‘सद्कर्म से संकोच’ एक प्रायश्चित
2 जून 2022 को प्रसारित जिस फिल्म को एक ही दिन 1.9 K लोग देख चुके हों 178 लाइक भी मिले हों, निश्चय ही कुछ ख़ास बात होगी। हम बात कर रहें हैं यूट्यूब की अत्यंत मार्मिक लघु फिल्म ‘प्रायश्चित’ की। वस्तुतः हम अपने जीवन में कई गलतियां करतें हैं और प्रायश्चित कभी करते हैं कभी नहीं भी करते। इस फिल्म में ‘प्रायश्चित’ का एक नया स्वरूप रखा गया है जिसका धार्मिक पाप-पुण्य से कोई लेना देना नहीं है। कभी कभी सद्कार्यों के सही समय पर न करना भी हमारी गलती ही होती है। फिल्म एक घटना, जिसमें कई छोटे-छोटे दृश्य पिरोए गए हैं, के माध्यम से हमारे भीतर संवेदनाएं जागृत करने का खूबसूरत प्रयास करती है। हर दृश्य दया और करुणा से युक्त मानवीय संवेदनाओं को झकझोरता है तथा साथ ही साथ उसे बाहर निकालने के लिए भी मानो तत्पर है। वास्तव में हम सभी के साथ ऐसा कई बार होता है कि हम जरूरतमंद की मदद कर सकते हैं और करना चाहते भी हैं पर यह सोच कर संकोच कर जाते हैं कि पहल कौन करे या मैं ही मदद क्यों करूं इतने लोग हैं।
लगभग 10 मिनट कि इस लघु फिल्म जो रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर फिल्माई गई है, इसमें विविध दृश्यों के माध्यम से भारतीय परिवेश में गरीबी और विवशता को अत्यंत बारीकी से दर्शाया गया है।एक ओर संपन्न लोग सर्दी में स्विट्जरलैंड की तरह मजा लेने की बात कर रहें है कि खूब खाओ पियो और आनंद लो ऐसी सर्दी बार-बार थोड़ी ही आती है जबकि दूसरा चाय पीने के लिए मोहताज है।
इसी के समानांतर एक दृश्य में दो संपन्न घराने की पढ़ी लिखी महिलाएं हैं जो ग़रीबी और गरीबों को घृणा की दृष्टि से देख रही हैं जबकि उनमें एक तो बच्चों की एक वेलफेयर एनजीओ संस्था से जुड़ी है , लेकिन यदि वास्तव में उसमें दया और करुणा का भाव होता तो वह उस व्यक्ति को जो भीख में उसका शॉल मांग रहा है वह अपना शॉल दे सकती थी। निश्चय ही उसकी अलमारी में उस तरह के कई शॉल भरे होंगे लेकिन वह बहुत ही घृणा से उसे झिड़क देती है और देश की गरीबी को कोसते हुए आगे निकल जाती है। ये वे लोग हैं जो दिखावे के लिए समाज में अपने स्तर को ऊंचा दिखाने के लिए एनजीओ बनाते हैं, उन से जुड़ते हैं लेकिन वास्तव में देश की गरीबी को दूर करने के लिए वे कोई पहल नहीं करते।
दूसरी ओर एक अन्य भिखारी है, अगर आप उसकी वेशभूषा विशेषकर उसकी चप्पलों पर ध्यान दीजिए जो उसने प्लास्टिक की पन्नियों से बनाई है ताकि थोड़ी बहुत सर्दी से बच सकें, आपका मन पिघल जाता है क्योंकि हमारे घरों में तो घर की चप्पल अलग बाहर के चप्पल अलग टॉयलेट की चप्पल अलग अलग होती हैं। भिखारी ने अपने खाने का डिब्बा और बोतल को एक रस्सी से इस तरह बांधा हुआ है कि कोई चुरा ना ले यानी गरीबी के कारण असुरक्षा की भावना ने उसे ऐसा करने पर विवश किया है। हम जानते हैं उत्तर भारत की सर्दियों में हमेशा सर्दी की शीत लहर से मर जाने की खबरें आती रहती हैं विशेषकर बुजुर्ग और सड़कों पर तो भिखारी मृत पाए जाते हैं। पर यहां समस्या यह है कि जिनके पास ₹10 की चाय पीने के पैसे नहीं है वे कहां से खूब सारा भोजन खाएंगे पिएंगे? भारत जैसे विकासशील देश में आज अमीर और गरीब के बीच की खाई निरंतर बढ़ती चली जा रही है। अमीर और अमीर हो रहा है गरीब और गरीब हो रहा है।
मंत्रोच्चारण करते हुए वह भिखारी बोलता है ‘न पाप की धरती फट रही है ना पुण्य का आसमान गिर रहा है। मंत्रों में अब वह शक्ति नहीं रही’। अमूमन हम देखते हैं कि कोई भी भिखारी ‘भगवान के नाम पर कुछ दे दे’ कहकर भीख मांगता है लेकिन धर्म पर टिप्पणी करते हुए निर्देशक कहना चाह रहा है आज यह समय आ चुका है कि पाप-पुण्य जैसी संकल्पनाओं का कोई महत्व नहीं रह गया।
फिल्म का मूल तत्व यही है कि दया करुणा के मानवीय भाव लुप्त तो हो चुके हैं और जिनमें थोड़े बहुत बचे हैं वे इस संकोच से चुप रह जाते हैं कि लोग मजाक बनाएंगे।नायक उसे रुपए 100 देता है लेकिन वह 100 रुपए उसके किसी काम नहीं आते क्योंकि उसे स्वेटर की जरूरत थी जो 100 रुपए में नहीं आ सकता था। अब जबकि वह मरा हुआ पड़ा है तो उसके हथेली में 100 रुपए कैद हैं, जो उसके किसी काम ना आए। फिल्म संदेश देती है कि जब सही समय पर जरूरतमंद की मदद ना हो तो बाद में वह व्यर्थ हो जाती है अतः हमें हमारे भावों को सही समय पर अभिव्यक्ति देते हुए कार्यशील होना चाहिए।
नायक भिखारी के मरने के बाद उसे अपना कोट यह कहते हुए देता है कि समय पर इसकी मदद करने में संकोच कर दिया वास्तव में वह मेरा पाप था और आज यह मेरा प्रायश्चित है। हम भी जानते हैं कि मरने के बाद कोट उसके किसी काम का नहीं है लेकिन उसको कोट देकर निर्देशक दर्शकों को संदेश दे रहा है चाह कर भी संकोचवश किसी की मदद ना करना पाप के समान है। अतः आप जब भी किसी जरूरतमंद को देखें और आप समर्थ हैं तो मदद करने में संकोच ना करें। फिल्म में सभी का अभिनय अत्यंत सहज है। मंत्र उच्चारण के समय भिखारी का मोनोलॉग बेहतर बन पड़ा है। कुल मिलाकर 10 मिनट की फिल्म यदि आपके भीतर के संकोच को निकाल कर बाहर फेंक आपकी दया और करुणा को उद्दीप्त कर संवेदनशील बनाती है तो मैं समझती हूं कि फिल्म अपने लक्ष्य में सफल हुई है।
आप यहाँ क्लिक कर फिल्म देख सकते हैं।
निर्देशक- धर्मेश मेहता
कहानीकार- डॉ एस एन झा
पटकथा- रोशन गड्डी
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