप्त करने में लगे हैं, वे किसी अधर्म के मार्ग से कम नहीं हैं। वे शायद, ये भूल गये हैं कि मृतक के परिवार तो बस अपने परिवार के एक सदस्य की लाश का बोझ उठाएगा। लेकिन हमारा यह बदहाल सिस्टम उन अनगिनत बेकसूरों और मजबूरों की लाशों का बोझ महाराज धृतराष्ट्र की तरह राजनीति और मोह-माया में लिप्त होकर अपने कंधे पर उठाता रहेगा, जिसके लिए उसकी प्रजा कभी क्षमा नहीं प्रदान करेगी।
देश के लिए राजा होता है कि राजा के लिए देश, यह सवाल भी फिर से मन में उभरने लगा है। एक ही समाज में वोट देने वाले लोगों के साथ उनके हैसियत के मुताबिक भेदभाव क्यों? कौन है, इन सब का जिम्मेदार? क्यों हर बार समाज का सबसे संघर्षशील और मजबूर वर्ग ही बेमौत मरने को बाध्य है। क्यों लोगों को अन्न पैदा करके अन्नदाता अपना पेट नहीं भर पाता।
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विपत्ति के इस दौर में आत्मनिर्भरता और स्वदेशी अपनाने का उपदेश देने वाले लोग, क्या खुद अपने जीवन में पूरी तरह स्वदेशी हो पाएँगे? यहाँ आत्मनिर्भरता का मतलब क्या है? यह भी स्पष्ट होना जरूरी है। ‘माउंटेन मैन’ बनकर खुद ही पहाड़ काटकर रास्ता बनना, दाना माँझी बन कर एम्बुलेंस नहीं मिलने पर चुपचाप अपनी पत्नी का शव उठाकर अपनी मंजिल की ओर चल पड़ना या फिर करोड़ो मजदूरों की तरह खामोश सड़कों को चिरते हुए, बिना कोई सहयोग माँगे हजारों मील लम्बे रास्ते पर पैदल ही निकल पड़ना। बिना किसी शिकायत के अपने भाग्य को अपने हाथों से लिखने के लिए मजबूर होना, भले ही इस भाग्य में बेमौत, मौत ही क्यों न शामिल हो। या फिर कुछ और है।
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