भारत में बढती असमानता पर ऑक्सफेम की रिपोर्ट
आज अर्थात 22 जनवरी से 25 जनवरी, 2019 तक धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले स्वीटजरर्लैंड के दाओस शहर में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम के बैनर तले दुनिया के तमाम अमीरों के प्रतिनिधियों के साथ सारे मुल्कों के राजनीतिक नियंता बैठकर चतुर्थ औद्योगिक क्रान्ति की नई वास्तुकला को आकार देने पर मंथन करेंगे. इस सम्मलेन में भाग लेने के लिए 100 सीईओ, तीन मुख्यमंत्रियों और दो सहयोगियों के साथ भारत के वर्तमान वित्तमंत्री श्री अरुण जेटली भी पहुँच रहे हैं.
इस वार्षिक अधिवेशन के ठीक एक दिन पहले ऑक्सफेम हर वर्ष एक रिपोर्ट जारी करता है. इस बार भी उसने ‘पब्लिक गुड या प्राइवेट वेल्थ’ नाम से असमानता रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि पिछले वर्ष की तुलना में वर्ष 2018 में अमीरों की संपत्ति में कैसे बेतहाशा वृद्धि हुई है और गरीब आज भी लगभग वहीँ पर ठिठके हुए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर अरबपतियों की संपत्ति में जहाँ 12 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, वहीँ भारत के अरबपतियों की संपत्ति में 35 गुना वृद्धि हुई है और भारत ने विश्व को 18 नए अरबपति प्रदान किये हैं. यह आर्थिक वृद्धि निचले पायदान की 50 प्रतिशत आबादी की भी हुई है, मगर 35 प्रतिशत की तुलना में महज 3 प्रतिशत अर्थात न के बराबर. रिपोर्ट यह भी बताती है कि वर्ष 2018 में अरबपतियों ने प्रतिदिन 2,200 करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया है और 1 प्रतिशत अरबपतियों की संपत्ति 115 अरब डॉलर बढ़ी है. भारत के शीर्ष महज नौ अरबपतियों की संपत्ति भारत की 50 प्रतिशत आबादी की संपत्ति के बराबर है और 10 प्रतिशत अमीरों के पास देश कि संपत्ति का 77.4 प्रतिशत भाग है. देश के निचले पायदान के 60 प्रतिशत ऐसे लोग हैं, जो देश की कुल संपत्ति के 4.8 प्रतिशत भाग से ही संतोष करने को विवश हैं. रिपोर्ट यह भी चौंकाती है कि भारत के चिकित्सा व सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता व जलापूर्ति पर कुल संयुक्त राजस्व तथा केंद्र व राज्यों का पूँजीगत व्यय, जो 2 लाख, 08 हजार, 186 करोड़ रुपये है, एक ही अरबपति मुकेश अंबानी की संपत्ति (2,807 अरब रुपये) से भी कम है. रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि भारत के 1 प्रतिशत शीर्ष अमीर भी 0.5 प्रतिशत अधिक कर दे दें तो स्वास्थ्य सेवा के सरकारी खर्च में 50 प्रतिशत वृद्धि हो सकती है.
विश्व आर्थिक मंच के सम्मलेन के पूर्व जारी यह रिपोर्ट एक तरफ यह दहशत उत्पन्न करती है कि देश के एक ही अमीर के सामने दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार कितनी बौनी प्रतीत होती है. पूरे पूँजीवाद के सामने कितनी तुच्छ है, इसके बारे में तो कहा ही नहीं जा सकता है. दूसरी तरफ यह रिपोर्ट यह भी चिंता उत्पन्न करती है कि इस देश में अमीरी और गरीबी की खाई किस राकेट गति से बढ़ रही है. इसी देश में एक नीता अंबानी है, जिस पर रोज का खर्च एक करोड़ रुपया है. दूसरी तरफ वह बिलबिलाती हुई अधिसंख्य आबादी है, जो अनेक रोगों से ग्रस्त होकर असमय ही कालकवलित हो जाती है, जिनके बच्चे अस्पतालों में दवा और ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ देते हैं, जो अपनी पत्नी की लाश को कन्धों पर ढ़ोकर घर लाने को विवश हैं, जिनके बच्चों को पढ़ाई से वंचित रखने के लिए सरकार विद्यालय बंद करने को अभियान की तरह चला रही है, जो खेती, किसानी, दस्तकारी, मजूरी से उजड़कर दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं और जिनकी पत्नियों और बेटियों की देह में खून नहीं है.
ऐसा क्यों होता है कि लोकतंत्र में जिन सरकारों को जनता की चिंता दूर करने के लिए चिंतित होना चाहिए, वे पूँजीपतियों के हितों की हिफाजत में जुट जाती हैं और पूँजीपतियों के विकास को ही देश का विकास बताने लगती हैं. वास्तव में लोकतंत्र पूँजीवाद की राजनीतिक व्यवस्था है. जब आर्थिक विकास सामूहिक उत्पादन के चक्के पर चढ़ जाता है तो एकाधिकारवादी राजतांत्रिक व्यवस्था उसे संभाल सकने में असमर्थ होती है. सामूहिक उत्पादन संबंधों को सामूहिक रूप से निर्वाचित सरकार ही गति दे सकती है. इसलिए राजनीतिक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र का स्वरुप गढ़ा जाता है. जैसे राजतंत्र सामंती संबंधों की हिफाजत करता था, उसी प्रकार लोकतंत्र पूँजीवादी संबंधों की हिफाजत करने लगता है. लेकिन लोकतंत्र में सरकार को जनता के समर्थन की आवश्यकता होती है, जो बहुसंख्यक होती है. इसलिए पूँजीपतियों और जनता के बीच सरकार की भूमिका बिचौलिए की होती है. यह बिचौलिया उस पक्ष का ज्यादा तरफदार हो जाता है, जो ज्यादा जगा होता है.
ऐसे में क्या करना चाहिए? नोबल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन और ज्याँ द्रेज ने अपने लेख ‘सिर्फ आर्थिक विकास नहीं, सामाजिक उन्नति भी चाहिए’ की निष्कर्षात्मक टिपण्णी में भारत में ऐसे विषम विकास पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए जन संघर्ष की आवश्यकता को रेखांकित किया है – “ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है जो इतनी तीव्र गति से और इतने समय से विकास कर रही हो परन्तु व्यापक सामाजिक उन्नति के मामले में इतने सीमित परिणाम वाली हो. …… यह इस अवधि की नीतियों की प्राथमिकता को प्रतिबिंबित करते हैं. परन्तु, जैसा कि हमने दिखाने का प्रयास किया है, इन प्राथमिकताओं को जनतांत्रिक संघर्षों द्वारा परिवर्तित किया जा सकता है.” अर्थात एक गैरसाम्यवादी अर्थशास्त्री भी, अवाम के हित में, विकास के लिए, जनसंघर्ष की आवश्यकता पर बल देता है. लोहिया बराबर इस संघर्ष के सातत्य पर बल देते हुए कहते थे – “सड़कें जब सुनसान हो जाती हैं तो संसद बेलगाम हो जाती है.”
जब जोंक पूँजीपति खून चूसने में मशगूल होते हैं, राजसत्ता उन रक्त्जीवियों की हिफाजत में सन्नद्ध होती है और बुद्धिजीवी भी सत्ता के दरबार में सारंगी बजाकर चारण-गान करने में विभोर होते हैं तो घने अंधेरों में घिरे भूखे और अधनंगे लोग, रोशनी की तलाश में, सड़कों पर उतर आते हैं. दुनिया में अब तक जितनी भी क्रांतियाँ हुई हैं, वहाँ भी इसी तरह का फर्क रहा है. एक तरफ बेतहाशा अमीर रहे हैं और दूसरी तरफ अन्न और वस्त्र के लिए बिलबिलाते लोगों का हुजूम रहा है. और, इन दोनों के बीच खड़ी सत्ता अमीरों की तरफदारी में बिलबिलाते लोगों को क़ानून का पाठ पढ़ा-पढ़ाकर डंडे बरसाती रही है.
हम भी, धीरे-धीरे, उसी मुहाने पर पहुँच गए हैं.