नयी परिधि गढ़ते हुए
सत्यजित राय की जीवनी (सत्यजित राय: द इनर आई) लिखने के लिए एंड्रयू रोबिनसन जब (1987) शोध कर रहे थे तो अमेरिकी फिल्म निर्देशक जॉन हस्टन का एक पत्र उनके पास आया, जिसमें उन्होंने लिखा था कि 1954 में जब वे कलकत्ता (अब कोलकाता) आये थे तो किसी बांग्ला फिल्म निर्देशक ने उन्हें ‘पथेर पांचाली’ के एक मूक अंश को दिखाया था, जिसमें अप्पू और दुर्गा द्वारा भाप इंजन वाली रायलगाड़ी देखने की भावाभिव्यक्ति थी। उस दृश्य से हस्टन को लगा कि यह किसी महान फिल्मकार का ही काम हो सकता है। फिर इस फिल्म से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इसका अनुमोदन न्यूयार्क के म्युजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट के लिए किया जहाँ ‘पथेर पांचाली’ का पहला वर्ल्ड प्रीमियर शो (1955) हुआ। भारत में भी लगभग उसी समय यह फिल्म पहली बार प्रदर्शित हुई थी। प्रदर्शित होते ही यह विश्व-प्रसिद्ध फिल्म बन गयी। इस पहली बांग्ला फिल्म से ही सत्यजित राय का विश्व सिनेमा में नाम हो गया। एक युवा निर्देशक को उसकी पहली फिल्म से ही जो प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा मिल रही थी वह भारतीय सिनेमा के इतिहास की तो पहली और अनोखी घटना थी ही, विश्व सिनेमा में भी ऐसा उदाहरण दुर्लभ है।
फिल्म निर्माण के क्षेत्र में बिना किसी पेशेवर प्रशिक्षण के सत्यजित राय इतने बड़े फिल्मकार बने तो इसलिए कि उनकी प्रतिबद्धता और लगनशीलता लाजवाब रही है। उनके घर में कई पीढ़ियों से कला और संस्कृतिकर्म का अच्छा परिवेश रहा। उनके दादा उपेन्द्रकिशोर राय चौधरी चित्रकार,लेखक, प्रकाशक और दार्शनिक थे, जबकि उनके पिता सुकुमार राय बांग्ला में कविताएँ लिखते थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज से अर्थशास्त्र की पढ़ाई करने के बाद माँ सुप्रभा राय के कहने पर सत्यजित राय ने शान्तिनिकेतन में भी कुछ वर्षों की पढ़ाई की। वहीं उन्हें प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल बोस और बिनोद बिहारी मुखर्जी से बहुत कुछ सीखने का अवसर मिला। उनके जीवन में चित्रकला का ही यह महत्त्व था कि उनके कैरियर की शुरूआत एक विज्ञापन कम्पनी में जूनियर विज्वलाइजर के रूप में होती है। उनके फिल्मकार व्यक्तित्व पर उनके चित्रकार व्यक्तित्व का बहुत अधिक प्रभाव था इसलिए यह अकारण नहीं कि सत्यजित राय इस मायने में दुनिया के दुर्लभ फिल्मकार थे जो अपने भविष्य की फिल्मों के दृश्यों का स्केच पहले से बनाकर रखते थे। 1928 में प्रकाशित विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास पाथेर पांचाली के बाल संस्करण (अम अंतिर भेपू) का कवर और इसके लिए कई रायखाचित्र भी उन्होंने बनाये। आगे चलकर ये रायखाचित्र राय की पहली फिल्म पथेर पांचाली के महत्त्वपूर्ण शॉट्स बने।
1949 में फ्रांसीसी निर्देशक ज्यां रायनुआ अपनी फिल्म ‘द रिवर’ की शूटिंग के लिए लोकेशन की तलाश में कलकत्ता आये थे। राय ने लोकेशन तलाशने में रायनोआ की मदद की। तब रायनुआ को लगा कि राय में एक अच्छे फिल्मकार की बड़ी सम्भावना है। उन्होंने यह बात कही भी। यहीं से राय के मन में फिल्मकार बनने का सपना आकार लेने लगा।
1950 में डी.जे. केमर ने राय को अपनी कम्पनी के काम से लन्दन भेजा, जहाँ उन्होंने बहुत फिल्में देखीं। उन फिल्मों में एक अंग्रेजी फिल्म ‘बाइसकिल थीव्स’ थी जिसने सत्यजीत राय को काफी प्रभावित किया। भारत वापस लौटते हुए सफर के दौरान ही उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ बनाने का संकल्प ले लिया था। 1952 में ‘पथेर पांचाली’ के लिए सत्यजीत राय ने जब फिल्म की शूटिंग शुरू की तो उनके पास आर्थिक सुविधा पर्याप्त नहीं थी। इसलिए उन्होंने जो टीम बनायी उसमें छायाकार सुब्रत मित्रा और कला निर्देशक बंसी चन्द्रगुप्ता के अलावा सभी नौसिखिये थे। नये फिल्मकार की फिल्मों में आम तौर पर कोई पैसा लगाना नहीं चाहता। लेकिन ‘पथेर पांचाली’ में पैसे लगाने के लिए जो तैयार हुए वे अपने मन मुताबिक फिल्म में परिवर्तन चाहते थे जिसे राय ने नकार दिया। पश्चिम बंगाल सरकार इस फिल्म के लिए सहयोग करने के एवज में अपने कल्याणकारी कार्यक्रमों का फिल्म में प्रचार चाहती थी लेकिन सत्यजित राय इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। अन्ततः पश्चिम बंगाल सरकार के सहयोग से इस अनुभवहीन टीम ने सत्यजित राय के नेतृत्व में जो पहली फिल्म बनायी उसने इतिहास रच दिया। इस फिल्म को कई राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। इनमें फ्रांस के कांस फिल्म फेस्टिवल में मिला विशेष पुरस्कार बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट भी शामिल है।
सत्यजित राय ने लगभग तीन दर्जन फिल्में बनायीं जिनमें कुछ शार्ट और डॉक्युमेंट्री समेत दो हिन्दी की ‘शतरंज के खिलाड़ी’ (1977) और सद्गति (1982) शामिल हैं। उनकी फिल्मों के लिए उन्हें दो दर्जन से अधिक पुरस्कार मिले जिसमें ऑस्कर और भारत रत्न भी है। राय चार्ली चैपलिन के बाद दूसराय फ़िल्मकार थे जिन्हें ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरायट की उपाधि से सम्मानित किया। सत्यजित राय और माधबी मुखर्जी पहले भारतीय फिल्म व्यक्तित्व थे जिनकी तस्वीर किसी विदेशी डाक टिकट पर छपी।
सत्यजित राय का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उनकी प्रतिभा कई दिशाओं में चलती थी। फिल्म निर्माण के क्षेत्र में शायद ही कोई कार्य था जिसपर उनकी अच्छी पकड़ नहीं थी। पटकथा, निर्देशन, सम्पादन, कास्टिंग,पार्श्व संगीत, सम्पादन आदि में वे स्वयं माहिर थे, इसलिए फिल्म निर्माण में उनकी परनिर्भरता बहुत कम थी। बांग्ला और अंग्रेजी में उन्होंने कई टाइप फेस डिजाइन किये थे। उनके एक अंग्रेजी टाइप फेस ने तो 1971 में एक पुरस्कार भी जीता था।
सत्यजित राय की फिल्में इन अर्थों में मील का पत्थर साबित हुईं कि आज भी फिल्म अध्ययन की शुरूआत उनकी फिल्मों से ही होती है। उनके व्यक्तित्व और फिल्मों पर गौर करें तो लगता है कि राय व्यक्ति के साथ एक संस्थान भी हैं। फ़िल्मी दुनिया की चमक दमक राय की सहजता को प्रभावित नहीं कर पायी। स्थापित फ़िल्मकार बन जाने के बाद भी उन्होंने किराये के मकान में ही रहना पसन्द किया। जब बंगाल के अधिकांश अभिनेता, अभिनेत्री और निर्देशक मुम्बई की और रुख कर रहे थे तब राय कोलकाता में ही जमकर कार्य करते रहे। उन्होंने अपनी अधिकांश फ़िल्में बांग्ला में ही बनायीं। ‘शतरंज के खिलाड़ी’ प्रदर्शित होने के बाद उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें अच्छी हिन्दी आती तो यह फिल्म और अच्छी होती।
राय की प्रारम्भिक फिल्मों में गरीबी और विपन्नता प्रमुख विषय रहीं। प्रसिद्ध अभिनेत्री और सांसद नरगिस ने राय की आलोचना करते हुए कहा था कि राय अपनी फिल्मों के माध्यम से ‘गरीबी का निर्यात’ कर रहे हैं, उन्होंने माँग की कि ये आधुनिक भारत को दर्शाती हुई फ़िल्में बनाएँ। फ्रांस्वा त्रुफो ने ‘पथेर पांचाली’ को अच्छा नहीं कहा। न्यूयॉर्क टाइम्स के फिल्म समीक्षक बौजली क्राउथर ने तो इसकी बहुत बुरी समीक्षा लिखी। बावजूद इसके राय की फिल्मों का डंका विश्व में बजता रहा। दरअसल भारतीय सिनेमा में सत्यजित राय के साथ ही सिनेमा के एक नये युग की शुरूआत होती है जिसे हम यथार्थवादी सिनेमा कहते हैं, इन्हें कला सिनेमा और नया सिनेमा भी कहा गया। इसके पहले भारत में फिल्मों का जो चलन था उसका मुख्य उद्देश्य मनोरंजन था। मनोरंजन से फ़िल्में थोड़ी बाहर निकली भी तो ऐतिहासिक चरित्रों में ही फँसी रहीं। आजादी के पहले जो सामाजिक मूल्य थे फ़िल्में उन्हीं मूल्यों से संचालित होती थीं। सत्यजित राय ने भारतीय सिनेमा की नयी जमीन तैयार की। नयी जमीन से आशय यह है कि उन्होंने न सिर्फ फिल्म से जुड़े लोगों की सोच बदली बल्कि दर्शकों की अभिरुचि को भी बदल दिया। ‘पथेर पांचाली’ को देखकर सिनेमा घरों से बाहर निकलते हुए दर्शक वही नहीं रह जाते थे जो सिनेमा घरों में प्रवेश करने से पहले होते थे। इस तरह से भारतीय सिनेमा में दर्शकों का एक नया और जागरूक वर्ग तैयार हो रहा था। अपर्णा सेन, ऋतुपूर्ण घोष, गौतम घोष आदि बांग्ला फिल्म निर्देशकों के काम में सत्यजित राय के प्रभाव को आसानी से देखा जा सकता है।
राय की फिल्मों में चित्रित गरीबी और विपन्नता से चिढ़ने वाले लोगों को यह याद करना चाहिए कि 1943 में जब दूसरा विश्वयुद्ध अपने चरम पर था तब बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था। यह अकाल जापान के बर्मा पर कब्ज़ा कर लेने के बाद ही आया था। प्रोफ़ेसर रफीकुल इस्लाम (जो उस समय दस वर्ष के थे) ने एक बातचीत में बी.बी.सी. को बताया ‘यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी, यह मानव निर्मित आपदा थी। ग्रामीण इलाकों में खाद्य पदार्थ सिर्फ इसलिए नहीं थे क्योंकि फसल बर्बाद हो गयी थी बल्कि इसलिए भी क्योंकि अनाज को एक जगह से दूसरी जगह नहीं जाने दिया जा रहा था। अँग्रेज शासकों को यह डर था कि यह जापानियों के हाथों में न पड़ जाए’। इस भीषण अकाल से उबरने में बंगाल को वर्षों लग गये। विभूतिभूषण बन्द्योपाध्याय के उपन्यास ‘पथेर पांचाली’ में इस अकाल की घनी छाया रही है।
सिर्फ गम्भीर और यथार्थवादी फिल्मों के लिए ही नहीं साइंस फिक्शन के लिए भी राय को याद किया जाता है। उनकी लिखी जासूसी कहानियों पर आधारित फेलुदा नामक डिटेक्टिव काफी लोकप्रिय रहा। 1976 में राय ने रोबोर्ट पर एक एक लघुकथा ‘अनुकूल’ लिखी थी। उसी कहानी पर उसी नाम से सुजॉय घोष ने एक शार्ट फिल्म बनायी है। इस फिल्म को देखकर राय की सोच का अनुमान लगाया जा सकता है कि आज के समय में रोबोर्ट और आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के सन्दर्भ में जिस डर और संशय की व्याप्ति समाज में है उसकी चेतावनी राय ने अपनी कहानी के माध्यम से चालीस पचास वर्ष पहले दे रखी है।
बीसवीं शताब्दी पूरी दुनिया के लिए उथल-पुथल का इतिहास रहा है। लेकिन उसी उथल-पुथल में कई महापुरुष भी निखरकर सामने आये। विज्ञान के क्षेत्र में अलबर्ट आइंस्टीन की जो जगह है फिल्म के क्षेत्र में सत्यजित राय की भी वही जगह है। आने वाली पीढ़ियाँ जब जब भारतीय फिल्मों का इतिहास पढ़ेंगी राय का नाम बार बार उनके सामने आएगा। आज यदि कोई फिर से ‘पथेर पांचाली’ उपन्यास पर फिल्म बनाना चाहे तो वह कैसी फिल्म बनाएगा? क्या सत्यजित राय वाली ‘पथेर पांचाली’ को ही मानक माना जाए या कोई नयी लकीर खींची जाए? तकनीकी क्रान्ति की वजह से यह फिल्म निर्माण के लिए ज्यादा सम्पन्न समय है। लेकिन भूख और मनुष्यता के प्रश्न वही हैं जो सत्यजित राय ने उठाये थे। सत्यजित राय ने बाजार के लिए फ़िल्में नहीं बनायीं, उनकी फिल्मों को बाजार मिला। उन्होंने अपने उसूलों से कोई समझौता नहीं किया। फिल्म निर्माण के लिए जब जब हमें निष्ठा, लगन, साहस, प्रतिबद्धता और किफ़ायत की जरूरत होगी हमें सत्यजित राय के पास जाना होगा, ये हुनर हमें कोई संस्थान नहीं सिखा सकते।