सेल्फी विद झाडू सीज़न
वर्ष 2014 के बाद से भारत में स्वच्छता की बातों का प्रचार-प्रसार बहुत तेजी से बढ़ा। सभी सरकारी संस्थानों में स्वच्छता अभियान के तहत, स्वच्छता पखवाड़ा मनाना अनिवार्य कर दिया गया। यह पखवाड़ा सितम्बर माह में शुरू करके अक्टूबर में समाप्त की जाती है। इस वर्ष भी इसे पूरे देश में बड़े ही धूमधाम से मनाया गया। गाँधी जी के यूटोपिया में जिस भारत की संकल्पना की गई थी, आज वह कोसों दूर प्रतीत हो रहा है। चारों ओर लूट-खसोट, झूठ-फरेब, भ्रष्टाचार, हिंसा आदि चरम पर है। सत्य, अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करने वाले गाँधी जी की पहचान आज इन सिद्धांतों से परे सिर्फ स्वच्छता तक सिमट गई है। आज गाँधी को सत्य, अहिंसा के लिए कम और साफ-सफाई के हिमायती के लिए ज्यादा याद किया जा रहा है, खासतौर पर 2014 के बाद गाँधी जी का बस यही रूप लोगों के सामने रखा जा रहा है। गाँधी जी को स्वच्छता अभियान के ब्रांड अंबेसडर के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। किन्तु जिन लोगों की भले की बात वे जीवनपर्यंत सोचते रहें, उस ओर शायद ही कोई ध्यान दे पा रहा है।
अभी कुछ दिन पहले विश्वविद्यालय और आस-पास के क्षेत्रों में कार्यरत सफाईकर्मियों से बातचीत के दौरान पता चला कि उन्हें मात्र 7500 रूपये महीने का वेतन दिया जाता है। महीने में सिर्फ चार दिन की छुट्टियां मिलती है। त्योहारों तक में छुट्टी नहीं दी जाती है। अक्सर ऐसा भी होता है कि कई महीनों तक वेतन भी नहीं दिया जाता है और इसकी शिकायत करने वाले लोगों को डराया-धमकाया जाता है या फिर नौकरी से निकाल दिया जाता है। दिन भर लोगों की गन्दगी साफ करने वाले सफाईकर्मियों का जीवन धरती पर ही नर्क से भी बद्तर हो गया है। किन्तु, स्वच्छता पखवाड़ा मनाने वाले और सोशल मीडिया के स्टेटस पर झाड़ू के साथ सेल्फी लगाने वाले लोग इनकी दयनीय स्थिति पर कभी बात नहीं करते हैं। झाड़ू के साथ फोटो खिंचवाने वाले अधिकांश लोग अक्सर पान और गुटखे के साथ आस-पास लाली फैलाते नजर आ जाते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि थूकने की जगह कहाँ है? फिर जहाँ लिखा होता है कि यहाँ थूकना मना है, वहीं ऐसे लोगा जरूर थूकते हैं। फिर यही लोग स्टेटस में साफ-सफाई के सिपाही के प्रतिमूर्ति बन जाते हैं और फोटो खिंचवाने के बाद फिर अपने असली रूप में आ जाते हैं। चारों तरफ लोग झाड़़ू लिए वैसे ही मिल जाते हैं, जैसे होली में पिचकारी लिए होते हैं। पूरा माहौल उत्सवी होता है। क्या अधिकारी, क्या चपरासी, क्या शिक्षक सब का ध्यान सफाई पर न होकर सिर्फ और सिर्फ फोटो खिंचवाने में होता है। संस्था प्रमुख के इस उत्सव में शामिल होते ही लोगों में झाड़ू के साथ सेल्फी का उत्साह अपने चरम पर पहुंच जाता है। यह उत्सव यहीं नहीं खत्म होता, इसकी पूरी रिपोर्ट मंत्रालय तक भेजी जाती है, तब जाकर यह उत्सव खत्म होता है। दुख तो तब होता है, जब सालों भर गन्दगी फैलाने वाले लोग आपको सबसे अग्रिम पंक्ति में दिखावे के लिए झाड़ू लिए खड़े रहते हैं।
स्वच्छता अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले अधिकांश लोग, स्वच्छता के असली सिपाही को शायद ही कभी सम्मान देते हैं। उन्हें तो इंसानों की श्रेणी से इतर ही रखा जाता है। नेशनल कमीशन फॉर सफाई कर्मचारी 2020 के आंकड़े के अनुसार पिछले 10 वर्षों में देश में सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान कुल 631 लोगों की मौत हुई है। पिछले लगभग पाँच वर्षों में मैला ढोने से होने वाली मौतों की सबसे अधिक संख्या वर्ष 2019 में देखी गई। सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान 110 मजदूरों की मौत हो गई। यह संख्या वर्ष 2018 की तुलना में 61% अधिक है, जिसमें इस तरह की मौतों के 68 मामले देखे गए। वर्ष 2018 में एकत्र किये गए आँकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 29,923 लोग हाथ से मैला ढोने के कार्य में लगे थे, जो भारत के किसी भी राज्य में सबसे अधिक है। इस आधुनिक और तकनीक के युग में भी लोगों को माथे पर मैला ढोना पड़ रहा है, सीवरेज में उतर कर सफाई करते हुए मौत को गले लगाना पड़ रहा है, जो किसी त्रासदी से कम नहीं है। फिर मौत के बाद मामले को दबाने के लिए मुट्ठी भर कागज के टुकड़े अर्थात् नोट परिवार वालों को चुप कराने के लिए पकड़ा दिया जाता है। समाज में ऐसी स्थिति इंसानों को विकृत और विषमतामूलक समाज का हिस्सा बना देता है। वह, फिर चाहकर भी आम इंसानों की तरह नहीं जी पाते हैं।
सफाई और सफाई कर्मचारियों दोनों की बदहाली कई उदाहरणों से समझा जा सकता है। 15 अगस्त, 2014 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने पहले संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मंच से ‘खुले में शौच’ मुक्त भारत की बात कही थी। यह आदत भारतीय समाज में पीढ़ियों से प्रचलित रही है और इस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना आज भी असंभव है। पिछले कुछ वर्षों में स्वच्छ भारत अभियान के तहत रिकॉर्ड स्तर पर शौचालय बनाए गए हैं, फिर भी आज भी भारत खुले में शौच से मुक्त नहीं हो पाया है और मैं स्वयं इसकी साक्षी हूँ। सुबह-शाम छत पर चढ़ते ही शौच करते कई लोगों पर हर रोज नजर पड़ ही जाती है।
सफाई के अन्य बातों पर भी ध्यान दें, तो भी कमोबेश हर तरफ हाल बुरा ही दिखता है। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन बनाया गया कि माँ गंगा को प्रदूषण से मुक्त किया जाएगा। आज कई साल बाद इस मिशन के पास सवालों के जवाब नहीं है। इसे लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट में सुनवाई चल रही है। मिशन कोर्ट के सवालों को संतुष्ट नहीं कर पा रहा है। गंगा के नाम पर कितने सौ करोड़ या हज़ार करोड़ पानी में बह गए, पता नहीं। काम की कोई निगरानी नहीं है। पानी साफ़ हुआ, इसकी जाँच के लिए ज़मीन पर पर्यावरण इंजीनियर नहीं है। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन पैसा बाँटने की मशीन बन गया है। यह खबर अमर उजाला के पेज नंबर छह पर छपी है। गंगा राष्ट्रीय राजनीति और अस्मिता के केंद्र में हैं पर गंगा के नाम पर झूठ बोला गया और अब लूट के संकेत मिल रहे हैं। (रवीश कुमार के वॉल से)। इस प्रकार करोड़ों के खर्च के बाद, आज भी गंगा मैली ही रह गई।
केंद्र सरकार द्वारा निरन्तर पर्यावरण संरक्षण और सफाई की बात की जा रही है, किन्तु यह कागजों पर ज्यादा और जमीनी स्तर पर कम दिखाई पड़ता है। स्वच्छता अभियान का जो चेहरा ट्रेनों और अन्य सार्वजनिक जगहों पर देखने को मिलता है, वह सरकारी विफलता को तो उजागर करता ही है, साथ ही यह जनता की इच्छा शक्ति और नियति पर भी सवाल खड़े करता है। अक्सर यह देखा जाता है कि सरकार वहीं विफल साबित होती है, जहाँ जनता मौन और निष्क्रिय हो जाती है। यह बात सर्वविदित है कि सरकार किसी की भी हो देश और देश की जनता का भला बहुत नहीं हो सकता, क्योंकि सरकार अपना हित पहले और जनता की हित बाद में सोचती है। और सरकार पर सवाल उठाने वाले देशद्रोही करार हो जाते हैं।
स्वच्छता अभियान की सफलता तभी सिद्ध हो सकती है, जब राजनीति से परे उठकर इसे आचरण में समाहित करने पर जोर दिया जाये। सफाईकर्मियों को सामाजिक बराबरी और सम्मानजनक वेतन के साथ-साथ तमाम सरकारी सुविधायें मुहैया करायी जाये। सभी ठेके पर काम करने वाले सफाईकर्मियों का नियमितिकरण किया जाये। साथ ही स्वच्छता अभियान एक दिन और एक महीने के दिखावे से इतर हर दिन, हर पल हमारे जीवन का हिस्सा बन जाये। अन्यथा गाँधी जी के सपनों के भारत से परे हम सेल्फी विद झाड़ू सीज़न की ओर अग्रसर होते रहेंगे।