स्वाधीन भारत के पचहत्तर वर्ष और उसके अन्तर्विरोध
“कौन आज़ाद हुआ?
किस के माथे से ग़ुलामी की सियाही छूटी,
मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का
मादर-ए-हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही”
मशहूर शायर अली सरदार जाफ़री द्वारा लिखी यह नज़्म आज़ाद भारत और आज़ादी के लब्बोलुआब पर कई तीखे प्रश्न उठाती है।
स्वाधीनता हमारे देश की बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के द्वारा भारत ने शताब्दियों की परतन्त्रता और निराशा से मुक्ति पायी थी। इस महादेश में सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु (647) ई. से लेकर दिल्ली सल्लनत की स्थापना (लगभग 1200 ई.) तक ‘राष्ट्र’ ओर ‘देश’ की अवधारणा व्यवहार में प्रायः पूरी तरह लुप्त रही। देश में एक केन्द्रीय शक्ति का अभाव था। छोटे–छोटे राज्यों के लिये छोटे–छोटे भूखण्ड प्रदेश ही राष्ट्र और देश थे। अपने देश को बचाने के लिये विदेशियों से सहायता माँगी जा रही थी। ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रीयता’ की संकल्पना की दृष्टि से यह घोर निराशा और अंधकर का युग था। फिर लगभग 1200 से लेकर 1947 ई. तक लगभग 750 वर्ष पूरी तहर विदेशी शासन–तन्त्र के जुए को ढोने में बीते इस प्रकार पहले साढ़े साढ़े पाँच सौ फिर साढ़े सात सौ कुल लगभग तेरह सौ वर्षो के पश्चात् स्वतन्त्रता प्राप्ति के अवसर पर भारतीय मानस एक राष्ट्र और देश की अवधारणा को साक्षात् रूप में पा सका।
सदियों से शोषित रहे देश की जर्जर हो चुकी सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के पुनरोत्थान के लिए तत्कालीन सरकार ने कुछ कदम उठाये जैसे–राज्यों का विलीनीकरण, जमींदारी प्रथा का अन्त, मजदूरों के हितों की रक्षा, उद्योगों की स्थापना, आर्थिक संस्थानों का राष्ट्रीयकरण, बालिग मताधिकर, छुआछूत को गैर कानूनी रूप देकर वर्ण वैषम्य दूर करना, पंचवर्षीय योजनाएँ बनाना इत्यादि।
15 अगस्त सन् 1947 से जनवरी सन् 1950 तक का युग, ‘डोमीनियन युग’ कहलाता है। इस अवधि में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देशी रियासतों को मिला कर भारतीय एकता का अभूतपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया। देश को स्वतन्त्र हुए कुछ महीने ही हुए थे कि देश पर अचानक बज्रपात हुआ। देश में बढ़ता हुआ साम्प्रदायिक उन्माद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया और जनवरी सन् 1948 को संध्या समय दिल्ली में गाँधी जी की हत्या कर दी गयी। इसी वर्ष पाकिस्तान में कायदे आजम जिन्ना की भी मृत्यु हो गयी। सन् 1949 में नया संविधान स्वीकृत हुआ और 26 जनवरी 1950 को भारतवर्ष नये विधान के अनुसार एक जनतान्त्रिक गणतन्त्र घोषित किया गया।
नेहरू का सतत् यह प्रयत्न रहा कि अपने पड़ोसी राष्ट्रो से बराबर ही मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखे जाएँ। अपने इसी उद्देश्य की पूर्णता के लिये चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, किन्तु 1962 ई. में ‘हिन्दी–चीनी भाई–भाई’ के नारे को पूर्णतः निस्सार सिद्ध करते हुए , बाडुंग सम्मेलन और नेहरू के पंचशील सिद्धांतों को सर्वथा बेमानी घोषित करते हुए चीन ने हमारी सीमाओं को बुरी तरह रौंद दिया और हमें एक लज्जा जनक हार और अपमान का तिक्त घूँट पीकर, अपनी नीतियो के पुनरीक्षण के लिये बाध्य होना पड़ा। चीन के साथ संघर्ष पूर्णतः शांत भी नहीं हो पाया था कि इसी बीच 27 मई, 1964 को नेहरू की नीतियों का अनुसरण लाल बहादुर शास्त्री ने किया। वे भी अपने पड़ोसी राष्ट्रो से मैत्री का व्यवहार रखना चाहते थे, पर उन्हें भी इस दिशा में विशेष सफलता न मिल सकी। इस बार पाकिस्तान ने भारत की सीमा पर पुनः आक्रमण किया। परिणामस्वरूप भारत–पाकिस्तान का संघर्ष हुआ।
स्वातन्त्रयोत्तर भारत में राजनैतिक उथल–पुथल के साथ ही नवीन औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप देश की समाजिक स्थिति तथा वर्ण–व्यवस्था में पर्याप्त परिवर्तन आया। अन्तर्राज्यीय तथा अन्तर्जातीय ही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन हुए। इस समय संयुक्त परिवार की समस्या जटिलतर रूप धारण करने लगी थी। बढ़ती हुई आर्थिक विषमता को वहन करने के लिये नारी के जीवन में भी आर्थिक संघर्ष प्रारम्भ हुआ। उसे भी आर्थिक दृष्टि से अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाने की आवश्यकता महसूस हुई। आजादी के बाद देश के सामजिक परिवेश में प्रेम तथा विवाह के क्षेत्र में स्वतन्त्रता, विवहोपरांत स्वतन्त्रता और यौन सम्बन्धी नैतिकता को नये मापदण्डों से मापा जाने लगा। बढ़ती हुई जीवन की व्यस्तता ने नारी और पुरूष के सम्बन्धों में क्रांति उत्पन्न कर दी।
आजादी के पहले भारत की अर्थव्यवस्था बुरी तरह से जर्जर हो चुकी थी। सन् 1943 के भयंकर अकाल ने भारत में मुखमरी को जन्म दिया। पूँजीपतियों एवं व्यापारियों के लिये यह स्वर्णिम अवसर था जिसका लाभ उठाकर उन्होंने अधिक से अधिक मुनाफा कमाकर अपने को आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ किया पर आम जनता के लिये यह जीवन और मरण का प्रश्न था। भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी के साथ ही भारत की बढ़ती जनसंख्या भी आर्थिक स्थिति को खोखला करने में सहायक हुई। लुइस फिशर ने भारत की गरीबी का कारण स्पष्ट करते हुए लिखा है, “भारत की जनसंख्या प्रतिवर्ष पचास लाख के हिसाब से बढ़ रही थी जो राष्ट्र के लिये सबसे बड़ी समस्या थी। जो देश जितना गरीब होता हैं जनसंख्या उतनी ही तेजी से बढ़ती है और जितनी तेजी से जनसंख्या बढ़ती देश उतना ही गरीब होता जाता है।”
सन् 1947 में शासन की बागडोर संभालते हुए नेहरू जी ने कहा-”हमें निश्चित रूप से उत्पादन बढ़ाना चाहिये, हमें राष्ट्रीय सम्पत्ति बढ़ानी चाहिये और साथ ही राष्ट्रीय लाभांश भी। तभी हम भारतीय जनता के रहन–सहन को ऊँचा उठा सकते है।” नेहरू के आश्वासन से भारतीय जनता में एक नये आशावाद का जन्म हुआ। परन्तु देश की सामान्य जनता की आर्थिक स्थिति बहुत संतोषप्रद न हो सकी।
जमींदारी का उन्मूलन, चकबन्दी, हदबन्दी, सहकारिता, कृषि क्रांति, ग्राम पंचायतें, मुखिया–सरपंच ब्लॉक–प्रमुख आदि का पदासीन होना, प्रखण्ड विकास पदाधिकारी अंचलाधिकारी, ग्राम–पंचायत निरीक्षकों, जन–सेवकों, ग्राम सेवकों की नियुक्तियाँ आदि सरकार की नीतियाँ व्यावहारिक रूप में सिर्फ सुविधा भोगियों के लिये ही थी। वस्तुतः गाँधी जी का राम राज्य का सपना भंग होता जा रहा था। भारत जो गाँवों का देश कहा जाता था। भ्रष्ट राजनीति के कारण हरे–भरे गाँव शमशान में बदलते गये। यह एक दुखद सच्चाई है कि उत्पादन बढ़ा, योजनाएँ सफल हुईं, परन्तु देश की आर्थिक समस्याएँ घटने के स्थान पर बढ़ती गयीं।
गाँव में आर्थिक विषमताओं की खाई और गहरी, चौड़ी हो गयी। तमाम सामूहिक नैतिक मूल्य और सम्बन्ध तेजी से बिखर रहे थे। राजनीति ने समाज में जातिवाद का ऐसा रंग घोला कि सैकड़ों वर्षो का भाईचारा ध्वस्त हो गया। स्वार्थ के दलदल में फँसी राजनीति के लिए यह संजीवनी बूटी ही साबित हुआ। फूट डालो और शासन करो की नीति ने भ्रष्ट राजनेताओं के ढहते हुए दुर्ग को और भी मजबूत कर दिया। आम आदमी की माली हालत बद से बदतर होती गयी। राजनीति की इस विसंगति, विद्रूपता और अमानवीयता ने न जाने समाज को कितने स्तरों पर तोड़ा, कितनी कुंठायें पैदा की और कितना त्रास पैदा किया।
दूसरी तरफ़ स्वतन्त्र भारत में जीवन–दृष्टि बदल रही थी। विज्ञान और तकनीक जीवन का अनिवार्य हिस्सा बन गया था। विज्ञान ने केवल भौतिक सभ्यता के उपकरणों का विकास ही नहीं किया, वरन् मनुष्य की चिंतन धारा को भी पूर्ण रूप से बदल दिया। भौतिकवादी विचारधारा के साथ ही मनोविज्ञान ने भी भारतीय जीवन को काफी प्रभावित किया। मार्क्सवाद समाजवादी विचारधारा के अलावा दूसरी प्रमुख विचारधारा फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद की थी। निराशा, अनास्था, आक्रोश मे जीने वाले मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को फ्रायड के दर्शन से बड़ा सम्बल मिला। मध्यवर्गीय आदर्शवादी नैतिकता यथार्थ की भूमि से टकराकर बिखर गयी। जिस मध्यवर्ग ने उक्त आदर्श की प्रतिष्ठा की थी, वही उनका खण्डन करके नये आदर्शो को समाज में प्रतिष्ठित करने के लिये व्यग्र हो उठा।
स्वातंत्र्योत्तर भारतीय परिवेश-1965 से अब तक
सन् 1966 तक आते आते पूर्णत: इस देश का मोह भंग हो चुका था। स्वतन्त्रता के पूर्व राष्ट्र को लेकर अनेक स्वप्न देखे गये थे; अथवा यूं कहें कि हमारे राष्ट्र पुरूषों द्वारा ऐसे अनेक स्वप्न दिखलाए गये थे।परन्तु प्रजातंत्रीय व्यवस्था स्वीकार कर लेने के बावजूद भी धीरे–धीरे यह देश भीतर ही भीतर टूटने लगा। औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण यह प्रवृत्ति और अधिक उभरने लगी।
जहाँ एक तरफ तेजी से बढ़ते मध्यवर्ग का सामान्य व्यक्ति सारे व्यक्तिगत सम्बन्धों और वृहत्तर सामाजिक सन्दर्भों में अपने को समझ रहा था, वहीं दूसरी तरफ एक खास और अलग तरह की असहायता और असमर्थता का बोध भी उसके भीतर सिर उठाने लगा था। उसने देखा की सत्ता की जोड़–तोड़ और कुर्सी की होड़ में राजनीति सारे देश के मनोविज्ञान पर हावी है, वही पुराना साम्राज्यवादी तन्त्र है, अफसर और नौकरशाही सामंतों और पूँजीपतियों के साथ मिलकर मनमनानी कर रहे हैं। तिकड़मों और हथकंडो के बीच सारे मानव–मूल्य दम तोड़ रहे है। यह सब देखकर सामान्य जन दिग्भ्रमित होता चला गया। जीवन के हर क्षेत्र में स्थापित मान्यताओं को चुनौती दी जाने लगी थी। इस दौर को मूल्य–संकट का दौर कहा जाता है। जिसका सबसे अधिक प्रभाव मानवीय सम्बन्धों के रूपों पर पड़ रहा था, ये सम्बन्ध भयंकर तनाव से गुजर रहे थे। वैज्ञानिक विकास तथा टेक्नालॉजी के बढ़ते हुए यांत्रिक चरण में नैतिक मूल्य तेज़ी से विघटित हो रहे थे और मनुष्य एक अनिवार्य संघर्ष, द्वंद्व और तनाव मे जी रहा था।
सातवे दशक के अंतिम वर्षो में एक ओर यदि देशी में पूँजी का संकट तीव्र हुआ, तो दूसरी ओर राजनीतिक दृष्टि से देश में एक बिखराव की झलक दिखती है। देश बहुत ही नाजुक दौर से गुजर रहा था। देश में तालाबन्दी, हड़ताल , घेराव और हिंसा से सर्वत्र अशांति पैदा हो गयी थी। देश को बाह्य ही नहीं आन्तरिक शत्रुओं से भी खतरा पैदा हो गया था। आपात स्थिति की घोषणा ने देश को बिखरने से तो बचा लिया किंतु उसके बाद अस्थिरता और बढ़ी। सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि युवा पीढ़ी की कोमल भावनाओं से राजनैतिक दलों ने अपने स्वार्थ का खेल खेलना शुरू कर दिया। सातवें दशक के अन्त में राकेश वत्स ने ‘मंच’ में समकालीन परिवेशगत परिस्थितियों के बारे में लिखा है, “देश में आई आजादी वास्तविक नहीं थी, गुलामी से आजादी में फर्क सिर्फ इतना आया था कि कुछ विदेशियों की जगह कुछ स्वदेशी सत्ता में आ गये। जन सामान्य को नपुंसक, पस्त विचार शून्य बनाने के लिये जिन हथकण्डों का प्रयोग विदेशी ताकतो ने किया उन्हीं का प्रयोग आज भी स्वदेशी सत्ता द्वारा किया जा रहा है। आम जनता के पहले शोषक अंग्रेज थे किन्तु अब वही शोषण जनता के अपने लोग देशवासी कर रहे हैं। शोषण का अंधकार दिन ब दिन गहराता जा रहा है और जनता व्यवस्था के आश्वासनों नारों, रोशनी के फरेब में आजादी के बाद भी बराबर भटक रही है।”
अबतक सरकारी दफ्तरों में भाई–भतीजावाद पूरी तरह फैल चुका था। समाजवाद और गरीबी हटाओ के थोथे नारों ने लागों को बुरी तरह गुमराह किया। जाति निरपेक्ष, धर्म निरपेक्ष समाज की रचना करने की बात करने वाले नेता वोटों की राजनीति करने के चक्कर में प्रजातान्त्रिक धर्म–निरपेक्ष देश में सबसे ज्यादा जातिवाद को बढ़ावा देने लगे। इस जातिगत राजनीति ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया दलित वर्ग को। राजनीतिक स्वतन्त्रता ने उनके मन को जगाया, उन्हें अपने अस्तित्व के प्रति सजग होना सिखाया पर व्यावहारिक स्तर पर कोई बहुत बड़ा फ़र्क़ नहीं आया।
यौन सम्बन्धों को लेकर जनसामान्य के दृष्टिकोण में थोड़ा परिवर्तन आ रहा था। सतीत्व, पतिव्रत जैसी धारणाओं पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे थे। समाज की नैतिकता प्रचलित लीक को छोड़ती जा रही थी। आर्थिक दवाबों ने संयुक्त परिवार व्यवस्था को छिन्न–भिन्न कर दिया था। समाज अर्थ केन्द्रित होने लगा था। आर्थिक सम्पन्नता प्रतिष्ठा का मानदण्ड बन गयी थी।सदियों से उपेक्षित नारी अपने वाज़िब हक़ और सम्मान पाने के लिये संघर्ष कर रही थी। वह राजनीतिक और प्रशासनिक सभी क्षेत्रों में, पुरूष के बराबर कुशलता और सफलता का परिचय दे रही थी। लेकिन हक़ीक़त में बराबरी अभी एक स्वप्न ही थी।
आठवें–नवें दशक में अर्थ की बढती हुई प्रतिष्ठा ने अधिकांश लोगो में अच्छे–बुरे के बीच एक प्रतिस्पर्धा की स्थिति पैदा कर दी थी। बढ़ते भ्रष्टाचार के परिणाम स्वरूप सुविधाएँ मुट्ठी भर लोगों की बपौती बन गयी थी। अमीर ओर गरीब के बीच खाई बढ़ती जा रही थी। इस स्थिति को देखकर कमलेश्वर कहते हैं, “कितना विचित्र और विकराल है यह दृश्य जो कुछ ही वर्षो में इस देश में हो गया है कि जहाँ जहर खाकर आदमी जीवित रह सकता है, पर एक कटोरी दाल पीकर मर सकता है, सड़े हुए बिजबिजाते जख्मों को लेकर जी सकता है, पर दवा लगाते या खाते ही मृत हो सकता है–जहाँ अस्पतालों में जल्लाद बैठे है और अदालता में हत्यारे–दुकानों में लुटेरे और दफ्तरों में दगाबाज़ खेतों में जमाखोर और उद्योग में खूनचोर , यही उसी देश में हो सकता है कि शाम को कानून पास हो तो सारा अनाज गायब हो जाएँ और दूसरे दिन जब कानून तोड़ लिया जाये तो मनमाने दामों पर बिक्री के लिये वही अनाज फिर निकल आयें, यह इसी देश में मुमकिन है कि आदमी को नंगा कर देने के लिये कपड़ा मिलें कपड़ा बनाएँ, इधर आदमी उतना ही निर्वस्त्र होता जा रहा है, दवाइयों की फैक्ट्रियां लगातार बढ़ती जाये और आदमी दवाइयाँ खरीदने लायक न रह जाये, नहरे खुदती जाये पर खेत खून से सिंचते जाये और जनता भूखी मरती जाये। रेलगाड़ियाँ दौड़ती रहे और लौग पैदल दौड़ने के लिये मबूर हो जाये, इमारते बनती जाएँ और आदमी बेघर होता जाये, गोदाम भरते जाये और जनता भूखी मरती जायेः–पुलिस बढती जाये और आदमी लुटता जाये, बैंक खुलते जाये और आदमी गरीब होता जाये। सरकारे बनती जाये और कानून टूटते जाये, आदमी पथराता जाये और खून के आँसू रोता जाये?”
ऐसा लगता है कि संघर्ष और पीड़ा ही इस बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी पहचान है। नाना प्रकार के बहुकोणीय पीड़ाओं से हर व्यक्ति भीतर कहीं लड़ रहा था। राजनीतिक संदर्भ ही उस समय समाज की प्रत्येक समस्या और सामाजिक यथार्थ के मूल में था। वस्तुतः यह यथार्थ इतना गड्डमड्ड था कि उसे राजनीतिक और सामाजिक यथार्थ के पृथक खानों में नहीं रखा जा सकता था। उस समय देश की सबसे मर्मघाती पीड़ा स्वच्छन्द उत्पीड़नमूलक व्यवस्था की पीड़ा थी जो गांव और शहरों को बराबर से उत्पीड़ित करती थी। गाँव में जहाँ यह जमींदारी उन्मूलन के बाद भी भूपति जमींदारी की मनमानी के रूप में जिंदा है, वहीं दिल्ली के वैभव की छाया में उसका फुटपाथी नरक छिपा हुआ है।
सर्वहारा आक्रोश, वर्ग–संघर्ष और हरिजन विद्रोह आदि की स्थितियाँ उसी पीड़ा की चरम सीमा से गुजरते कुचते दलित लोगों के साथ आये दिन उत्पन्न होती रही, किन्तु गहरे में जमा हुआ पूँजीवादी व्यवस्था का अभिशाप हिलाये नहीं हिला।कुल मिलाकर अस्सी और नब्बे के दशक का समय वह समय है जब कि आपातकाल आया, केन्द्र में कॉंग्रेस के वर्चस्व का अन्त हुआ, एक तरफ दलित और पिछड़े वर्गो का उदय हुआ, दूसरी ओर महिलाओं ने धीरे–धीरे ही सही अपने अधिकारों की माँग की, आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत हुई, बड़े पैमाने पर इलैक्ट्रानिक मीडिया आया उपभोक्तावाद ने जोर पकड़ा और वैश्वीकरण ने सोवियत रूस के पतन के साथ ही यूनिपोलर विश्व के कड़वे यथार्थ को सामने रखा, पुनरोत्थावानवादी ताकतों ने भगवे झंडे तले अपने को संगठित किया और साम्प्रदायिकता के नंगे नाच ने यकायक ताण्डव सा कर दिया।
बीसवीं सदी के अंतिम दशक से आज तक
बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के लिए कहा जाता है कि भारतीय पुनर्जारण पूर्व की हवा से शुरू हुआ था और सदी का अन्त पश्चिम की हवा से हुआ। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उत्तराधिकारी, जो कभी व्यापार के लिये यहाँ आए थे, अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ बाजारवाद, आर्थिक खुलापन उपभोक्तावादी संस्कृति और भूमंडलीकरण की राजनीति लेकर आये। इस समय सब कुछ को बाजार में तब्दील करने का प्रयास जोरों पर शुरू हुआ।
मिशेल फूको के शब्दो में ‘समुद्र के किनारे बनाये गये चेहरे की तरह मनुष्य का निशान मिट जायेगा।’ इस प्रकार के फूकूयामा के ‘इतिहास के अन्त’ और जॉकदेरिदा के ‘लिखित शब्दों की मृत्यु’ की घोषणाओं के साथ भारत में उत्तर–आधुनिकता की एक नई बहस ने जन्म लिया। सूचना और प्रसारण के अत्याधुनिक साधनों ने दुनिया की भौतिक दूरी समाप्त कर दी, बीसवीं सदी में ही विकसित रेडियो की जगह टी.वी. और उस पर चलने वाले दर्जनो चैनलों ने लिखित शब्द के अस्तित्व पर सवालिया निशान लगा दिया। शहरी जीवन में हर मर्ज की दवा कम्प्यूटर पर खोजी जाने लगी , विश्व बाज़ारीकरण के बहाने नए साम्राज्यवाद में कई रूपों में अपने हमले तेज कर दिये। जिसके तहत संस्कृति भी शेयर और सट्टा बाजार की तरह एक तरह का कारोबार हो गयी। नतीजतन बदले जीवन मूल्यों की रफ्तार काफी तेज हो गयी।
वस्तुतः इस समय एक ओर बढ़ते सामाजिक विघटन, घोर साम्प्रदायिकता, उग्र जातिवाद, दलित और स्त्री उत्पीड़न, दूसरी ओर उदारीकरण के खूबसूरत विज्ञापनी प्यार के खोल में लिपटी निर्ममता की भयानकता दिखायी देती हैं। देश में उभरते फासीवाद और कला के नाम पर चोर दरवाजे से घुसते नये साम्राज्यवाद के बीच की साँठ–गाँठ को समझने की कोशिश की जानी चाहिये।
सदी के अंतिम दशक से आज तक स्थिति कितनी भयावह और विस्फोटक चुकी है उसका अंदाजा करना मुश्किल है। आर्थिक मुद्दों के साथ ही हमारी पहचान भी संकटग्रस्त है। इलेक्ट्रोनिक, प्रिन्ट मीडिया और सोशल मीडिया के माध्यम से हमारे सामने कई खतरे पैदा किये जा रहे है। भारत का युवा वर्ग या तो आत्मकेंद्रित होकर सामाजिक राजनैतिक मुद्दों से कट गया या बढ़ती बेरोज़गारी, अपनी योग्यता अनुरूप अवसरों और जीवन स्तर के अभाव में अवसाद का शिकार हो गया या अपराध की ओर उन्मुख हो गया या धार्मिक उन्माद में बह गया। कुछ एक अपवाद जरूर है किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है। आज साम्प्रदायिकता का जहर समाज की नसों में फैलाने का काम तेज़ी से जारी है। आज की सिद्धांतहीन और मौकापरस्त राजनीति से आम आदमी बुरी तरह त्रस्त हैं। किसे अपना आदर्श माने कहाँ आस्था टिकाये? हर पनाहगाह में भय सा भर गया है।
इक्कीसवी सदी की शुरूआत से ही अत्यधिक विघटनकारी धार्मिक राष्ट्रवाद या जातीय राष्ट्रवाद का उभार देख रहे हैं। विघटनकारी विचारों का प्रभाव जबरदस्त रूप से पड़ा हैं। यह भयंकर विसंगति ही है कि जिस दौर में सम्प्रदायिकता अधिक से अधिक उग्र और हमलावर हुई है उसी समय मे हमारी आर्थिक सीमाओं का लगातार क्षरण हो रहा है। पूंजी के लेन–देन के लिये जिस समय हमने साम्राज्यवाद के लिये अपने दरवाजे खोले ठीक उसी समय सांप्रदायिकता बढ़ गयी। एक तरफ हम आधुनिकता के बारे बात करते है तो दूसरी तरफ मध्ययुगीन विचार धारा के दलदल फिर से खींच लेते हैं।
अपने स्वार्थ के लिये किसी भी हद तक जा सकने वाली साम्प्रदायिक राजनीति का एक और उदाहरण 6 दिसम्बर 2000 में अयोध्या की घटना के बाद से उत्पन्न हुए दंगों के रूप में देखा जा सकता हैं। सत्ता में बने रहने के लिये राजनीतिक दल को किसी भी प्रकार का समझौता करने से गुरेज नहीं था। इसका नतीजा गुजरात में भीषण नरसंहार के रूप में देखने को मिला। जिसमें हजार से भी ज्यादा जानों की आहूति दी गयी। गुजरात कीसाम्प्रदायिक हिंसा ने देश के सामने कई भयानक सवाल खड़े किये है। यकीनन यह विभाजन के बाद का सबसे बड़ा आधात है।
साम्प्रदायिक सौहाद्र, सद्भाव का हम सबका भरोसा, हमारी उम्मीदें, आज तार–तार होकर विखरी पड़ी हैं, इस विखरे हुए को जोड़ने का साहस आज भी किसी भी राजनैतिक दल के बूते के बाहर है। क्योंकि समय–समय पर सबके मुखौटे उतर चुके हैं और इस हम्माम में सब नंगे है। कुल मिलाकर ”हम भौतिक समृद्धि के बीच अतार्किक खालीपन से गुजर रहे हैं। इसे भरने में कठिनाइयाँ पेश आयेंगी। वस्तुतः आज आवश्यकता है एकजुट होकर भारत को बिखरने से बचाने की, अपने विवेक, चेतना और संवेदना को जिलाए और जगाए रखने की।
संदर्भ ग्रंथ व पत्र–पत्रिकाएँ
१–द लाइफ़ ऑफ महात्मा–लुइश फिशर, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई, १९५९
२–नयी कहानी और मध्यवर्ग–डॉ कामेश्वर प्रसाद सिंह, विजय प्रकाशन, नई दिल्ली, १९७२
३–मॉडर्न इंडिया–सर परसीवल ग्रिफ्थस, फ्रैडरीक प्रेजर , न्यूयॉर्क, अमेरिका
४–कथाक्रम , अक्टूबर–दिसम्बर–२००३, सम्पादक–शैलेंद्र सागर
५–कहानी , नववर्ष अंक–१९६९ , फ़रवरी , मार्च १९७६, फ़रवरी १९७८, अप्रैल १९७८, श्री सम्पतराय
६–कथादेश, जुलाई २००१