मुनादी

चौबीसवें तीर्थंकर महावीर का वास्तविक जन्मस्थान

 

किसी देश के इतिहास या ऐतिहासिक सच पर उस देश की राजनीतिक स्थितियों का व्यापक असर पड़ता है। विदेशी शासकों के अधीन रहे हमारे देश के कई ऐतिहासिक तथ्य इस सचाई के शिकार रहे हैं।

जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण महावीर के जन्म स्थान को लेकर पुरातत्त्वविदों एवं इतिहासकारों में भ्रम इसका उदाहरण है। यूरोपीय पुरातत्त्वविद हरमन जैकोबी, हार्नले तथा विसेंटस्मिथ की धारणा थी कि वैशाली(बिहार) ही महावीर का जन्म स्थान है, जिसे सन 1948 में ही प्राचीन इतिहास के पुरोधा डॉ.. योगेन्द्र मिश्र ने भी सही मान लिया। बिहार के तत्कालीन शिक्षा सचिव डॉ. जगदीश चन्द्र माथुर ने भी इसी धारणा की पुष्टि करते हुए वैशाली महोत्सव की शुरुआत करवा दी। पर जैनियों के बहुत बड़े वर्ग का तीर्थ के रूप में जमुई (तब मुंगेर जिले का एक अनुमण्डल, अब बिहार का एक जिला) आना जाना लगा रहा, जिसने 1961 में कुमार कालिका मेमोरियल कालेज, जमुई महाविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर डॉ. श्यामानन्द प्रसाद का ध्यान आकर्षित किया।

अतिरिक्त रुचि के कारण उन्होंने जैनियों के इस स्थान की यात्रा के कारणों की पड़ताल की तथा उस स्थान तथा वहाँ पाए जाने वाले भग्नावशेषों का अध्ययन आरम्भ किया। उन्होंने इस अनुसन्धान को सही दिशा में आगे बढ़ाया, इसीलिए इस मुद्दे को अवधारणात्मक और तार्किक अभिव्यक्ति मिली। उन्होंने टीम वर्क के साथ भगवान महावीर के वास्तविक जन्मस्थान से सम्बन्धित सारे स्थलों का श्रमसाध्य निरीक्षण किया, यथाशक्ति खुदाई करायी, फोटोग्राफ तैयार किये तथा प्रशासन के सहयोग से जरूरी मूर्तियाँ प्रकाश में लायीं। जमुई के ऐतिहासिक क्षेत्रों ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि उन्होंने इन तथ्यों से पर्दा हटाने का संकल्प लिया और ‘अनुमण्डलीय साहित्य संस्कृति अनुसन्धान केन्द्र,जमुई’ की स्थापना की।

इस क्रम में उन्होंने साक्ष्यों का एक सशक्त संकलन अपनी पुस्तक ‘श्रमण भगवान महावीर का जन्मस्थान- क्षत्रियकुण्डग्राम जमुई’ के रूप में प्रस्तुत किया। जगह-जगह विचार-गोष्ठियों का उन्होंने आयोजन किया। उनकी उक्त पुस्तक जन्मस्थान से सम्बन्धित सभी सूत्रों, धार्मिक आख्यानों,लोक चर्चाओं एवं स्थल के पूर्णरूपेण निरीक्षण की परिणति है। इन तथ्यों को विस्तार से प्रस्तुत करने के उद्देश्य से उन्होंने ‘जमुई का इतिहास’ नामक शोधात्मक पुस्तक भी लिखकर प्रकाशित करवायी। डॉ प्रसाद की उक्त पुस्तक की समीक्षा के क्रम में श्री रंजन सूरिदेव जी ने लिखा है-“शोध सूक्ष्मेक्षिका-सम्पन्न लेखक ने भगवान महावीर की जन्मभूमि और निर्वाण भूमि से सम्बद्ध भौगोलिक और ऐतिहासिक स्थलों की जो पहचान प्रस्तुत की है, उसमें पर्याप्त तथ्य हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि लेखक ने अँधेरे में लाठी नहीं चलायी है, अपितु उसने स्वीकृत विषय से सम्बद्ध शास्त्रीय साक्ष्यों का पाण्डित्यपूर्ण पुनर्मूल्यांकन उपस्थापित किया है।” उनके इस गुरुतर कार्य का समर्थन तत्कालीन प्राचीन इतिहासकारों, भारतीय पुरातत्त्व विभाग की बिहार शाखा के मूर्धन्य पुरातत्त्वविदों एवं जैनधर्म के प्रतिष्ठित मुनियों ने भी किया और तत्सम्बन्धी प्रस्ताव पर प्रामाणिकता की मुहर भी लगा दी।

उन्होंने इस कार्य में जाने माने इतिहासकारों और पुरातत्त्वविदों का ध्यान आकर्षित करने में सफलता पायी, फिर पुरातत्त्व से जुड़े सरकारी विभागों का भी ध्यान इस ओर गया और काफी खोजबीन के बाद यह समझ में आया कि जैन धर्म ग्रन्थों में महावीर के जन्म स्थान के रूप में पर्वत मालाओं से घिरे जिस खत्तिय अर्थात क्षत्रिय कुण्डग्राम की चर्चा है वह वैशाली न होकर जमुई जिले के लछुआड़ ग्राम के निकट का स्थान है। (लछुआड़ वास्तव में लिच्छवी का परिवर्तित रूप है। )

इस बात पर तो मतैक्य है कि महावीर की माता त्रिशला थीं, जो वैशाली के राजा चेटक की बहन थीं तथा महावीर का जन्म ईसा के लगभग छठी शताब्दी पूर्व क्षत्रिय कुण्डग्राम नामक स्थान में हुआ था। कुण्डग्राम एक महाग्राम था जो दो ग्रामों में विभक्त था – ब्राह्मण (माहण) कुण्डग्राम और क्षत्रिय (खत्तिय) कुण्डग्राम। त्रिशला क्षत्रिय कुण्डग्राम के राजा सिद्धार्थ की पत्नी थीं। क्षत्रिय कुण्डग्राम वास्तव में कहाँ है, वैशाली में या जमुई के लछुआड़ में–विवाद इस पर रहा।

डॉ. श्यामानन्द प्रसाद ने जैन सूत्रों तथा ग्रन्थों में वर्णित भौगोलिक परिवेश की चर्चा का अध्ययन कर तथा स्थलों का भ्रमण एवं अनुसंधान कर यह समझ लिया कि जमुई के लछुआड़ के समीप ही क्षत्रिय कुण्डग्राम है। इस विषय पर उनकी लिखी पुस्तक ने इतिहासकारों का ध्यान आकर्षित किया। नवम्बर 1984 में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए एक ऐतिहासिक सम्मेलन ने बहुत हद तक उस धुन्ध को साफ़ कर दिया जो महावीर के जन्मस्थान के सन्दर्भ में सदियों से छाया हुआ था।

जैनियों के तीर्थ स्थल गिरिडीह (अब के झारखण्ड) में स्थित पारसनाथ के मधुबन में तीन दिवसीय (24,25 और 26 नवम्बर 1984) ‘अखिल भारतीय इतिहासज्ञ विद्वत सम्मेलन’ सम्पन्न हुआ जिसमें सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ तथा पुरातत्त्वविद डॉ. राधाकृष्ण चौधरी, राम रघुवीर, भंवर लाल नाहटा, प्रकाश चरण प्रसाद, ठाकुर हरेन्द्र आदि तथा जैनियों के शीर्ष व्यक्तित्व श्री गुणसागर सुरीश्वर के साथ साथ सभी इतिहासविदों ने माना कि जमुई के सिकन्दरा अंचल के दक्षिण लछुआड़ ग्राम के निकट का स्थल ही क्षत्रिय कुण्ड ग्राम है जो श्रमण महावीर का जन्म स्थल है, वैशाली नहीं। उस सम्मलेन में कई महत्त्वपूर्ण आलेख और वक्तव्य प्रस्तुत किए गये जो अबतक अप्रकाशित हैं। उन्हीं में से कुछ आलेखों का चयन करके इस अंक की योजना को साकार किया गया है। इन आलेखों को उपलब्ध कराने और इनके चयन में हिन्दी के अध्यापक और लेखक रत्नेश कुमार सिन्हा का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

यह निर्विवाद तथ्य है कि विदेशी शासकों के अधीन रहने के कारण हमारा देश इतिहास के अपने मौलिक स्वरूप से सर्वथा भिन्न और प्रायः सुसुप्त अवस्था में रहा। विदेशी व्यवस्था ने हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की ऐतिहासिक सामग्रियों को समाप्त कर देने की तथा अपने हित के अनुकूल सिद्ध करने की हर सम्भव चेष्टाएँ कीं जिसके फलस्वरूप हमारी सभ्यता और संस्कृति के आधारभूत धरोहर या तो मिट्टी के बहुत भीतर दफन हो गये अथवा उन शासकों की क्रोधाग्नि के शिकार होकर रह गये। इससे हमारे इतिहास में काफी भ्रान्तियाँ उत्पन्न हो गयीं और उनकी मौलिकता नष्ट हो जाने से वे विद्रूप हो गये। फलतः कालान्तर में जो इतिहास बनाकर(मैनुफैक्चरड) दुनिया के सामने प्रस्तुत किया गया, उसके स्वरूप को सही आधार नहीं मिल सका। इस तथ्य को कई इतिहासकारों ने स्वीकार भी किया है और ऐतिहासिक तथ्यता की जाँच के लिए क्षेत्रीय इतिहास को खँगालने की आवश्यकता पर जोर भी दिया है।

यह भी सर्वविदित है कि पत्थर की कलात्मक, बहुमूल्य एवं सजीव मूर्तियाँ जिनमें हमारी संस्कृति की आत्मा बसती थी,विदेशी लुटेरों द्वारा या तो लूट लिये गये या तोड़ डाले गये। संग्रहालयों में स्थित मूर्तियों को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आज की अपेक्षा पहले कला के क्षेत्र में हमारा देश कितना समृद्ध था। ऐतिहासिक महत्त्व से प्रभावित ग्रामीण इलाकों में आप आज भी घूम जाएँ, चलते-चलते इन मूर्तियों की झाँकी आप सहज पा सकते हैं, जिन पर लुटेरों के काले पंजों की छाप मौजूद हैं। ये भग्न मूर्तियाँ इतिहास में रुचि रखनेवालों को बहुधा मौन निमन्त्रण देती हैं कि कोई उनकी सुने या सुनने की कोशिश करे।

साक्ष्य के अभाव में एक ओर महात्मा सूर और तुलसी जैसी विभूतियों के जन्म और मृत्यु की तिथियाँ विवादास्पद हैं तो दूसरी ओर साक्ष्यों के रहते जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्मस्थान भ्रान्ति के दायरे में पड़ा रहा।

ऐतिहासिक विवरणों से यह ज्ञात होता है कि महावीर के निर्वाण से पूर्व ही वैशाली के राजा चेटक कोणिक अजातशत्रु का युद्ध हुआ था। आवेश में आकर अजातशत्रु ने सम्पूर्ण वैशाली को हल चलवाकर ध्वस्त कर दिया था। निश्चय ही वैशाली के अन्तर्गत कुण्ड ग्राम या क्षत्रिय कुण्ड भी समाप्त हो गया होगा। महावीर के जीवनवृत्त से सम्बद्ध उल्लेखों के अनुसार उनके निर्वाण का समाचार पाकर उनके भाई नन्दिवर्धन, जो उस समय क्षत्रिय कुण्ड के स्वतन्त्र राजा थे, अपने भाई के निर्वाण स्थल, पावापुरी, पर अविलम्ब शोक विह्वल होकर पहुँचे थे। विचारणीय है कि अगर वैशाली के क्षत्रिय कुण्ड का अस्तित्व ही समाप्त हो गया तो नन्दिवर्धन वैशाली के किस क्षत्रिय कुण्ड की राजगद्दी पर आसीन थे। महावीर के निर्वाण पर नन्दिवर्धन का तुरन्त निर्वाण स्थल तक पहुँचना भी यह प्रमाणित करता है कि यह क्षत्रिय कुण्ड वैशाली नहीं, जमुई में ही था।

स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं द्वारा इस तथ्य को सामने लाने का प्रयास लब्ध प्रतिष्ठित इतिहासकारों एवं जैन धर्मशास्त्र के निष्णात विद्वानों द्वारा किया गया। इस सम्बन्ध में पार्श्वनाथ विद्यक्षरां शोध संस्थान, जैनाश्रम, हिन्दू यूनिवर्सिटी वाराणसी से प्रकाशित मासिक पत्र ‘श्रमण’ के जनवरी, 1968 के अंक में प्रकाशित कई शोधपूर्ण लेख द्रष्टव्य हैं। प्रोफेसर श्यामानन्द प्रसाद जी ने इस कार्य को आगे बढ़ाया। बावजूद इसके अबतक इतिहास की पुस्तकों में न तो कोई उपयुक्त परिवर्तन किया गया और न ही इस शोध को और भी प्रामाणिक सिद्ध करने के प्रस्तावित विचार-बिन्दुओं पर ही ध्यान दिया गया। इतना अवश्य है कि लखीसराय रेलवे स्टेशन पर स्टेशन का नाम इंगित करते पट्ट पर लिखा गया है कि ” भगवान महावीर के जन्म स्थान क्षेत्रिय कुण्ड जाने के लिए यहाँ उतरें।

महावीर का वास्तविक जन्मस्थान

क्षेत्रिय कुण्ड यहाँ से सड़क मार्ग द्वारा 30 कि मी है।” भारतीय रेलवे का यह कार्य एक तरह से केन्द्र सरकार की स्वीकारोक्ति है कि महावीर का जन्मस्थान(क्षत्रिय कुण्ड) लछुआर (जमुई,बिहार) है। फिर केन्द्र सरकार से सम्बद्ध शैक्षिक संस्थाएँ इस तथ्य को घोषित रूप से क्यों नहीं स्वीकार कर रही हैं यह एक महत्त्वपूर्ण सवाल है और इस सवाल का सिरा वोट केन्द्रित उस राजनीति से भी जुड़ा हुआ है जो मूल्यों के दायरे से मुक्त हो गयी है। अगर यह मामला ऐसे अल्पसंख्यक से जुड़ा होता जिनके पास एकमुश्त वोट की ताकत होती तो तय मानिए अब तक इस मुद्दे पर संज्ञान लिया जा चुका होता।

पुराने समय में भी राजा-महाराजा कला और संस्कृति की परवाह किया करते थे। एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तो इस तरह की सांस्कृतिक परवाह ज्यादा होनी चाहिए। किसी कारण से यदि किसी ऐतिहासिक मुद्दे पर कोई विवाद हो और उस विवाद को सुलझाने की दिशा में लेखकों, बुद्धिजीवियों और सन्तों की पहल पर्याप्त रोशनी डाल रही हो तो सरकार को इस रोशनी में अपनी दृष्टि साफ़ कर लेनी चाहिए। अनुसन्धान द्वारा जो भी तथ्य सामने आये हैं, उनकी पूर्णरूपेण पड़ताल हो और आवश्यक समझा जाए तो उनका पुनर्मूल्यांकन और फिर से उन स्थलों की पुरातात्त्विक समीक्षा हो ताकि यह सच जो अभी टुकड़े में दिख रहा है, एक सम्पूर्ण सच की तरह दुनिया के सामने आए

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किशन कालजयी

लेखक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'संवेद' और लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक 'सबलोग' के सम्पादक हैं। सम्पर्क +918340436365, kishankaljayee@gmail.com
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