साहित्य

निराला की साहित्य साधना: एक युगद्रष्टा व्यक्तित्व का स्मरण

 

बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए अपनी परम्परा का ज्ञान आवश्यक होता है। परम्परा में जो कुछ सार्थक है; उसे आत्मसात करते, उससे सीखते मनुष्य अपने समय के चुनौतियों का सामना करने का प्रयास करता है। हम आज जो भी हैं, उसमे हमारी जातीय परम्परा का महत्वपूर्ण योगदान है। कला, साहित्य, संगीत, आदि की आज जो उपलब्धि हम देखते हैं, उसमे कितने ज्ञात-अज्ञात लोगों का योगदान है, यह जानना आज कठिन है, फिर विभिन्न कारणों से सब का योगदान अपने समय मे रेखांकित भी नही हो पाता; कुछ का इतिहास आने वाला समय लिखता है, मगर कुछ अलक्षित रह जाने के लिए अभिशप्त होते हैं! बावजूद इसके जो हमारे ज्ञात पुरोधा रहे हैं, समय के साथ उनका पुनर्मूल्यांकन होते रहना चाहिए; उनके कमियों-उपलब्धियों से सबक सीखते हुए उनके संघर्षो से प्रेरणा लेते रहना चाहिए।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। भारतेंदु-द्विवेदी युग से जो खड़ी बोली साहित्य में अपना स्थान बनाते आ रही थी, उसे छायावादी दौर में दृढ़ आधार मिला। गद्य के बाद अब कविता में भी वह ‘मुख्य धारा’ हो गयी। लेकिन इसके लिए छायावादियों को अथक श्रम और संघर्ष करना पड़ा। पंत, निराला, प्रसाद, महादेवी वर्मा सबका इसमे अपना-अपना योगदान रहा है; समानता के साथ इनमे भिन्नता भी रही है; सब की अपनी-अपनी दृष्टि थी; अलग-अलग परिस्थितियाँ थीं, जिसमे रहकर वे अपना रचनाकर्म कर रहे थें। छायावाद नए दौर की आवाज़ थी; इसमे बंधनो से मुक्ति की जो छटपटाहट है वह तत्कालीन औपनिवेशिक शासन से मुक्ति की छटपटाहट भी है।

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छायावाद के आधार स्ताम्भों में निराला की केन्द्रीयता रही है; समय ने यह सिद्ध कर दिया है। पिछले पचास-साठ वर्षों से जितना निराला साहित्य की चर्चा होती रही है, उतना मुक्तिबोध के अलावा शायद किसी अन्य कवि की नही हुई। दो अलग-अलग काव्य प्रवृत्तियों के होते हुए भी दोनों के जीवन संघर्षो में काफी समानता है। अवश्य संघर्ष के ताप से कला और चिन्तन में निखार आता है। निराला ने जिस तरह जीवन मे विकट आर्थिक, सामाजिक, साहित्यक संघर्ष किया उसने उनके सम्वेदना को झकझोरा, तदनुरूप उनके साहित्य में भी संघर्ष, द्वंद्व, गाम्भीर्य, परुषता परिलक्षित होता है।Suryakant Tripathi Nirala

अपने संयमित रचनाकाल में, जब उनका मन स्थिर रहा है, उनका सृजन अत्यन्त सशक्त और उदात्त है। ‘सरोज स्मृति’, ‘तुलसीदास’, ‘राम की शक्तिपूजा’ इसी दौर की रचनाएँ हैं। निराला साहित्य में नए भावबोध और शिल्प लेकर आये थें। ये नए भावबोध पुराने रीतिवादी दृष्टि से टकराते थें। अहं का अतिरिक्त बोध, नैतिक बंधनो से विद्रोह, भाषा मे सपाटता के बरक्स अभिव्यंजना, ये तत्कालीन काव्यभिरूचि से अलग थें। यही नही छंद तक से मुक्ति की घोषणा की गयी। जाहिर है इनका विरोध होना था; हुआ भी। ऐसा नही की ये विशेषताएँ केवल निराला काव्य में ही थी, उनके समानधर्मा रचनाकारों के काव्य में भी ये विशेषताएँ थी और उन्हें भी विरोध का सामना करना पड़ा। जवाब पंत जी ने भी दिया, मगर जितना तीव्र विरोध व्यक्तिशः निराला का हो रहा था उतना उनका नही।

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जितना तीव्र विरोध होता, निराला प्रत्युत्तर भी उतनी तीव्रता से देतें, वे अन्यों की तरह चुप नही रह जाते थे; इसलिए वे तनावग्रस्त भी अधिक होते गयें। उस पर जीवन की विडम्बनाएँ अल्प आयु में माँ का निधन, युवावस्था में पिता, पत्नी, चाचा, भाई का लगभग एक साथ आकस्मिक निधन, परिवार के कई सदस्यों के भरण-पोषण की जिम्मदारी, आय का कोई निश्चित साधन नही, प्रकाशकों द्वारा शोषण, इंट्रेंस फेल, इन सब ने मिलकर उनके अन्दर एक असुरक्षा बोध पैदा किया। कुछ समय बाद पुत्री सरोज के आकस्मिक निधन ने जैसे उन्हें तोड़ ही दिया, “दुख ही जीवन की कथा रही, क्या कहूँ जो अब तक कही नही”।

इन आघातों के बावजूद वे खुद को संभालते रहे और लिखते रहें; मगर उनका एक मन कल्पना लोक में जीने लगा, और वे इन आघातों की पूर्ति कल्पना से करने लगें, और उनके मानसिक विक्षेप की समस्या बढ़ने लगी; जो उनके जीवन के साथ ही खत्म हुई। यह कभी बढ़ती, कभी घटती, जो निराला के उस दूसरे मन का साक्षी है जो कभी थका नही। यह ‘दूसरा मन’ भी अन्तिम समय तक उनके साथ रहा और उनसे रचना कराता रहा “वह एक और मन रहा राम का, जो थका नही। जो नही जानता दैन्य, नही जानता विनय”

 

निराला के सम्बन्ध में उपर्युक्त बातें, डॉ रामविलास शर्मा लिखित ‘ निराला की साहित्य साधना – भाग एक (जीवनी)’ को पढ़कर ज़ेहन में गूंजती है। यह पुस्तक जब से प्रकाशित हुई है (1972), चर्चित रही है। इसे डॉ. शर्मा का श्रेष्ठ कार्य माना जाता रहा है; इसी पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। यों इसमे निराला के जीवन के साथ-साथ डॉ. शर्मा के साहित्यिक विकास के बारे में भी काफी जानकारी मिलती है। वे लखनऊ में अपने अध्ययन काल मे निराला के काफी करीब रहें, और उनके जीवन को नजदीक से देखा।

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निराला और डॉ शर्मा का यह साहित्यिक सम्बन्ध ऐतिहासिक साबित हुआ। निराला की कविताओं पर जटिलता, दुरूहता के जो आरोप लगाए जा रहे थे, उसे दूर करने का बहुत हद तक डॉ. शर्मा को भी श्रेय है। खुद डॉ शर्मा के काव्य प्रतिमान भी निराला की कविताओं से प्रभावित होकर विकसित हुए हैं। यह अकारण नही की वे निराला को तुलसीदास के बाद सर्वश्रेष्ठ कवि मानते हैं। उन्होंने एक पत्र में केदारनाथ अग्रवाल को लिखा है कि वे इनती मेहनत अब किसी दूसरी पुस्तक में नही कर सकते, और केदारनाथ जी ने उचित ही इसे ‘रामविलास की साधना’ कहा है।nirala ki sahitya sadhna

कुछ लोग आरोप लगाते रहें कि डॉ शर्मा ने निराला के अन्तर्विरोधों का सरलीकरण किया है; मगर यह उनकी (डॉ शर्मा) पद्धति रही है कि वे विवेच्य के अन्तर्विरोधों को दिखाते हुए यह भी देखते हैं कि वह समाज के विकासमान शक्तियों के पक्ष में कितना है। और यदि वह विकासमान शक्तियों के साथ है तो अन्तर्विरोधों को अपेक्षाकृत कम महत्व देते हैं, जो उचित ही है।

आज न निराला हैं, न डॉ शर्मा, न वे लोग जो निराला का विरोध करते थे। मगर एक जीवन्त जुझारू परम्परा है, जो निराला, डॉ शर्मा और उनके सहयोगियों ने बनाया है। आज का युवा वर्ग उनसे प्रेरणा ले सकता है; लेता है। यह परम्परा हमे सिखाती है कि साहित्य जीवन से अलग नही होता, उसका रास्ता संघर्ष से होकर गुजरता है, यहाँ समझौता नही जीवटता होती है, हमारा सौंदर्यबोध जितना रूप, रस, गंध से प्रभावित होता है उतना ही दुनिया के विषमताओं से भी। निराला ने अपने समय के कई पाखण्ड, रूढ़ि, अभिजात्य को तोड़ा; आज जब जीवन और साहित्य में पुनः पाखण्ड और अभिजात्य बढ़ते दिखाई देते हैं; निराला का जीवन और साहित्य हमे रास्ता दिखा सकता है।

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अजय चन्द्रवंशी

लेखक ‌कवर्धा (छ.ग.) में सहायक ब्लॉक शिक्षा अधिकारी हैं। सम्पर्क +91989372832, ajay.kwd9@gmail.com
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