शख्सियतसिनेमा

सत्यजित राय का सिनेमा समय

 

महान जापानी फिल्मकार अकीरा कुरोसावा ने कहा था, ‘सत्यजित राय की फिल्मों को नहीं देखना; धरती पर चाँद-सूरज के अस्तित्व से वंचित होकर रहने जैसा है।‘ ध्यान देने वाली बात यह है कि अकीरा कुरोसावा सत्यजित राय के आगमन से एक दशक पहले से विश्व सिनेमा में अपनी मजबूत पहचान बना चुके थे। वे पहले एशियन फिल्मकार हैं जिनके सिनेमा को विश्व सिनेमा ने अपने मानकों को तोड़कर स्वीकार किया। उन्होंने अपने फिल्म क्राफ्ट से यूरोप और अमेरिका को अचंभित कर दिया था। ऐसे में राय के बारे में उनका कथन बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। अकीरा कुरोसावा के बाद भारत के सत्यजित राय दूसरे ऐसे फिल्मकार हैं जिन्होंने एशियन सिनेमा को विश्व फलक पर प्रभावशाली ढंग से स्थापित किया।

अकीरा कुरोसावा और सत्यजित राय इन दोनों फिल्मकारों को ऑस्कर के सर्वोच्च पुरस्कार प्राप्त हुए। इस पर टिपण्णी करते हुए पत्रकार विनोद भारद्वाज लिखते हैं, “एशिया ने दो ऐसे फिल्मकार पैदा किए हैं जो हॉलीवुड की किसी धारा से नहीं जुड़ते, पर हॉलीवुड ने उन्हें अपना सर्वोच्च सम्मान दिया।” सत्यजित राय ने सिनेमा समय को नयी दिशा दी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे बेहतरीन पटकथा लेखक, निर्देशक, संगीत-रचनाकार, पत्र सम्पादक, गल्प लेखक, फिल्म दार्शनिक, फिल्म गुरु, चित्रकार, कैमरामैन और बाल कथा लेखक इत्यादि थे। वे बँगला भाषा में रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद और भारतीय सिनेमा में दादा साहेब (धुंडीराज गोविन्द फालके) फालके के बाद की सबसे बड़ी घटना हैं।

विपरीत परिस्थितियों में धुंडीराज गोविन्द फालके ने भारत में फिल्म व्यवसाय को शुरू करने के लिए जितना संघर्षपूर्ण उद्यम किया था; उतना ही सत्यजित राय ने। फालके लुमिएर बंधु की फिल्म जीसस क्राइस्ट देखकर फिल्म निर्माण के लिए प्रेरित होते हैं। उनके भीतर एक संकल्प घटित होता है कि राम और कृष्ण की छवियों को भी परदे पर चित्रित किया जाना चाहिए और वे सबकुछ दाँव पर लगाकर गुलाम भारत में सिनेमा सीखने और बनाने का जोखिम उठाते हैं और अपनी पहली ही फिल्म से सिनेमा जगत में भारत की पहचान कायम करने में सफल होते हैं। इस घटना के लगभग पचास साल बाद जब सिनेमा नया हो रहा था, विज्ञापन एजेंसी में काम करने वाला एक नौजवान, जिसके मन में फिल्म बनाने की इच्छा कहीं दबी हुई थी, एक फिल्म देखता है और उसके सामने स्पष्ट हो जाता है की क्या और कैसा सिनेमा बनाना है। वित्तोरियो डी सीका की फिल्म ‘बाइसिकल थीव्स’ ने सत्यजित राय की समूची पीढ़ी को सिनेमा बनाने और कथ्य चुनने का नया दृष्टिकोण दिया।

‘सिनेमा बनाना है’ – यह बीज बचपन में मन के किसी कोने में गड़ गया था। चाचा नितीन बोस जर्मनी से फिल्म निर्देशन सीख कर लौटे थे। उन्हें भी नितीन बोस की तरह जर्मनी जाना था और फिल्मकार बनना था। सत्यजित राय बचपन में इस सपने को शब्द दिया करते थे। Satyajit Ray - Wikipedia

फिल्मकार सत्यजित राय का जन्म 2 मई 1921 को कलकत्ता में हुआ था। इनकी पिछली दो पीढियाँ प्रतिभा और सामाजिक सरोकारों की जीती जागती मिसालें थीं। इनके पिता सुकुमार राय चित्रकार और कवि थे। बच्चों के लिए निरर्थक शब्दों से लिखी उनकी किताब ‘अबोल तबोल’ को रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी बहुत पसन्द करते थे। सत्यजित राय के दादाजी उपेन्द्र किशोर राय चौधरी ब्रह्म समाज के बड़े प्रवक्ता थे। छपाई के क्षेत्र में उन्होंने क्रांतिकारी काम किया और बँगला में बाल साहित्य की प्रतिष्ठा दिलाई।

सत्यजित राय के जन्म से छः साल पहले उनके दादाजी का देहांत हो चुका था और उनके जन्म के ढाई साल बाद उनके पिताजी का निधन हो गया। राय को अपना बचपन अपने मामा के यहाँ बिताना पड़ा। दक्षिणी कलकत्ता में मामा के यहाँ बिताये दिनों ने एकाकीपने का ऐसा स्वभाव दिया जो जीवन भर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बना रहा। उनकी माँ सुप्रभा देवी राय ने उनको गणित, विज्ञान, कला विषयों के साथ बँगला और अंग्रेजी भाषा की बुनियादी शिक्षा दी। यहाँ तक कि जब युवावस्था में वे कार्यक्षेत्र के चुनाव को लेकर दिग्भ्रम के शिकार थे तो उनकी माँ ने उन्हें शांति निकेतन में कुछ समय बिताने का सुझाव दिया था जो उनके जीवन में एक ठोस दिशा पाने में सहायक हुआ।

इनके पिता सुकुमार राय ने 1913 में ‘सन्देश’ नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया जो 1926 तक अनवरत निकलता रहा। 1923 में सुकुमार राय की मृत्यु के बाद 1926 तक सुप्रभा देवी राय उसी मकान में रहीं जिसमें प्रेस चलता था। सत्यजित राय के बाल मन पर प्रिंटिंग मिडिया के संस्कार उन्हीं दिनों बने। एक साक्षात्कार में वे बताते हैं कि ‘मैंने जीवन का बहुत समय अकेले गुजारा है क्योंकि मेरा कोई भाई-बहन नहीं था। अपना दिमाग लगाकर ही जो कुछ कर सकता था वो किया। शायद उसी के कुछ अवशेष रह गये होंगे। जब फिल्म की शूटिंग में व्यस्त नहीं होता हूँ तो बहुत अकेला होता हूँ।

इस तरह का अकेलापन सत्यजित राय के लिए हमेशा रचनात्मक ही रहा है। 1926 में बंद हो गये ‘सन्देश’ को 1931-32 में इनके एक चाचा जी द्वारा प्रकाशित किया गया जो तीन-चार वर्ष तक जारी रहा। 1961 में सत्यजित राय ने उसे दोबारा पुनर्जीवित किया और मजबूती से स्थापित कर दिया। सत्यजित राय के जीवन की मुख्य घटनाओं को यदि तिथिवार देखा जाए तो वह कुछ इस प्रकार होगा। कलकत्ता के अति प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज से 1940 में सत्यजित राय ने अर्थनीति विषय में ग्रेजुएट की उपाधि प्राप्त की। उनके पिता के एक मित्र ने उन्हें अर्थशास्त्र में मास्टर डिग्री लेने की सलाह दी और अर्थशास्त्र पर केन्द्रित पत्रिका ‘शंखा’ में नौकरी भी देने का आश्वासन दिया किन्तु रूचि नहीं होने के चलते राय ने कोई प्रयत्न नहीं किया। Remembering Satyajit Ray: An Incredible Storyteller | Celebrities News – India TV

1936 में अल्पायु राय को फोटोग्राफी के लिए ब्वायज ऑन पत्रिका का प्रथम पुरस्कार मिल चुका था जो दिल में एक अलग अलख जगाए हुए था। शान्ति निकेतन में उन्हें नंदलाल बोस, विनोद बिहारी मुखर्जी और रामकिंकर बैज जैसे महान चित्रकारों से चित्रकला की बारीकियाँ सीखने का अवसर मिला। वहीं राय को फिल्म बनाने की प्रेरणा भी मिली थी। संजीव चट्टोपाध्याय को दिए एक साक्षात्कार में वे बताते हैं, “शान्ति निकेतन में अध्ययन के दौरान ही फिल्म बनाने का ख़याल मेरे मन में आया। लायब्रेरी में फिल्म थियरी से सम्बंधित कुछ किताबें थीं, जिन्हें पढ़ते वक्त ही लगा कि मुझे फिल्म बनाना चाहिए।” 1947 में सत्यजित राय ने मित्रों के साथ साँची, खजुराहो, अजन्ता और एलोरा की यात्रा की। इसी वर्ष अंग्रेजी में लिखी इनकी पहली कहानी ‘एब्सट्रैक्सन’ प्रकाशित हुई। बाद के तमाम वर्षों में राय ने अपनी कहानियाँ बँगला में ही लिखीं।

दिसम्बर, 1942 में सत्यजित राय शान्ति निकेतन की पढ़ाई अधूरी छोड़ बाहर निकल आए और डी जे केमर विज्ञापन संस्थान में बतौर विजुअलाइजर नौकरी कर ली। नौकरी के दौरान ही वे पटकथा लिखने का अभ्यास शुरू कर चुके थे। 1946 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कृति ‘घरे बाइरे’ पर पटकथा लिखकर फिल्मकार विमल राय के पास गये थे जो वित्तोरियो डी सीका स्कूल के अंतर्गत ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म बना चुके थे। उन्होंने राय की स्क्रिप्ट को सराहा तो नहीं ही, बल्कि यह कहा कि इस तरह सिनेमा नहीं बन सकता है। सत्यजित राय तबतक समझ चुके थे कि वे जिस तरह का सिनेमा बनाना चाहते हैं उसके रास्ते आसान नहीं हैं। रास्ते आसान नहीं हों तो उन्हें बनाना पड़ता है।

विमल राय ने नया (न्यू वेला) सिनेमा की थियरी का प्रयोग एक अनुषंगी क्राफ्ट के रूप में किया और हिन्दी सिनेमा के चालू ढर्रे पर ही उसको कसा जबकि राय न्यू वेला फिल्म थियरी को शुद्धता के साथ प्रयोग करना चाहते थे। ‘बाइसिकल थीव्स’ देखने के बाद डी सीका की तरह ही राय यथार्थ लोकेशन पर साहित्यिक कहानी को फिल्माने का निश्चय कर चुके थे। पूरी दुनिया में नौजवान फिल्मकर्मी फिल्म निर्माण के रास्ते को ज्यादा कलात्मक और यथार्थ के निकट ले जाने के रास्ते की तलाश के लिए फिल्म सोसाइटी आन्दोलन चला रहे थे। सत्यजित राय ने अपने चार मित्रों हरिसाधन दासगुप्त, बंशी चंन्द्रगुप्त, राम हालदार और चिदानंद दासगुप्ता के साथ 1947 में ‘कलकत्ता फिल्म सोसाइटी’ गठित की जिसके लिए कोई निश्चित हॉल या कार्यालय नहीं था। यह मित्रों की बैठकों में चलता था। इसके माध्यम से सदस्यों ने विविध प्रकार की फिल्मों को देखा और बंगाली सिनेमा से अलग तरह की फिल्मों से परिचित हुए। Centre to institute an award in the name of Satyajit Ray: Javadekar - Telegraph India

1940 के आसपास यूरोपीय देशों में फिल्म निर्माण की चालू परिपाटी से हटकर कुछ नया करने का प्रयत्न स्पष्ट दिखने लगा था। ये वे फिल्मकार थे जो हॉलीवुड की मुख्य धारा के सिनेमा से असंतुष्ट थे। भव्य सेट, अवास्तविक चरित्र, अतिरंजिंत भावुकता आदि से अलग हटकर ये सिनेमा को जिन्दगी के नजदीक लाना चाहते थे। यूरोप के विभिन्न देशों में यह प्रवृति एक सिनेमा आन्दोलन के रूप में फूट पड़ी। इटली में इसे न्यू वेला सिनेमा कहा गया। जर्मनी में युवा सिनेमा, फ्रांस में नया सिनेमा और इंग्लैण्ड में भूमिगत सिनेमा कहा गया। रूस और पोलैंड में भी इसे अलग नामों से पुकारा गया। भारत में इसे समान्तर सिनेमा और कला सिनेमा के रूप में पहचाना गया।

इस आन्दोलन को फ्रांस की एक पत्रिका काईआई डू सिनेमा (Chier Du Cinema) ने वैचारिक आधार दिया। इस पत्रिका में लिखने वाले फिल्म चिन्तक निर्माण के क्षेत्र में कूद पड़े। फ्रांसुआ त्रुफो, ज्याँ लुक गोदार्द, एरिक रोहमर, वित्तोरियो डी सीका इस धारा के मुख्य फिल्मकारों में थे। सत्यजित राय इस नयी धारा से अवगत थे और बँगला सिनेमा में परिवर्तन के लिए मार्ग खोजने में व्यस्त थे। 1948 में अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ के लिए सत्यजित राय ने ‘व्हाट इज रांग विथ इन्डियन फिल्म्स’ शीर्षक से सिनेमा सम्बन्धी पहला लेख लिखा। बाद में यह लेख राय की फिल्म पर केन्द्रित पुस्तक ‘आवर फिल्म्स देयर फिल्म्स’ में भी संकलित हुआ है। फिल्म सोसाइटी आन्दोलन से सिनेमा के प्रति अपनी परिष्कृत हुई चेतना के प्रकाश को फैलाने के लिए राय ने फिल्म निर्माण के साथ फिल्मों पर लिखने का भी निर्णय लिया और आजीवन बँगला और अंग्रेजी में फिल्म साहित्य लिखते रहे।

ज्यां रेनुआ

इसी वर्ष एक विज्ञापन फिल्म ‘अ परफेक्ट डे’ के लिए राय ने पटकथा लिखी। 1950 में ज्याँ रेनुआ ‘द रिवर’ नामक फिल्म की शूटिंग के लिए कलकत्ता आए। ज्याँ रेनुआ से राय की मुलाकात और शूटिंग देखने के अवसर ने राय को व्यवहारिक रूप से फिल्म विधा के करीबतर ला दिया। राय ने ब्रिटिश पत्रिका ‘सिक्वेंश’ के लिए ‘रेनुआ इन कैलकटा’ नामक एक लेख लिखा। वे रेनुआ की फिल्मों से तो प्रभावित थे ही, उनसे मिलने के बाद उनके विचारों से भी प्रभावित हुए। उसी वर्ष डी जी केमर विज्ञापन कम्पनी में राय की पदोन्नति विजुअलाइजर से कला निदेशक के रूप में हो गयी। विज्ञापन कम्पनी के काम से उन्हें इंग्लैण्ड भेजा गया। जहाँ उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्में देखी। लंदन में पाँव रखने के तीसरे ही दिन सत्यजित राय को ‘बाइसिकल थीव्स’ देखने का मौक़ा मिल गया। इस फिल्म ने सत्यजित राय को फिल्म बनाने की दृष्टि प्रदान की।

ज्यां रेनुआ ने राय को बताया था कि ‘फिल्म में ज्यादा तत्व आवश्यक नहीं होते हैं लेकिन जिन्हें शामिल करो वे सही और स्पष्ट होने चाहिए।’ इस सरल से दीखते सुझाव ने राय को फिल्म निर्माण की सूझ दी थी और इसी साल देखी गयी फिल्म ‘बाइसिकल थीव्स’ ने इन्हें स्पष्ट दृष्टि दी। सत्यजित राय के ही शब्दों में, “जब मैं ‘बाइसिकल थीव्स’ देखकर बाहर निकला तो मन बना चुका था कि फिल्मकार बनूँगा। ‘पाथेर पांचाली’ पर पैसा लगाने वाला आदमी ढूँढकर रहूँगा। सुरक्षित नौकरी छोड़ने पर आगे अब क्या होगा, यह डर अब नहीं रहा। मैं अपनी फिल्म ठीक इसी तरह बनाऊँगा जैसे डी सीका ने बनाई थी। गैर पेशेवर अभिनेताओं के साथ काम करूँगा। खर्च कम करूँगा और सभी वास्तविक स्थानों पर जाकर शूटिंग करूँगा।” 1945 में राय को ‘पाथेर पांचाली’ नामक उपन्यास पर रेखाचित्र बनाने का काम मिला था। उसी समय उनकी भेंट किताब के लेखक विभूति भूषण बन्दोपाद्याय से भी हुई थी। तभी राय को लगा था कि इस कृति पर अच्छी फिल्म रचना की जा सकती है। इन्हीं दिनों राय के व्यक्तिगत जीवन में एक जरुरी मोड़ आया। 1949 में राय ने अपने बचपन की मित्र और दूर के रिश्ते की बहन विजया से विवाह कर लिया था।

बहरहाल, लंदन से लौटकर राय ने डी जे केमर विज्ञापन संस्थान की नौकरी छोड़ दी और बेन्संस विज्ञापन एजेंसी के साथ जुड़ गये। इस दौरान वे पुस्तकों के लिए जैकेट भी डिजाइन करते रहे। इन्हें अंतरराष्ट्रीय मुद्रण प्रदर्शनी में ‘खाई खाई’ और ‘अनन्या’ पुस्तकों के आवरण चित्रों के लिए पुरस्कृत किया गया। Pather Panchali' - 5 Satyajit Ray Classics That Remain Timeless | The Economic Times

1952 में ‘पाथेर पांचाली’ की शूटिंग शुरू की। फिल्म के लिए कहीं से भी धन न जुटा सकने की स्थिति में पत्नी के गहने तक गिरवी रक्खे। किसी भी स्थिति में नौकरी छोड़ना संभव नहीं था इसलिए सप्ताहांत शूटिंग की नींव डाली गयी। बंगाल सरकार से सहयोग लेकर सत्यजित राय ने ‘पाथेर पांचाली’ फिल्म को पूरा किया। इसके लिए उन्हें बंगाल सरकार को फिल्म के सर्वाधिकार देने पड़े। एक साक्षात्कार में राय ने बताया कि यह फिल्म लगभग डेढ़ हजार गुना लाभ कमाकर सरकार को दे चुकी है। ‘पाथेर पांचाली’ दो बच्चों दुर्गा और अपू और उनके माता-पिता सर्वजय और हरिहर राय और उनकी बूढ़ी दादी की कहानी है। कथा का समय 1910-18 तक का है। इस कथा की भूमि बंगाल का एक गाँव है। .

एक अति साधारण परिवार की सरल जीवनी को असाधारण ढंग से सिल्वर स्क्रीन पर चित्रित कर सत्यजित राय ने एक स्टोरी टेलर फिल्मकार के रूप में तुरत ही वैश्विक ख्याति अर्जित कर ली। न्यूयॉर्क के म्यूजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट में इस फिल्म का पहला प्रदर्शन हुआ। 26 अगस्त, 1955 में यह फिल्म कलकत्ता में रिलीज की गई और इसी वर्ष इसे भारत के राष्ट्रपति के हाथों स्वर्ण और रजत पदक प्रदान किया गया। 1956 में कांस फिल्म फेस्टिवल में ‘पाथेर पांचाली’ को प्रदर्शित किया गया। यह फिल्म अकीरा कुरोसावा की फिल्म के ठीक पीछे दिखाई गई। जूरी के सदस्य इस फिल्म की उपेक्षा कर जापानी दूतावास के भोज में चले गये।

नया सिनेमा के दार्शनिक पैरोकार, फिल्म पत्रकार और फिल्मकार आंद्रे बाजां ने इस फिल्म को देख लिया था। दूसरे दिन अखबारों में आंद्रे बाजां की टिप्पणी छपी कि ‘जूरी ‘पाथेर पांचाली’ जैसी फिल्म की उपेक्षा कर विश्वासघात कर रही है।’ जूरी ने अपनी भूल को स्वीकार किया और ‘पाथेर पांचाली’ का एक और शो हुआ। ‘पाथेर पांचाली’ को कांस फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ मानवीय दस्तावेज (बेस्ट ह्युमन डॉक्यूमेंट) का सम्मान हासिल हुआ। उसके बाद सत्यजित राय के जीवन में पुरस्कारों और सम्मानों की झड़ी लगती गई और वे लगातार फिल्में बनाते गये। राय ने ‘पाथेर पांचाली’ की कड़ी में ‘अपराजितो’ और ‘अपूर संसार’ नाम से दो और फिल्मों का निर्माण किया। इस फिल्म त्रयी को अपू त्रयी (अपू ट्रिलोजी) के नाम से जाना जाता है।

‘अपराजितो’ हरिहर राय के गाँव से बनारस जाने की रेल यात्रा से शुरू होती है। यह फिल्म 1920 के परिवेश में एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार के गाँव से पलायन की मार्मिक कथा कहती है। पूरा परिवार बनारस के गंगाघाट के पास बने एक पुराने मकान के एक हिस्से में रहने लगता है। हरिहर घाट पर बैठकर अपना मनचाहा काम कथावाचन करने लगता है और परिवार का निर्वाह संतोषपूर्वक होने लगता है। किन्तु हरिहर की मृत्यु के बाद परिवार फिर से संकट में घिर जाता है। सर्वजया जमींदार के यहाँ नौकरी करने लगाती है लेकिन अपू को नौकर में बदलते देख गाँव लौट जाती है। ‘अपराजितो’ फिल्म को 1956 में वेनिस फिल्म फेस्टिवल का सर्वोच्च सम्मान ‘गोल्डन लायन’ मिलता है। Apur Sansar (1959) | The Criterion Collection

अपू त्रयी की तीसरी फिल्म ‘अपूर संसार’ बनाने से पहले राय ने 1957 में ‘पारस पत्थर’ नामक एक कॉमेडी फिल्म बनाई। एक क्लर्क परेश दत्त को पारस पत्थर मिल जाता है। इस चमत्कारी पत्थर के प्रभाव से उस क्लर्क के अमीर बन जाने की कहानी है पारस पत्थर। इस हास्य फिल्म के बाद 1958 में सत्यजित राय ने जलसाघर नामक एक गंभीर फिल्म बनाई। 1959 में राय ने ‘अपूर संसार’ बनाया। अपराजितो बनाने तक त्रयी बनाने का ख़याल उनको नहीं आया था। वेनिस फिल्म फेस्टिवल में वे इस विचार से प्रेरित हुए। इस फिल्म में अपू अपनी शिक्षा पूरी कर लेने के बाद अपनी बेरोजगारी से जूझ रहा है और एक उपन्यास लिख रहा है। अपू के विवाह से विकास तक की कहानी को रोचक ढंग से इस फिल्म में समेटा गया है।

सत्यजित राय की फिल्मों पर श्याम बेनेगल की राय बहुत महत्वपूर्ण है – ‘सत्यजित राय ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में जो काम किया है वह मुझे विशेष रूप से इसलिए प्रभावित करता है क्योंकि किसी भी फिल्म निर्माता की तुलना में उन्होंने ऐसी फ़िल्में बनाई हैं जिन्हें समय के बाहर भी देखकर आनंद प्राप्त किया जा सकता है।’ सत्यजित राय की फिल्मों में समय और संगीत पक्ष बहुत प्रभावी रहे हैं। उनकी शुरू की तीन फिल्मों में पंडित रविशंकर ने और जलसाघर में विलायत खां ने संगीत रचना किया था। जल्द ही संगीत पक्ष को उन्होंने अपने अधिकार में ले लिया और आगे की फिल्मों में स्वयं संगीत रचना भी किया।

सत्यजित राय ने 1960 में प्रभात मुखर्जी की कहानी पर आधारित ‘देवी’ फिल्म का निर्देशन किया। देवी भारतीय अंध विश्वासों पर निरपेक्ष नजरिया प्रस्तुत करती है। 1961 में राय ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की तीन कहानियों पोस्ट मास्टर, मोनिहार और समाप्ति पर तीन लघु फिल्में बनाई जिन्हें संयुक्त रूप से तीन कन्या कहा जाता है। वे 1958 में जलसाघर के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक और साठ में देवी के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक प्राप्त कर चुके थे और इकसठ में राष्ट्रपति का रजत पदक ‘समाप्ति’ के लिए प्राप्त किया।

1962 में बनी ‘कंचनजंघा’ की कहानी राय ने स्वयं लिखी थी। अपने रचनात्मक जीवन के सिर्फ सात वर्षों में सत्यजित राय ने आठ ऐसी फिल्में निर्देशित की जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक पुरस्कारों से नवाजा गया। इसके बाद 1963 में ‘महानगर’, सत्तर में ‘प्रतिद्वंदी’, इकहत्तर में ‘सीमाबद्ध’ और पचहत्तर में ‘जन-अरण्य’ नामक महत्वपूर्ण फिल्मों का निर्देशन किया। सतहत्तर में राय ने प्रेमचंद की कहानी पर आधारित अपनी पहली हिन्दी फिल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ का निर्देशन किया। प्रेमचंद की दूसरी कहानी ‘सद्गति’ पर टेली फिल्म का भी निर्देशन किया।

साहित्यिक कहानियों में सिनेमाई छूट लेते हुए परिवर्तन के लिए सत्यजित राय हमेशा आलोचना के शिकार होते रहे लेकिन सद्गति में उनहोंने कुछ परिवर्तित नहीं किया। उन्हीं के शब्दों में – ‘यदि मुझे सद्गति जैसी कहानी पहले मिल गयी होती तो मैं तभी उसपर फिल्म बना चुका होता। यह ऐसी कहानी है जो इसी प्रकार से ही प्रस्तुतीकरण की मांग करती है। मैंने कहानी में बिलकुल कोई परिवर्तन नहीं किया।’ 1989 में सत्यजित राय अपनी तीसवीं कथा फिल्म ‘गणशत्रु’, नब्बे में ‘शाखा-प्रशाखा’ और एकान्बे में ‘आगंतुक’ बनाते हैं। इन आखिरो दो फिल्मों को आत्मकथात्मक कहा जा सकता है। सत्यजित राय ने बच्चों के लिए सतसठ में ‘चिड़ियाखाना’, अड़सठ में ‘गूपी गायने बाघा बायने’, चौहत्तर में ‘सोनार केला’, अठहत्तर में ‘जय बाबा फेलूनाथ’ और अस्सी में ‘हीरक राजार देशे’ फिल्म का निर्माण किया। Satyajit Ray Org: Life, films and filmmaking of Satyajit Ray

सत्यजित राय को 1987 में फ्रांस से ‘लीजिन ऑफ द ऑनर अवार्ड’, सतसठ में ‘मेगसेसे अवार्ड’ और इकहत्तर में ‘स्टार ऑफ यूगोस्लाविया’ प्राप्त हुआ। इकहत्तर में ही दिल्ली विश्व विद्यालय ने और चौहत्तर में रॉयल कॉलेज ऑफ आर्ट लंदन ने डी लिट की उपाधि दी। छिहत्तर में उन्हें भारत सरकार से पद्म विभूषण मिला। अठत्तर में ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी ने सत्यजित राय को डी लिट की उपाधि से सम्मानित किया। 1991 में उन्हें फिल्म क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरस्कार ऑस्कर अवार्ड प्राप्त हुआ। उस वक्त राय ऐसे छठे व्यक्ति थे जिन्हें फिल्म क्षेत्र का विश्व स्तरीय पुरस्कार ऑस्कर प्राप्त हुआ था। तेईस अप्रैल 1992 को अस्वस्थता के कारण राय का निधन हो गया। अपने पीछे सत्यजित राय सिनेमा और साहित्य का इतना बड़ा संसार रच गये हैं जिसका आने वाली सदियाँ मंथन करती रहेंगी।अपनी फिल्मों से सत्यजित राय ने जहाँ एक सामाजिक वैश्विक चेतना का निर्माण किया, वही दूसरी तरफ अपने विचारों को कलमबद्ध करते हुए उन्होंने सृजनात्मक लोगों में आत्मविश्वास भी जगाया।

सत्यजित राय के सिनेमा को किसी एक विचारधारा, एक फ्रेम में बांधना असंभव है। फिर भी फिल्म चिन्तक इसका प्रयत्न करते रहते हैं। अपने समग्र रचना कर्म में सत्यजित राय ने एक सात्विक और निष्पक्ष दृष्टिकोण का उत्तरदायित्व के साथ पालन किया है जो तलवार की धार पर चलने जैसा ही है।

श्याम बेनेगल के शब्दों में सत्यजित राय की सबसे बड़ी सफलता ये है कि उन्होंने दर्शकों के लिए वास्तविक संसार निर्मित किया। वे सबसे पहले एक स्टोरी टेलर हैं। कहानी कहने की उनकी योग्यता असंदिग्ध है। सत्यजित राय को यूरोप और अमेरिका में पहले पहचाना गया। पाथेर पांचाली का अमेरिका के किसी न किसी कोने में आज भी रोज एक प्रदर्शन होता है। उनकी फिल्में प्रतिदिन विश्व भर में कहीं न कहीं रोज दिखाई जाती हैं।

किसी भी भारतीय के लिए यह हमेशा गर्व का विषय बना रहेगा कि सत्यजित राय इसी भारतीय मिट्टी से बने हैं। कई दशक तक विदेशियों के लिए भारत का मतलब सत्यजित राय का सिनेमा ही था। आज विश्व की आम जनता राय की फिल्मों में चित्रित मानव जीवन की झांकी से अपने आप को जोड़ती है। भारत के बाहर के दर्शक भी उनके रचे जीवन के तत्व अपने जीवन में महसूस करते हैं। सत्यजित राय ने विश्व मानव के अंतरतम को परदे पर उकेर कर हमेशा के लिए विश्व भर के दर्शकों के दिलों में अपनी जगह सुरक्षित कर ली।

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अनुपम ओझा

लेखक पिछले तीन दशक से कवि, फिल्मकार और कथाकार के रूप में सक्रिय हैं। सम्पर्क +919936078029, dranupamojha@gmail.com
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