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भारतीय राष्ट्रवाद की भूमिका

 

भारत ही नहीं, पूरे विश्व में राष्ट्रीयताओं का मुद्दा बहुत जटिल हो गया है, बल्कि इसके अत्यन्त खतरनाक आयाम सामने आ रहे हैं। राष्ट्रवाद दो महायुद्धों का कारक रहा है- यह तथ्य भी दृष्टि से ओझल नहीं होना चाहिए, जब भी इस पर चर्चा की जाए।

आधुनिक लोकतन्त्र की तरह राष्ट्रवाद भी यूरोप की ही देन है जिसने डेढ़-दो सौ साल में आबादियों के वर्गीकरण या विभेदीकरण का नया आधार तैयार किया। दुनिया भर में इसके चमत्कारिक प्रभाव हुए- सकारात्मक भी और नकारात्मक भी। अपने सकारात्मक प्रभाव में इसने आबादियों को समान, स्रोत या अतीत, समान रूप-रंग, समान भाषा और संस्कृति के आधार पर संगठित किया और उनकी मुक्ति (पर-राष्ट्रीयताओं से) का माध्यम बना। अपने नकारात्मक प्रभाव में इसने एक ‘राष्ट्रीयता’ को दूसरी राष्ट्रीयता के साथ घोर घृणा, भीषण प्रतिद्वंद्विता और संघर्ष में उतार दिया। अपने पूरे उफान पर राष्ट्रवाद अपने आप में उच्चतम मूल्य बन जाता है जिसके आगे मानवीय मूल्यों की भी महत्ता नहीं रह जाती, जो कि मानवीय अस्तित्व का आधार हैं। राष्ट्रवादी अपनी उत्कट राष्ट्रभक्ति में वह सब कुछ कर गुजरना चाहता है, जो कि मनुष्य मात्र के करने योग्य नहीं होता। राष्ट्रवाद मनुष्यों के ‘विश्व-समाज’ की स्थापना में न केवल मुख्य बाधक तत्त्व रहा है, बल्कि वास्तव में यह मनुष्य की कल्पना, उसके अंदर के औदात्य का संकुचन अथवा परिसीमन भी करता है।

रवींद्रनाथ ठाकुर

वर्ष 1916-17 में, जिन दिनों प्रथम महायुद्ध चल रहा था, कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर जापान और अमेरिका की यात्रा पर थे। इस दौरे के उनके राष्ट्रवाद विषयक व्याख्यान प्रसिद्ध हैं। उन्होंने राष्ट्र के बारे में कहा- ‘राष्ट्र का विचार मानव द्वारा आविष्कृत बेहोशी की सबसे शक्तिशाली दवा है। इसके धुएं के असर से पूरा देश, नैतिक विकृति के प्रति बिना सचेत हुए, स्वार्थ-सिद्धि के सांघातिक कार्यक्रम को व्यवस्थित ढंग से लागू कर सकता है।’

कविगुरु की यह विश्व-चेतना अचम्भित भी करती है, क्योंकि बंगाल में नवजागरण ने बंगाली उप-राष्ट्रीयता को मजबूत बनाया था, इसके भी आगे बांग्ला साहित्य ने परतन्त्रता के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रवाद की जमीन तैयार करने में मदद की थी। यह भी कम रोचक विषय नहीं है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन की बागडोर जिनके हाथ में थी, उन महात्मा गाँधी ने ‘राष्ट्रवाद’ का शायद ही कभी सहारा लिया। उनका ‘स्वदेशी’ उपनिवेशवाद के जितना विरुद्ध जाता था, राष्ट्रवाद के उतना पक्ष में नहीं आता था। हालांकि बंगाल के नवजागरण, 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के साथ ही ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ चले तमाम छोटे-बड़े संघर्षों से उपमहाद्वीप में एक राष्ट्रीयता का निर्माण हो रहा था और गाँधीजी के समय तक इसका एक स्वरूप भी बन चुका था। लेकिन गाँधीजी इस जागरण को राष्ट्रवाद में सीमित नहीं कर रहे थे। वे इस परिघटना को पश्चिम की भौतिकवादी (शैतानी!) सभ्यता के विकल्प के संधान में प्रयुक्त करना चाहते थे। यह उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चले मंथन के बाद केशवचंद्र सेन, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, दादाभाई नौरोजी और गोखले के विचारों के अनुरूप ही था।

बाद में रवींद्रनाथ ने राष्ट्रवाद की पश्चिमी सभ्यता की एक और, पर सर्वाधिक विनाशकारी खोज के रूप में कठोरतम आलोचना की। लेकिन इसी क्रम में भारतीय राष्ट्रवाद एक बहुत व्यापक अर्थ ग्रहण कर रहा था और दुनिया भर की दमित राष्ट्रीयताओं का ही नहीं, शोषित-पीड़ित मानवता की मुक्ति का आह्वानकर्ता बन रहा था।

आजादी की लड़ाई

भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में चर्चा होने पर प्राय: पश्चिमी राष्ट्रवाद से इसकी तुलना की जाती है और यह निष्पत्ति सामने आती है कि ‘भारत कभी एक राष्ट्र नहीं रहा’, याकि ‘भारत बहु-राष्ट्रीयताओं का देश है।’ असल में यूरोप में समरूपता और नृतात्त्विक समानता मुख्य रूप से राष्ट्रवाद का आधार रही है, इस दृष्टि से भारत में अनेक राष्ट्रों का होना मान लिया जाता है।

‘राष्ट्रवाद’ का प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर था जिसने अठारहवीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव रखी थी। उसने समान उत्पत्ति और भाषा का हवाला देकर जर्मनों को अपने को एक ‘राष्ट्र’ मान कर संगठित होने का आह्वान किया। मूल रूप से साहित्यालोचक हर्डर को भी अनुमान नहीं रहा होगा कि उसका यह वैचारिक आविष्कार दुनिया को कितना बदल कर रख देगा।

यही राष्ट्रवाद यूरोप में ‘राष्ट्र-राज्यों’ का आधार बना और आज पूरी दुनिया में ‘राष्ट्र रहित राज्य’ शायद कोई नहीं। यह बीमारी इस कदर फैली और सांघातिक हुई कि धर्म भी राष्ट्रीयता का आधार बना दिया गया, जिसका पहला शिकार बना भारत, जिसकी सभ्यता सैकड़ों सालों से ऐसी किसी धारणा या विचार के बिल्कुल विलोम में खड़ी रही थी, जिसके लिए मनुष्यता और सार्वभौमिक बंधुता का विचार ही सर्वोपरि रहा था।

विवेकानंद, रवींद्रनाथ और गाँधीजी इसी आधार पर पश्चिम की भौतिकवादी लोलुपता और आक्रामकता का उत्तर ढूंढ़ रहे थे। विडम्बना यह कि बाद में भारत के कम्युनिस्टों ने यहाँ की विविधता को हर्डर के नजरिए से देख कर हर्डर की स्थापना की ही पुष्टि की और भारत में अनेक राष्ट्रीयताओं का होना स्वीकार किया।

फिर भारतीय राष्ट्रवाद क्या कोरी कल्पना है (थी), इसका कोई आधार नहीं? क्या यहाँ के लोगों के बीच एकत्व का ऐसा कोई सूत्र नहीं था जो उन्हें बांध कर रखता हो और आखिरकार एक होने का भाव जगाता हो? यूरोप के विपरीत भारतीय राष्ट्रवाद का आधार बहुलता और विविधता का ही रहा है जैसा कि आज के अमेरिका में है, और इसे यूरोप के निकष पर नहीं परखा जा सकता।

भारत की जो कल्पना है, या विचार है, उपनिवेशकाल में उसने एक मूर्त आकार अवश्य ग्रहण किया, लेकिन वास्तव में सदियों से यह भारतवासियों के मानस में, स्मृति और कल्पना में बना रहा है। इसकी एक भौगोलिक पहचान भी रही है जिसे आज भी धार्मिक अनुष्ठानों के अवसर पर अभिव्यक्ति मिलती है- ‘जंबूद्वीपे, भरतखंडे, आर्यावर्ते…’, जो यज्ञ में देवताओं के आह्वान के लिए यजमान और यज्ञ को उनकी अवस्थिति (लोकेशन) से जोड़ता है। यहाँ किसी एक देश का भूगोल नहीं है, बल्कि उस वृहत भूभाग की पहचान बताई जा रही है जो सबका साझा निवास है और इसीलिए पहचान भी है।

भारतीय राष्ट्रीयता कोई एक पूर्वज, एक स्मृति और एक इतिहास से नहीं बनती, लेकिन इसका आधार कहीं न कहीं एक भूखण्ड अवश्य है- ‘जंबूद्वीपे, भरतखंडे, आर्यावर्ते…’ वह वृहत भौगोलिक इकाई है जो भले ही एक राजनीतिक मानचित्र में समाहित नहीं है, लेकिन जिससे तमिलनाडु से कश्मीर और सिंध और हिंदुकुश से असम और बर्मा (म्यांमा) की सीमा तक की परिधि में बसने वालों में एकात्मता अनुभव की जाती रही है।

राजनीतिक रूप सेयह समूचा क्षेत्र (यानी उपमहाद्वीप) भले ही एक इकाई न हो, अनेक राज्य-साम्राज्य और शासन व्यवस्थाएं इसमें शामिल रही हों, लेकिन यह भी सच है कि जितने भी साम्राज्य भारत में बने- लगभग सबने इसे एक राजनीतिक इकाई बनाने की कोशिश की, चाहे वे पौराणिक चक्रवर्ती सम्राट हों, या मौर्य हों, गुप्त हों, खिलजी हों, मुगल हों, या फिर अंग्रेज। विदेशी आक्रांताओं के लिए भी भारत-विजय का अर्थ इसी जंबूद्वीप, भरतखण्ड, आर्यावर्त पर एकछत्र शासन स्थापित करना रहा। इस संपूर्ण क्षेत्र, समूचे भूखण्ड की आध्यात्मिक और सामाजिक चेतना का स्रोत भी समान रहा है, स्वप्न और आकांक्षाएं भी समान रही हैं।

आखिर यह किस प्रकार संभव हुआ कि उत्तर से दक्खिन, पूरब से पच्छिम तक विभाजन-पूर्व के अखण्ड भारत में निचले स्तर की संस्थाएं और प्रणालियां कमोबेश एकसमान थीं। ऊपर की व्यवस्थाएं बदलने से भी इनमें कोई अन्तर नहीं आया। राज्य-साम्राज्य बदल गए लेकिन ग्रामीण अर्थतन्त्र और स्वशासन की व्यवस्थाएं अपरिवर्तित रहीं। भारतीय जन का सामुदायिक जीवन कहीं न कहीं राष्ट्रवाद की भूमिका जरूर रचता है। कम से कम उन्नीसवीं सदी तक भारत नागर-सभ्यता का देश नहीं रहा, यहाँ ग्राम्य-सभ्यता का हजारों साल का इतिहास रहा।

भारतीय मूल्यों और परम्पराओं का उत्स वास्तव में इसी ग्राम्य सभ्यता में है जो आत्मनिर्भर, स्वशासित स्थानीय इकाइयों से मिल कर बनती है। यहाँ ग्राम ही व्यक्ति की पहचान का सबसे ठोस और प्राथमिक आधार रहा।

ब्रिटिश काल में स्थानीय, जमीनी स्वशासन की प्रणालियों को आघात पहुंचाया जाने लगा- यही कारण था कि एक विशेष प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था और तन्त्र के खिलाफ संभवत: पहली बार समूचा भारत उठ खड़ा हुआ। इससे यह मानने और कहने का आधार बनता है कि भारतीय राष्ट्रवाद का स्रोत वास्तव में स्वशासन की यही आत्मनिर्भर स्थानीय इकाइयां थीं। राष्ट्रवाद का आशय अगर एकत्व की भावना से समष्टि के लिए व्यष्टि का उत्सर्ग है तो भारतीय राष्ट्रवाद का आधार भारत का नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी नहीं) है जो रवींद्रनाथ के शब्दों में अनेक आक्रमणों और विजयों के बावजूद एक नैतिक यथार्थ के रूप में सुरक्षित रहा है।

भारतीय राष्ट्रवाद की भूमिका

इसी परिप्रेक्ष्य में यह कहा जाता है कि भारत सांस्कृतिक रूप से एक रहा है। मगर फिर बात आगे बढ़ कर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ तक जाती या ले जाई जाती है और फिर इसे एक धर्म-पंथ तक सीमित करने की कोशिश होने लगती है। इसमें फिर यह विशाल भूखण्ड ही नहीं, धार्मिक विश्वास और प्रतीक भी शामिल होने लगते हैं। इस ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की आज के सांस्कृतिक यथार्थ से टकराहट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। वास्तव में आज के भारत का सांस्कृतिक यथार्थ अत्यन्त संश्लिष्ट सांस्कृतिक विविधता से बना है जिसमें अनेक पहचानें, अस्मिताएं अंतर्विष्ट हैं, वह भी कभी-कभी एक-दूसरे को काटती और खारिज करती हुई। भारत की लोकतांत्रिक राजनीति इन पहचानों को मान्यता देती है, बल्कि उकसाती भी है और अंतत: इन्हें सत्ता-केंद्रों में प्रतिनिधित्व भी दिलाती है।

आज हमारी पारंपरिक स्थानीय स्वशासन की अनौपचारिक व्यवस्था को औपचारिक लोकतांत्रिक प्रणाली ने प्रतिस्थापित कर दिया है। भारतीय राष्ट्रवाद अब भारतीय लोकतन्त्र में ही अभिव्यक्ति पाता है। आज की परिस्थिति में भारत राष्ट्रवाद का विचार छोड़ नहीं सकता, शायद कोई भी देश ऐसा नहीं कर सकता। ‘राष्ट्रवाद’ की अनुपस्थिति में तो भारत का अस्तित्व ही संभव नहीं दिखता। आज एक सबल राज्य भारतीय राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध है जबकि भारतीय जनता इसकी प्राणशक्ति है।

इतिहास की धारा भी विचित्र है। ‘नकारात्मक’ राष्ट्रवाद के लिए आज एक सकारात्मक भूमिका दिखाई दे रही है- विश्व शांति और कल्याण के लिए। धार्मिक विकृति और धर्म आधारित हिंसा और आतंकवाद के मुकाबले के लिए राष्ट्रवाद प्रयुक्त हो सकता है। इन संकटों का सामना कर रहे देशों के समक्ष चुनौती यह है कि वे किसी धार्मिक राज्य का अंग बन कर अपनी राष्ट्रीयता को मिट जाने दें या फिर बहुसांस्कृतिक राष्ट्रवादी अस्मिता के अमोघ अस्त्र से इन शक्तियों का शमन करें और दुनिया को बहुरंगी बने रहने दें, जैसा कि विधाता ने इसे सिरजा है

 ( जनसत्ता में प्रकाशित, 29 नवम्बर 2014 . प्रख्यात मराठी कवयित्री उषा मेहता द्वारा मराठी में अनूदित और साधना, पुणे में प्रकाशित, 27 दिसम्बर 2014)

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शिवदयाल

हिन्दी के समकालीन सृजनात्मक एवम् वैचारिक लेखन के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर। सम्पर्क +919835263930, sheodayallekhan@gmail.com
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