- विजय कुमार
ज्यादातर लोग हिंदीभाषी तीन राज्यों के कारण ही निर्णय देने लगे कि ऐसा हुआ या वैसा हुआ। दो राज्य जो अमूमन हिंदीभाषी नहीं है, वहां के परिणाम गंभीर मीमांसा की मांग कर रहे हैं। जिसमें भारत का उत्तर पूर्वी राज्य मिजोरम है जो लगातार स्वायत्तता की मांग करता रहा है। चुनाव में मिजोरम ने दोनों कथित राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा को विपक्ष के लायक भी नहीं माना है। आखिर क्यों अलग राह ले रहे हैं वे? चुनाव तो संवैधानिक व्यवस्था के कारण ही वहाँ भी हुए हैं? परिणाम पर हमारा कथित बौद्धिक दृष्टिकोण शून्य काल में क्यों चला जाता है। भारत की एकता और अखंडता की दुहाई देने वाली कॉंग्रेस बुरी तरह हारी है।
राष्ट्रवाद की बात करने वाली भाजपा भी ख़ारिज हो गई है। जिन्हें अलगाववादी कहते हम थकते नहीं, उस पर परिणाम के बाद बात करने की बात हल्की बूंदाबांदी के रूप में भी नहीं हो तो बात दूर तलक जा सकती है। उपेक्षा से आहत इलाका तलाक का स्वर उठाता है तो आप कहेंगे कि वह अलगाववादी है? सन्देश बहुत साफ है कि हम संविधान को मानते हुए भी कह रहे हैं कि हम भारत की एकता और उसके तिरंगा को स्वीकार करते हैं और स्थानीय स्वायत्तता की मांग करते हैं।
इसी प्रकार तेलांगना जो कभी किसान विद्रोह का देश में पहचान बन कर उभरा था। वहीं से विनोबा भावे के भूदान की गंगा निकली थी, उसने भी भाजपा और कांग्रेस को ख़ारिज कर दिया है। एक बार फिर वह भी कुछ कह रहा है, जो हम सुन नहीं पा रहे हैं। तेलांगना एक बार फिर अपनी राष्ट्रीय भूमिका निभाने के लिए तैयार हो गया है। विकास के मौजूदा दौर में इस ढांचे में अनफिट महसूस करता हुआ वह शायद कह रहा है कि अतिवाद से अलग भी रास्ता है जो स्वायत्तता और राष्ट्रीयता दोनों की मांग करता है।
हमारी संस्कृति, सरकार और हमारी राष्ट्रीयता सत्ता और संपत्ति के केन्द्रीयकरण तक सिमट कर सत्ता और संपत्ति के वितरण के लिए तैयार क्यों नहीं होती? सच तो यही है कि हम विकेंद्रीकरण से घबराते हैं। यही वजह है कि भारत की सरकार भाजपा की हो या कॉंग्रेस की, गांव की सत्ता गांव के हाथ और नगर की सत्ता नगर के हाथ देना ही नहीं चाहती है। केंद्र बनाम राज्य का टकराव सत्ता के केंद्रीकरण के कारण आनेवाले समय में बढ़ने वाला है। तो इस पर विचार करना ही पड़ेगा।
वे नारे लगा रहे थे कि हम भाजपा और कांग्रेस मुक्त सरकार देंगे। जाहिर है कि वे अपनी पीड़ा से मुक्ति के लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों के साथ अनुकूल नहीं हो पाते हैं। आखिर क्यों?
क्योंकि दोनों की विकास नीति एक है। मॉडल एक है। जनेऊधारी सेकुलरिज्म और भगवाधारी हिन्दुत्व दोनों का इन्कार है। इससे इतर हिन्दू मुस्लिम समुदाय की एकता और हिस्सेदारी की समझदारी के साथ निर्णय दिया है।
गौर से देखिए। आँख खोल कर देखिए। तेलंगना में, मिजोरम में लोकतंत्र, आस्था, संप्रदाय, सेकुलरिज्म, राष्ट्रीयता, स्थानीय स्वायत्तता के बीच सहभागिता नजर आती है। विकास भी कबूल। बाजार भी कबूल। पर बाज़ारवाद नहीं।
ओवैसी के साथ के सी आर के समझौते के सन्दर्भ में एक स्पष्टता की जरुरत है। पर वह एक तरह का यथार्थ ही है। सामाजिक न्याय और जनेऊ साथ नहीं चल सकते। उसी तरह अली और बजरंगवली के टकराव की बात नहीं चल सकती। समाज विज्ञान में डी कम्युनलाइजेशन के लिए गाँधी जी को खिलाफत का समर्थन लेना पड़ा था। जयप्रकाश नारायण ने संघ का साथ लोकतंत्र बनाम तानाशाही के संघर्ष में लिया था। तब हमारी नीति, राष्ट्रीय नीति यही हो सकती है कि स्थानीय स्वायत्तता और राष्ट्रीय एकता का समाज शास्त्र तथा स्थानीय और स्थानीय उत्पादन का अर्थशास्त्र ही खेती, किसानी, कारीगरी, उद्द्योग को ताकत देंगे। नए भारत का नया रास्ता।
विजय कुमार
लेखक गाँधीवादी विचारक हैं।