‘संदीप और पिंकी फरार’ हुए धीमे धीमे से
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स्टार कास्ट: परिणीति चोपड़ा, अर्जुन कपूर, नीना गुप्ता, रघुबीर यादव, जयदीप अहलावत
निर्देशक: दिबाकर बनर्जी
आप किसी क्लब में जाएं तो वहाँ किस तरह की लड़की को चुनना चाहेंगे, जिसने लिपस्टिक लगाई हो या बिना लिपस्टिक वाली लड़की। मैं उसे उठाऊंगा जो बिना लिपस्टिक के होगी क्योंकि जिसने लिपस्टिक लगा रखी है उसके मन में खोट है। फ़िल्म की शुरुआत में यह संवाद ही बता देते हैं कि फिल्म को बनाने की नीयत में भी खोट होने वाला है।
खैर फ़िल्म की कहानी है संदीप और पिंकी की। जिसमें संदीप लड़की का नाम है और पिंकी लड़के का। अब यह भी जानबूझकर या फ़िल्म को रोचक बनाने के इरादे से किया गया है तो आपके इरादे नेक नहीं निकलते अफसोस। संदीप और पिंकी फरार एक ऐसी महिला की कहानी कहती है जिसमें लड़की की जान को खतरा है। सैंडी वालिया उर्फ संदीप (परिणीति चोपड़ा) जिस परिवर्तन बैंक के लिए काम करती है। उसका अपने बॉस, परिचय (दिनकर) के साथ निजी सम्बन्ध है। अब संदीप, परिचय के बच्चे के साथ गर्भवती हो जाती है और अबॉर्शन के लिए मना कर देती है। परिचय उसे खत्म करने का फैसला करता है। वह इस काम के लिए एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी, त्यागी (जयदीप अहलावत) को काम पर रखता है।
त्यागी को एक निलंबित सिपाही, सतिंदर दहिया उर्फ पिंकी (अर्जुन कपूर) का साथ मिलता है। उनकी योजना यह है कि पिंकी संदीप को लेने आएगा और उसे परिचय के घर ले जाएगा। रास्ते में, पुलिस द्वारा उनकी हत्या कर दी जाएगी। हालांकि पिंकी को त्यागी की मंशा पर शक होता है। इसलिए, जब वह रास्ते में होता है, तो वह जानबूझकर त्यागी को सामने वाली कार का नंबर देता है। दूर से, संदीप और पिंकी देखते हैं कि त्यागी के आदमी संदीप और पिंकी समझकर आगे की कार में सवार लोगों को खत्म कर देते हैं। संदीप और पिंकी फिर भाग जाते हैं। संदीप के सभी कार्ड और सोशल मीडिया हैंडल ब्लॉक कर दिए गए हैं। पिंकी फिर संदीप को उत्तराखंड के पिथौरागढ़ ले जाता है। वे पिथौरागढ़ में एक बूढ़े दम्पति (नीना गुप्ता और रघुबीर यादव) से मिलते हैं। पेट में बच्चा लिए घूम रही संदीप झूठ गढ़ती है। इसी तरह धीरे-धीरे कहानी आगे बढ़ती है।
दिबाकर बनर्जी और वरुण ग्रोवर की पटकथा सूखी और नीरस लगती है। फिल्म में बहुत कुछ घटित हो रहा है लेकिन कुछ है ऐसा जो इसकी खराब स्क्रिप्ट के कारण संदीप और पिंकी फरार को मसालेदार नहीं बनाता। ऐसा लगता है कि फ़िल्म के लेखकों ने जानबूझकर फ़िल्म को उबाऊ बना दिया है। दिबाकर बनर्जी और वरुण ग्रोवर के संवाद ठीक हैं लेकिन असरदार नहीं।
निर्देशन के मामले में भी दिबाकर चूकते हैं। इससे पहले ‘खोसला का घोसला’ , ‘ओए लक्की लक्की ओए’ , ‘लव सेक्स और धोखा’ तथा ‘डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी’ जैसी बढ़िया फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं। इस फ़िल्म में उनकी प्रतिभा की लकीर केवल कुछ ही दृश्यों में उभार पाती है। फ़िल्म में कई जगहों पर क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है फ़िल्म यह समझाने में विफल रहती है। ऐसा इसलिए भी होता है सम्भवतः क्योंकि फ़िल्म में साउंड पर ठीक से काम किया नहीं लगता है। कई बार तो डायलॉग तक ठीक से सुनाई नहीं देते। अर्जुन कपूर , जयदीप अहलावत, नीना गुप्ता जंचते हैं। परिणीति भी कहानी के के किरदार के साथ न्याय करती है।
फिल्म का गीत-संगीत फ़िल्म को सहारा देता हैं। दिबाकर बनर्जी का बैकग्राउंड स्कोर ठंडा सा है। लेकिन अनिल मेहता की सिनेमैटोग्राफी कुछ प्यारी नजर आती है और वे पिथौरागढ़ जैसे लोकेशंस को बहुत अच्छे से कैप्चर करने में कामयाब हुए हैं। बकुल बलजीत मटियानी की एडिटिंग बढ़िया नहीं है। सिनेमाघरों से ठंडी कमाई करके यह फ़िल्म दो महीने बाद ही अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई है। अटपटी, अधकच्ची, धीमे तेवर वाली, ठहरी हुई फिल्मों को देखने के शौकीन हैं तो फ़िल्म देखी जा सकती है।